Friday, January 23, 2015

.. इजराइली मॉडल के बरक्स

चीन और पाकिस्तान की जुगलबंदी के साथ भारत को जिस सामरिक तरीके से घेरने की

व्यूह रचना की जा रही है, उसका जवाब अब जीरो टालरेन्स का इजराइल मॉडल ही है। संघ
प्रमुख मोहन भागवत जी ने संघ की सागर शिविर के बाद अपने सार्वजनिक संबोधन में भारत
को इस तरह की रणनीति अख्तियार करने के लिए संकेतों में अपनी बाते रखी हैं। श्री भागवत ने
विस्तार से वह दृष्टान्त रखा कि यहूदियों ने किस तरह इजराइल को एक मजबूत और संप्रभु राष्ट्र
के रूप में खड़ा किया कि आज दुनिया के किसी देश में इतनी हिम्मत नहीं कि वह  उसकी ओर
आँखे तरेर सके।
दरअसल पाकिस्तान जिस तरह शैतान की धुरी में बदल चुका है उसे इजराइल शैली में
ही जवाब देना होगा। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में नई सरकार बनने के बाद मोर्चे पर जिस तरह जैसे
को तैसा की रणनीति अपनाई गई उसका असर पाकिस्तान में भी दिख रहा है और चीन में। मोदी
के पहले तक जो भाषा भारत बोला करता थ वही अब ये दोनों पड़ोसी बोल रहे है। सामरिक
नीति पर कामयाबी की दिशा में यह सराहनीय कदम है। लेकिन इससे और आगे बढऩे से पहले
हकीकत के फलक पर खड़े होकर एक बात गौर करना होगी। इजराइल जिन मुल्कों से घिरा है
उनके पास आणविक हथियार नहीं हैं तथा उसकी पीठ पर अमेरिका, इंग्लैण्ड और फ्रांस जैसे
नाटो देशों का हाथ है। यहां पाकिस्तान एटमी ताकत से लैश है, उसकी शैतानियत की गर्भनाल
इन्हीं एटमी हथियारों के नीचे गड़ी है। हाल ही में अमेरिकी थिंक टैंक इन्स्टीट्यूट साइन्स एन्ड
इन्टरनल सिक्यूरिटी ने अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया है कि पाकिस्तान अपनी चौथी एटामिक
रियेक्टर इकाई खुशाब पर तेजी से काम कर रहा है, यहाँ परमाणु हथियारों में उपयोग किए
जाने वाले प्लूटोनियम को संवर्धित किया जाएगा। अमीरिकी खुफिया सेटेलाइट ने १५ जनवरी
को वहां की तस्वीरें भी जारी की है। पाकिस्तान दुनिया का एकमात्र मुस्लिम देश है जिसके पास
यह एटमी ताकत है। सही मायने में पूछा जाए तो इस्लामिक आतंकवाद को भी यहीं से ऊर्जा
मिलती है। अब तक दुनिया में जितनी भी बड़ी आतंकी वारदातें हुयी हैं उसका प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष
तौर पर पाकिस्तान से सम्बन्ध रहा है। चाहे वह ९/११ की घटना हो यया मुंबई की। चार्ली एब्दो
की घटना के बाद सबसे कड़ी प्रतिक्रिया भी पाकिस्तान में ही हुई है। अमेरिका ने जिस हाफिज
सईद को वांछित अपराधी मानते हुए करोड़ों डालर का इनाम घोषित किया है वहीं हाफिज
चार्ली-एब्दो की घटना के बाद लाहौर बंद व मिलेनियम मार्च की ऐलान करता घूम रहा है।
पाकिस्तान को सेवा-चिकित्सा व शिक्षा के क्षेत्र में अमेरिका जितना भी अनुदान देता है उसका
हिस्सा हाफिज के जमात-उद-दावा के खाते में चला जाता हैं और उसी रकम से कश्मीर में जब-
तब दबिश देने वाले आतंकी तैय्यार होते हैं।
पाकिस्तान को लेकर अमेरिका की नीति अभी भी भारत के लिए एक अबूझ पहेली की
भांति है। आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि अमेरिका सबकुछ जानते हुए भी आँखे मंूदे हुए है,
और उसी की खैरात में दी गई रकम से अप्रत्यक्ष रूप से आतंकी संगठन पल रहे हैं। जबकि संयुक्त
राष्ट्र संघ की सहमति से अमेरिका ने इराक पर इस संदेह के आधार पर हमला किया था कि वहां
उसने जैविक व रासायनिक हथियार जुटा लिए हैं। अमेरिका को वो नरसंहार के हथियार मिले
या नहीं लेकिन इराक मिट्टी में मिल गया और सद्दाम हुसैन को चूहे की मौत मिली। यह निष्कर्ष
भी अमेरिकी का ही है कि पाकिस्तान की मिलिट्री और उसकी खुफिया एजेन्सी आईएसआई
आतंकवादी संगठनों से मिले हुए हैं और वे इनका इस्तेमाल पड़ोसी देशों के खिलाफ रणनीतिक
तौर पर करते हैं। पाकिस्तान की जम्हूरियत भी वहां की मिलिट्री की बूटों के नीचे दबी है। वहां
लोकतंत्र महज मुखौटा हैं। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान के एटमी हथियार सर्वदा असुरक्षित हैं और
जो मिलिट्री एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन को पाल सकती है वह किसी भी हद तक जा
सकती है। पेरिस की घटना के बाद इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ जिस तरह दुनिया के देश
जुटते जा रहे हैं और आज नहीं तो कल एक निर्णायक जंग छिडऩी ही है ऐसी स्थिति में यदि
पाकिस्तान के एटमी हथियारों का जखीरा आतंकवादियों के हाथ लग गया तो दुनिया का क्या
हश्र होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। जेहाद के नाम पर आतंक का कारोबार करने
वाले आईएसएस, अलकायदा और तालीबान जैसे संगठनों के शुभचिन्तक पाकिस्तान की
मस्जिदों के बाहर मिलिट्री में भी हैं व वहां के राजनीतिक संगठनों में भी।
इन स्थितियों के चलते अब वक्त की मांग यह है कि पाकिस्तान के परमाणु प्रतिष्ठान को
संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी निगरानी में लेकर इस बात का परिक्षण करे कि पाकिस्तान का परमाणु
कार्यक्रम कितना शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है और कितना उसके शैतानी मंसूबों के लिए। यदि
ऐसा होता है तो उसका सीधा असर इस्लामिक आतंकवाद को काबू करने में दिखेगा। परमाणु
शक्तिविहीन पाकिस्तान में कोई आतंकी शिविर भी नहीं चल पाएंगे क्योंकि ऐसी स्थिति में इन
शिविरों को निपटाने में भारत कोई ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। वैसे मोदी ने मोर्चें पर जीरो टॉलरेंस
की नीति का पालन करने के लिए जिस तरह से भारतीय पलटन को निर्देश दिए हैं और उसका
त्वरित अमल हुआ है वह- देश की सुरक्षा के लिए इजराइली मॉडल की ओर ही बढ़ा हुआ पहला
कदम ही समझिए।

(लेखक - वैचारिक मासिक 'चरैवेति के संपादक है)

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