Friday, May 3, 2013

मां के समझदार पूतों की करतूत्

 चंद्रिका प्रसाद चंद्र 
मां के समझदार पूतों की करतूत ह म संसार के एकमात्र ऐसे देश के निवासी हैं, जिसके पूर्वजों ने प्रकृति के प्रारूपों से मानवीय रिश्ते कायम किये। आकाश को पिता, धरती को माता कहा। मां के रिश्ते को सबसे बड़ा रिश्ता इसलिए कहा कि उसने न सिर्फ मनुष्य बनाया। हम मां के विरुद्ध एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं थे। मां के बरक्स हमने पृथ्वी को मां कहा-‘माता भूति: पुत्राेहं पृथक्या:’। जब जननी भी पेट में न रख सकी, उसने नवें महीने धरती को सौंप दिया। फिर भी कर्त्तव्य विमुख नहीं हुई, चूम-चाट, धो-पोंछकर छाती से लगाकर धरती पर खड़ा किया। नदी को हमने मां कहा, उसमें नहाए, पानी पिया, अघ्र्य दिया, जल को ही जीवन माना। भारतीय मनीषा ने गाय को भी मां कहा। जब जननी पिलाने में अशक्त हुई, इस नई मां ने पोषण दिया। कहते हैं जब अनाचार चरम पर हुआ, धरती थक गई, तब उसने गाय का रूप धारण करके प्रार्थना की थी और उसकी प्रार्थना सुनी गई थी। क्या ऐसा आज नहीं दिख रहा कि ये सारे रिश्ते दांव पर हैं। जननी, पुत्र सुख से विरत है, गायें तभी तक मां हैं, जब तक दूध देती हैं। नदी का पानी जहर बन चुका है, उद्गम तक प्रदूषित है और पेड़-पौधों, वनस्पतियों, जड़ी बूटियों, अनाज-फसलों वाली सत्तर प्रतिशत धरती का भाग खदानों, कांक्रीट के महलों, सड़कों की भेंट चढ़ चुका है। इसी देश में सात हजार किस्म की वनस्पतियां, तीस हजार किस्म के अनाज, एक हजार किस्म के आम और हजारों किस्म की औषधियां उपजती थीं। लोक कथा है कि मनुष्य और अनाज के किस्मों के संख्या बल पर हुए विवाद में मनुष्य की संख्या एक अधिक पाई गई और अनाज का वह अधिकारी हो गया। अजीब विरोधाभास है कि जिसे हमने पूजा, उसी को सबसे अधिक हानि भी पहुंचाई। प्रकृति के उपयरुक्त सारे उपादानों का दोहन भर नहीं किया, उसे विद्रूप भी किया। विकास के नाम पर प्रकृति का सारा संतुलन बिगड़ गया। धरती क्षमा का रूप होती है लेकिन क्षमा की भी सीमा होती है। उसकी कसमसाहट का अहसास अनेक बार होने के बावजूद हम आत्मविश्लेषण के लिए तैयार नहीं हैं।
कुछ कॉरपोरेटों के हितार्थ हम, राजा सगर के औलादों की तरह धरती को खोदकर पहाड़ और कुएं बना रहे हैं। हजारों साल के वासिंदे पुनर्वास की तलाश में भटक रहे हैं। विस्थापन के दर्द को विज्ञान की विकास भाषा नहीं जानती। जिन्हें हमने मां कहा, उन्हीं की सबसे अधिक दुर्गति की। देश के किसी भी नदी का पानी पीने लायक नहीं रहा। ग्लेशियरों में भी पॉलीथीन की पन्नियां बह रही हैं। पवित्रता का भाव मात्र बोधकथा बनकर रह गया है।
विश्व में अन्य किसी देश में नदियां इतनी प्रदूषित नहीं हैं। जर्मनी के बीचो-बीच बहने वाली राइन नदी की शुद्धता पर जर्मनी गर्व करता है। एक भी कचरा फेंकने पर सजा और जुर्माना दोनों का प्रावधान है। संसार की सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। अकृतज्ञता हमारे स्वभाव में सांस लेने लगी है। हमारा पानी निरंतर उतरता जा रहा है। प्रकृति के सबसे बड़े दान को हम बोतलों में भरकर बेचने लगे हैं। बादलों का पानी तो बिका ही, आंखों का पानी भी बिकने को है।
साधारण और सीधेपन का उदाहरण हमारे मुहावरों में गाय से दिया जाता है। गाय का दूध-मूत्र-गोबर सब कु छ विशिष्ट है परंतु उसे भी सम्प्रदाय से जोड़कर संकीर्ण कर दिया। उसे तभी तक माता कहा जब तक वह दूध देती रही। गायों की वृद्धावस्था, जननी मां की वृद्धता के समान है। पुत्रों के परिवार की परिभाषा में मां-बाप नहीं हैं, कभी होते थे। सम्मिलित परिवार में एक का सुख-दुख सारा परिवार साझ करता था। बिना अपेक्षा के मां ने पुत्र को आदमी बनाया था, वही मां उपेक्षा की शिकार अकेला जीवन जीने को मजबूर है। सरकार ने कानून बनाया कि जो लड़के मां बाप का संरक्षण नहीं करते, उन्हें दंडित किया जाए, लेकिन तमाम कष्टों को ङोलते हुए भी किसी मां-बाप ने बेटों के विरुद्ध मुकदमा नहीं दर्ज कराया। पौत्र-पौत्री के लिए उनके हाथ आज भी दुआ के लिए ऊपर उठे हैं। टूटते परिवारों ने मां बाप के उत्तरार्ध जीवन को दयनीय बना दिया। जो कभी किसी से पुत्रों के लिए झुके नहीं, उन्हीं पुत्रों को देखने की अंतिम आस लिए जी रहे हैं और पुत्र पुन्नाम नरक में उन्हें भेज रहे हैं। हां, यह जरूर हुआ है कि पुत्रियों ने बाप मां की सेवा का संकल्प लेकर बेटी होते हुए भी मां का दायित्व निभाने की एक सर्वथा नई परम्परा डाली है। बेटियां जो कभी पूज्या हुआ करती थीं। जिन्हें देखते दुलारते और उनके पराया धन होने के नाते बरबस आंखें भर आया करती थीं, उनके साथ होते दुष्कर्म देखकर शर्म को भी शर्म आती होगी परंतु देश के जिम्मेदार नेताओं के बयान सुनकर, देश आश्चर्य चकित है। उनके लिए दुष्कर्म विरोधी कानून महज बेशर्म-बकवास बनकर रह गया। किस अतीत पर गर्व और किस वर्तमान पर शर्म करें। अतीत में द्रोपदी दिखती है तो वर्तमान में अनामिकाएं? शुद्धतावादी ड्रेसकोड की बात करते हैं, परंतु पांच और सात वर्ष की बेटियां कौन सी उत्तेजक परिधान और अंग दिखाने लायक हैं। मनुष्य की रुग्ण मानसिकता ने पशुता को भी पीछे छोड़ दिया।
धरती हमारी मां है। वह हर वस्तु अपने पास रखती है, इसलिए धात्री है, धरती है। बहुत कुछ मां बेटों से छिपाकर अपने भीतर रखती है। अनेक तरह के र8 उसने संभालकर छिपा रखे हैं, वह वसुंधरा कहलाती है। मनुष्य को उसने चेतना दी कि अपने काम भर के र8 निकाल लो। लेकिन मनुष्य ने धरती की हालत उस मुर्गी की तरह कर दी जो रोज सोने के दो अण्डे देती थी, मुर्गीपालक ने सोचा महीने भर में साठ अंडे तो देगी ही, रोज-रोज दो-दो की प्रतीक्षा से बेहतर है कि भीतर स्थित साठ अंडे एक ही दिन में क्यों न निकाल लें। मुर्गी को चीर दिया गया। एक भी अण्डे नहीं मिले। मनुष्य भी धरती से सारा धन निकाल लेने के लिए अत्याधुनिक मशीनें लेकर पिल पड़ा। धरती ने बेटों को निराश नहीं किया, परंतु वह गाय की तरह ठांठ-बांझ, नदी की तरह सूखी और वृद्धा मां की तरह बेघर हो गई। इस सभी ने अपना धर्म नहीं छोड़ा, लेकिन हमने धर्म त्याग दिया। हम देख रहे हैं, कि हमारे पहाड़ ठूंठ खड़े हैं, पेड़-वनस्पतियों रहित पहाड़ आकर्षित नहीं विकर्षित करते हैं। आंकड़े बताते हैं कि नब्बे फीसदी संसाधनों का उपयोग पांच प्रतिशत आबादी करेगी और शेष लोग कैसे गुजारा करेंगे यह सोचने की बात है। विनाश की पृष्ठभूमि हमने तैयार कर ली है, फिर भी धरती का दोहन बंद नहीं किया।
प्रकृति का संतुलन, रिश्तों का प्रचलन, सम्बन्धों का निर्वाह हमने सोच समझकर बिगाड़ा है। हम सर्वनाश की आधारशिला पर खड़े हो स्वर्गारोहण की तैयारी में हैं।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र- 09407041430.

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