Wednesday, June 12, 2013

इस आडम्बरवाणी को क्या समझें!

आडवाणी जी को वक्त की चिन्ता है जो उनके पास बहुत कम है। वे अभी नहीं तो
कभी नहीं की मनोदशा से गुजर रहे हैं। वे इतिहास रचना चाहते हैं। वक्त
बेरहम होता है वह हमारे व आपके सुविधानुसार नहीं चलता। यह वक्त का ही
थपेड़ा है कि आडवाणी जी जीवन के उत्तरार्ध में एके हंगल सा फिल्मी चरित्र
जीने को अभिशप्त हैं, जिसे उनके बच्चे ही उपेक्षा की अंधी कोठरी में
पहुंचा देते हैं।

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लालकृष्ण आडवाणी के इस्तीफा प्रकरण में ऐसा कुछ नहीं है जिस पर गंभीर
विमर्श की जरूरत हो। सब कुछ साफ-साफ और सपाट। यह उनकी आहत आकांक्षा का
व्यक्तिगत मामला है, जिसका प्रकटीकरण वे समय-समय पर करते रहे हैं।
इस्तीफे में देश हित- देशवाशियों की चिंता और पार्टी की दिशा-दशा का
जिक्र अवश्य है, पर वास्तव में इनसे कुछ लेना देना नहीं। अव्वल यह
इस्तीफा है भी और नहीं भी। उसी तरह जैसे वे बीमार थे और बीमार नहीं भी
थे। उन्होंने एनडीए के अध्यक्ष पद से इस्तीफा नहीं दिया जबकि यहां तो वे
भाजपा का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। गोवा नहीं गए क्योंकि बीमार थे।
पार्लियामेंट कमेटी की बैठक में तीन घण्टे जमे रहे क्योंकि बीमार नही थे।
लोकसभा के पिछले तीन चुनावों से वे अभी नहीं तो कभी नहीं का खेल खेल रहे
हैं। सन् 2004 के चुनाव में वे स्वयं को भावी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार
के तौर पर देख रहे थे। फील-गुड और शाइनिंग इन्डिया उन्हीं का जुमला था।
वाजपेई जी के रिटायर होने की बातें भी आडवाणी खेमें ने उड़ाई थी। वाकपटु
वाजपेई जी ने यह कहकर आडवाणी की आकांक्षा के गुब्बारे में सुई चुबो दी कि
अभी न कोई टायर्ड हुआ है न रिटायर्ड, आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा का
विजय रथ मंजिल तक पहुंचेगा। 2004 के चुनाव का मायाजाल प्रमोद महाजन ने
बुना था। फिल्मी हस्तियों से लेकर साहित्यकार, विद्वान व दूसरे दलों के
नेताओं को शामिल करके मीडिया प्रबंधन के जरिए तिलस्म रचा गया था। भाजपा
के नीचे की जमीन खिसक चुकी थी फिर भी यकीन नहीं था। चुनाव में कांग्रेस
और उसके साथी दलों को सरकार बनाने लायक सीटें मिल गईं थी। भाजपा बेदखल
होकर सड़क पर खड़ी थी। आडवाणी फिर भी धारा के खिलाफ चलते रहे। नेता
प्रतिपक्ष न बन पाने की स्थिति में विरोध व अवरोधों के बावजूद अपने
चहेतों सुषमा स्वराज और अरुण जेटली को लोकसभा व राज्यसभा का नेता बनवाया।
जिन्ना एपीसोड आडवाणी जी का योजनाबद्ध कदम था। वे वाजपेई जैसा उदात्त
दिखने की गरज से मुसलमानों के आराध्य नेता की तारीफ कर आए। उम्मीद थी कि
2009 में उन्हें उदात्त दिखने की जरुरत पड़ेगी। प्रायमिनिस्टर इन वेटिंग
आडवाणी के समर्थकों का गढ़ा जुमला था। वे जल्दी में थे ओल्डमैन इन हरी के
अन्दाज में। प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री उनके चेले-चपाड़े बना सकते हैं,
जनता तो वहीं करेगी जो उसे करना है। उनके नेतृत्व में भाजपा हारी और
प्रायमिनिस्टर इन वेटिंग का जुमला मजाक बन गया। आडवाणी जी अपनी सभाओं में
बड़े गर्व के साथ कहा करते थे कि देश में आंतरिक लोकतंत्र सिर्फ दो
राजनीतिक दलों में हैं भाजपा और साम्यवादी दलों के पास। खैर भाजपा
साम्यवादी दलों की रीति-नीति और चरित्र के मामले में पासंग भी नहीं।  आज
आडवाणी उपेक्षा से आहत हैं तो भाजपा में भूचाल आ गया। पर लोकसभा के
स्पीकर रहते हुए सोमनाथ चटर्जी को माकपा ने पार्टी लाइन के खिलाफ जाने पर
सदस्यता से वंचित करने में दो मिनट भी नहीं लगाया।  इतने बड़े नेता के
निकाल बाहर किए जाने पर भी पार्टी में कोई चूं-चपड़ नहीं हुई। पालित
ब्यूरो ने ज्योतिर्मय बसु को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। देश की
राजनीति के युगपुरुष ज्योति बाबू फैसला सम्मानपूर्वक जज्ब कर गए। आडवाणी
जी की तरह अपनी आहत आकांक्षा का इस्तीफे के पोस्टर चिपकवाकर प्रकटीकरण
नहीं किया।
मोदी कोई प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित नहीं किए गए हैं। उन्हें
भाजपा ने अपनी चुनाव अभियान समिति का उसी तरह अध्यक्ष बनाया है, जैसे कि
इसके पहले अरुण जेटली और प्रमोद महाजन को बनाया था। यदि पार्टी का बहुमत
मोदी को इस पद में बनाए जाने के पक्ष में है, तो आडवाणी जी को क्या
दिक्कत? वे जिस आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई अक्सर दिया करते थे क्या वे
स्वयं उसके खिलाफ नहीं हैं ? वस्तुत:  आडवाणी अपनी ही कृति से भयभीत हो
गए हैं। पर मुश्किल यह है कि वे ऐसे सिद्ध पुरुष भी नहीं कि शेर बनाने के
बाद उसे ‘पुर्नमूषको भव:’ का अभिशाप दे सकें।  2 सीटों वाली भाजपा 17 साल
बाद सत्ता की दहलीज तक किसी सांगठनिक कौशल के बदौलत नहीं पहुंची। इस
सत्रह वर्षों में देश ने झूठ-फरेब, भ्रम-उन्माद के दौर देखे धार्मिक
भावनाओं का ज्वार उभारा गया, उसी ज्वार से उठी लहरों ने भाजपा को सत्ता
के करीब पहुंचाया। नि:संदेह इस पराक्रम के सूत्रधार और महारथी लालकृष्ण
आडवाणी थे। वे जब भाजपा के शून्य से शिखर तक पहुंचने की इबारत पर नजर
डालते हैं तो अब तक प्रधानमंत्री  न बन पाने के लिए दुखी हो जाते हैं।
मोदी ने आडवाणी के ही विचारों को गुजरात में घनीभूत किया। गोधरा के बाद
जब प्रधानमंत्री वाजपेयी जी आहत और संतप्त मन से मोदी को राजधर्म के पालन
की नसीहत दे रहे थे तब बतौर देश के गृहमंत्री आडवाणी जी मोदी को उनके
पराक्रम और अदम्य साहस के लिए नैतिक संबल दे रहे थे। कारपोरेट के
दिग्गजों और मीडिया ने मोदी का जिस तरह से आभासी चरित्र गढ़ा है, उसी
चरित्र से आडवाणी जी भयाक्रान्त है। भयाक्रान्त सिर्फ आडवाणी जी ही नहीं
गडकरी से लेकर राजनाथ और जेटली से लेकर सुषमा तक सभी है। महाबली मोदी के
इस आभासी चरित्र के आगे भाजपा भी बौनी है और संघ भी।  तभी वे चुटकियों
में संघ के प्रिय संजय जोशी को बाहर करवा देते हैं, और गोधरा के चर्चित
चेहरे अमित शाह को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनवा देते हैं। मोदी मीडिया
के जरिए खेल रहे हैं और मीडिया मोदी के जरिए धंधा कर रहा है। मोदी आधार
भी सोशल मीडिया की तरह आभासी है, छद्म है। अम्बानी और टाटा की सर्चलाइट
की चकाचौंध में उन्हें देश की हकीकत कभी नहीं दिखेगी। वे चकाचौंध को ही
अपने प्रभाव का चिलस्म मान रहे हैं। पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की बात
करने वाले आडवाणी को तो खुश होना चाहिए कि उनकी राजनीति का वंशधर देश को
सम्हालने चल निकला है। उसका भी सपना और एजेन्डा वही है जो आडवाणी जी का।
पर आडवाणी जी को न देश की चिन्ता है न देशवासियों और न ही पार्टी की।
उन्हें वक्त की चिन्ता है जो उनके पास बहुत कम है। वे अभी नहीं तो कभी
नहीं की मनोदशा से गुजर रहे हैं। वे इतिहास रचना चाहते हैं। जो पद उस लौह
पुरुष से वंचित रह गया था वह पद यह लौहपुरुष पाना चाहता है। वक्त बेरहम
होता है वह हमारे व आपके सुविधानुसार नहीं चलता। यह वक्त का ही थपेड़ा है
कि आडवाणी जी जीवन के उत्तरार्ध में एके हंगल सा फिल्मी चरित्र जीने को
अभिशप्त हैं जिसे उनके बच्चे ही उपेक्षा की अंधी कोठरी में पहुंचा देते
हैं।
 - लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। सम्पर्क-09425813208.

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