Friday, June 14, 2013

रूपए की इज्जत का सवाल है बाबा

उस दिन जब रुपया धड़ाम से नीचे गिरा तो अर्थशास्त्रियों के बीच हाहाकार मच गया। तेजडिय़ों, मंदडिय़ों के चेहरे सूख गए। शेयर बाजार में सेनसेक्स और निफ्टी के कांटे हार्टअटैक नापने की मशीन के कांटे की तरह ऊपर-नीचे हो रहे थे। टीवी चैनलों से चिन्तित आवाजें आ रही थीं। देश की अर्थव्यवस्था हांफ रही है, वित्तमंत्री जी कुछ करिए। वित्तमंत्री जी देश को दिलासा दे रहे थे कि सब कुछ ठीक हो जाएगा... डॉलर की अकड़ जल्दी ही ढ़ीली पड़ जाएगी। अभी हमारे बंदे पता लगा रहे हैं कि कौन-कौन सा क्षेत्र एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) के लिए बचा है। उन इलाकों की भी खोज की जा रही है जहां मल्टीनेशनल्स या अमेरिकी पूंजी से चलने वाले कारपोरेट घरानों को तेल-गैस- कोयला - हीरा और अन्य खनिज खोदने के पट्टे दिए जाएं। इनका पता लगते ही डालरों की बरसात होने लगेगी और अपना रुपया फिर तन जाएगा।
अपुन अर्थशास्त्री नहीं है, लिहाजा पहले तो रुपए गिरने की खबर सुनी तो लगा.. रिजर्व बैंक के खजाने से रुपए की पेटी या ट्रंक धड़ाम से नीचे गिरा होगा। रुपए का गिरना और उठना अपन बीपीएल (बिलो पॉवर्टी लाइन) वालों को समझ में नहीं आता। वैसे भी हम गरीबी रेखा के नीचे गिरे हुए लोग हैं। फिर भी अपने मोहल्ले में रहने वाले और सरकारी स्कूल में इकॉनामिक्स-कॉमर्स पढ़ाने वाले मास्साब से पूछा कि सर जी ये रुपया गिरता कैसे है? मास्साब संविदाकर्मी थे, डीईओ-बीईओ को रिश्वत देकर नौकरी पाई थी, .. सो उस टीस को अपनी व्याख्या में घोलते हुए कहा कि जैसे मेरा प्रिन्सिपल डीईओ के, डीइओ शहर के नेता के, नेताजी-मुख्यमंत्री के,  मुख्यमंत्री आलाकमान के चरणों पर पाटापसार गिरते हैं, वैसे ही अपना रुपया डॉलर के चरणों में गिर गया है। मास्साब बोले- जब समूचे देश में ही नीचे गिरने की होड़ मची हो तो बेचारा रुपया कब तक थमा-तना रहेगा। हाल ही में देखा ... कि क्रिकेटर रुपए के लिए कितना नीचे गिर सकते हैं। सरकार के कई नेता मथानी घपले घोटालों में फंसकर नीचे गिर गए। कोई चारित्रिक रूप से नीचे गिरता है तो कोई नैतिक रूप से। इसे ऐसई गिरे रहने दो। मैंने कहा - मास्साब सवाल ये है कि अपना रुपया डॉलर के सामने गिरा है, ये अपने देश के स्वाभिमान से जुड़ा मामला है। गांधीजी चर्चिल के सामने तो नहीं गिरे। विवेकानंद ने शिकागो में भूखे भारत की धार्मिक व अध्यात्मिक शान के झण्डे को फहराया। धमकी पर धमकी के बाद भी इन्दिरा जी अमेरिका के आगे नहीं गिरी। मास्साब आखिर अपने रुपए का कुछ तो स्वाभिमान होना चाहिए। जब देखो तब डॉलर के आगे पसर जाता है। मास्साब ने ज्ञान की पिटारी खोली और जानकारी दुरुस्त करते हुए बताया अपने प्रधानमंत्री कौन है? डा. मनमोहन सिंह हैं न। ये वही मनमोहन सिंह है कभी जिनके दस्तखत रिजर्व बैंक के नोट पर रहते थे। फिर ये आईएमएफ (इन्टरनेशनल मनिटरी फंड) और वल्र्ड बैंक में नौकरी करने गए। इन दोनों जगहों में डॉलर का ही बोलबाला है। फिर इन्डिया लौटे तो नरसिंहराव के खजांची बन गए। जब खजांची बने तो देखा खजाने में एक डॉलर भी नहीं। चन्द्रशेखर जी देश का सोना गिरवी करवा गए थे। मनमोहनजी ने जुगत लगाई और देश के खिड़की -दरवाजे डॉलर के प्रवेश के वास्ते खोल दिए। इन्डिया आओ, डॉलर दो, लूटो खाओ, डॉलर दो। इसी को आर्थिक उदारीकरण यानी कि ग्लोबलाइजेेशन कहते हैं। यूरोपी कम्पनियां इन्डिया आईं डॉलर दिया, प्राकृतिक संसाधनों को लूटा। अपने प्रधानमंत्री का डॉलर प्रेम या डॉलर भय पुराना है। सो जब डॉलर अपने फॉर्म पर आता है तो अपनी अर्थव्यवस्था के रंग उड़ जाते है और रुपया डॉलर के चरणों पर बिछ जाता है। और यह तब तक बिछा रहता है जब तक अमेरिका, यूरोप के मल्टीनेशनल्स डॉलर की नई खेप लेकर इन्डिया नहीं पहुंचते। यानी कि जब रुपया गिरे तो समझिए कोई नया विनिवेश-आर्थिक समझौता और व्यापारिक सौदा होने वाला है। मास्साब का अर्थशास्त्र आपके पल्ले पड़ा या नहीं ये आप जाने... अपुन के तो सिर के ऊपर से निकल गया।

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