Friday, May 10, 2013

जेलों को कत्लगाह बना दिया


जेलों को कत्लगाह बना दिया पाकिस्तान की लाहौर जेल में भारतीय सरबजीत सिंह पर उसी जेल में ही बन्द कुछ कैदियों ने प्राण घातक हमला करके मार डाला। इसके पहले भी पाकिस्तान की जेलों में बन्द कई भारतीय कैदियों पर हमले हो चुके है और उनकी मौत हो चुकी हैं। भारत की जेलों में भी ऐसी घटनाएं होती हैं। अभी जम्मू की जेल में एक पाकिस्तानी कैदी पर जेल में ही एक कैदी ने प्राणघातक हमला किया है जिसका इलाज चल रहा है। वैसे इस तरह के हालात पाकिस्तान और भारत की ही जेलों के नहीं है जहां कैदी हमले के शिकार होते हैं।
सारी दुनिया की जेलों की यही कहानी हैं। हालांकि हर सरकार कैदियों के मानवाधिकार की हिफाजत की कसमें खाती रहती हैं, किन्तु कैदियों का जीवन जेल अधिकारियों तथा जेलों में बंद दबंग और माफिया कुनबे के कैदियों के रहम पर ही टिका होता हैं। जेलों में सरकार का कानून नहीं चलता, जेल मैन्युल खेतों में खड़े उस बिजूके की तरह होते हैं जिन्हें किसान जंगली जानवरों से अपनी फसल बचाने के लिए स्थापित कर देते हैं।
ऐसे ही हालात पुलिस हवालात में बन्द कैदियों के हैं। पुलिस अपनी हिरासत में लिए व्यक्ति को अपनी हवालात में उस पर आरोपित अपराध की स्वीकृति के लिए थर्ड डिग्री का बैखौफ इस्तेमाल करती हैं। इन पर ऐसे अमानवीय अत्याचार किए जाते हैं कि सुन कर ही कपड़े खराब हो जाते हैं और पेट के भीतर का सब खाया-पिया बाहर आ जाता हैं। लगातार घन्टों और कई बार कई दिनों तक चलने वाले इस अत्याचार के कारण कैदी के प्राण परमधाम की यात्रा पर निकल जाते हैं और कई बार इनको मार ही दिया जाता है। हमारे देश में अपराधों के अनुपात में पुलिस बल की कमी और सबूत जुटाने के लिए जरूरी दक्षता का अभाव तथा पुलिस संगठन की डडंहाई सोच के चलते हवालात में कैदियों के साथ किए जाने वाले बर्बरता के रूप में सामने आता हैं। अभी सरकार ने संसद को बताया है कि पिछले तीन साल में देश में पुलिस हिरासत में 417 लोगों की मौत हुई हैं।
असल बात तो यह है कि पुलिस के कामकाज के तरीके ज्यादा हिसंक हुए हैं। पुलिस की ज्यादती पर सुप्रीम कोर्ट कई बार चिन्ता प्रगट कर चुका है। सन 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने ग्यारह सूत्री निर्देश जारी किए थे, जिसमें उल्लेख था कि अगर पुलिस किसी को हिरासत में रखे तो किन-किन बातों का पालन करना होगा, लेकिन इनका पालन करना जरूरी नहीं समझ गया। जेलों और हवालातों में कैदियों के साथ होने वाले अमानवीय बर्ताव को लेकर मानवाधिकार आयोग नाराजगी जता चुका हैं किन्तु आयोग की कोई सुनता ही नहीं है ऐसा आभास होता है। जेलों में क्षमता से अधिक कैदी रखे जाते हैं।
हर बैरक में दुगने से भी ज्यादा कैदी बन्द कर दिए जाते हैं। इनमें शैाचालय व पीने का पानी भी मानदंड के अनुसार नहीं होता।
जेलों में भीड़ अधिक होने तथा भ्रष्टाचार की वजह से न तो समुचित भोजन मिल पाता है और न साफ-सफाई हो पाती है।
बीमार कैदियों को चिकित्सा तक सुलभ नहीं होती।
हर जेल का अलिखित कानून है कि कोई भी कैदी इस प्रसंग में अपना मुंह नहीं खोल सकता अगर वह ऐसा करता है तो उसके शरीर को गीले आटे की तरह इस तरह गूंथा जाता है कि सारी जिन्दगी वह इसे भुला नहीं पाता। जेलों में समलिंगी यौन शोषण आम चलन में हैं। दबंग कैदी आम कैदी से अपनी सेवा ही नहीं कराते बल्कि उस पर हिंसक दबाब बना कर नियमित रूप से पैसा भी वसूलते हैं। जेल प्रशासन आज भी लार्ड मैकाले की सोच का कायल है कि कोई भी अपराधिक कानून तब तक कारगर साबित नहीं हो सकता जब तक जेल में कैदियों को प्रताड़ित करने के साधन उपलब्ध न हों। सन् 1836 में जेल सुधार समिति की रपट से असहमत होते हुए मैकाले ने जेलों में अनुशासन बनाए रखने के लिए कठोर नियमों का होना जरूरी बताया था। जेल अधिनियम 1894 इसी पृष्ठभूमि में बना था।
कारावास अपने आप में एक सजा है। जेलों और हवालातों में यातना देना या मानव सुलभ सुविधाओं से कैदियों को वंचित रखना कानून की मंशा नहीं होनी चाहिए। जेलों और पुलिस की हिरासत में होने वाली मौतें सरकारी व्यवस्था का अमानवीय रूप उजागर करती हैं। देश में कैदियों के अधिकारों की किसी को भी परवाह नहीं है। सबसे चिन्ताजनक पहलू तो यह है कि हिरासत में या जेल में हुई मौतों या कैदियों को घायल करने के मामलों किसी की जबाबदेही निर्धारित करने के मामलें में लुंज- पुंज हैं, सटीक कार्यवाही का अभाव हैं। जेल प्रशासन ऐसे मामलों में बड़ी सफाई से यह तर्क देकर बच निकलता है कि कैदी आपस में लड़े हैं और जेल प्रशासन ने खबर पाते ही उचित व्यवस्था की हैं। देश में कौन नहीं जानता कि हमारी जेलों में मुंह मांगा पैसा खर्च करने पर जेल के भीतर हर वह चीज उपलब्ध हो जाती है जिसकी जेल नियमावली में मनाही है।
बहरहाल हवालात और जेल में कैदियों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार पर अंकुश तभी लग सकता है जब सरकार और मानव अधिकार आयोग गम्भीरता से कुछ ऐसे उपाए करें जिससे पुलिस तंत्र और जेल प्रशासन को मनमानी का मौका ही न मिले। सरकार की प्राथमिकताओं में जेल विभाग बहुत नीचे आता है। आम नागरिक भी जेलों से कोई सरोकार नहीं रखना चाहता। मीडिया के लिए जेलों के दरवाजे बन्द है जेलों की ऊंची चहारदिवारी के अन्दर झंकना असम्भव है। इस स्थिति में सरकार को संवदेना दिखानी चाहिए। सरकारें आज भी यही सोच रखती हैं कि अपराधी को समाज से दूर रखा जाना ही कारावास का मतलब है। अगर ऐसा ही है तो फिर जेलों पर इतना खर्च करना ही गलत है, अंग्रेजी राज की तरह कैदियों को किसी समुद्र में निर्जन टापू पर छोड़ देना सस्ता विकल्प है।
जेलों की हालत सुधारने के लिए कुछ तात्कालिक कदम तो उठाए ही जा सकते हैं जैसे- हवालातों और जेल के भीतर कैमरे लगाए जाएं और किसी भी हालत में इनको बन्द न किया जा सके। न्यायिक अधिकारी भी नियमित रूप से और कभी-कभी अचानक हवालातों तथा जेलों का निरीक्षण करें। इसके साथ प्रख्यात समाज सेवकों और मीडिया के लोगों की भी समिति हो जो इन जगहों का औचक निरीक्षण करके अपनी रपट सरकार को दें और सरकार ऐसी रपटों पर तुरन्त कार्रवाई भी करें।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र- 09425174450.

No comments:

Post a Comment