Friday, May 3, 2013

पुलिस को सुधरने ही नहीं देते


पुलिस को सुधरने ही नहीं देते मुरादाबाद में बलात्कार की शिकार एक लड़की जब अपने पिता के साथ कोतवाली में रपट लिखाने गई तो पुलिस वालों ने रपट लिखने की जगह पीड़ित लड़की को ही हवालात में बन्द करके पिटाई की और फिर मुंह बन्द रखने की धमकी देकर भगा दिया। ऐसी ही घटना हरियाणा में एक पखवारा पहले घट चुकी है। दिल्ली में ताजा-ताजा पुलिस की कलंक-गाथा ने फिर मुनादी कर दी कि खाकी वर्दी की गुफा का वाशिन्दा संवेदना और मानवीयता से बांझ है। पांच साल की अबोध बच्ची के साथ क्रूरतम बलात्कार के प्रसंग में पुलिस की लीपा-पोती का विरोध करने पर भारतीय पुलिस सेवा के एक अधिकारी ने एक युवती के गालों पर थप्पड़ों की बरसात कर दी । युवती के कान से खून की धारा बह निकली। पुलिस पीड़ितों और उनके हिमायतियों के साथ इसी तरह का व्यवहार करने की आदी हो चुकी है। लेकिन सरकार चलाने का दम्भ भरने वाले नेता पक्की बेशर्मी से पुलिस की कार्यप्रणाली को मानवीय बनाने की जगह पगलैटी- प्राणायाम करते रहते हैं। अब केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने फुलझड़ी छोड़ी है कि सरकार पुलिस तंत्र में सिपाही और हवलदार के पद समाप्त करना चाहती है। पुलिस की निम्न इकाई सहायक सब इंस्पैक्टर से शुरू होगी। पुलिस में भर्ती की योग्यता स्नातक रहेगी । सरकार पुलिस के निचले कर्मचारी के कन्धों पर भी स्टार लगाने जा रही है। यह पहला मौका नहीं है जब सरकार पुलिस सुधार के नाम पर ऐसे धतकरम करती रही है। सरकारें ऐसे डॉक्टर की तरह है जो आंख के मर्ज की दवा करने की जगह दांत की दवा देता है।
पुलिस की कार्यशैली और आम जनता के प्रति उसके रवैए को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी अनेकों बार महत्वपूर्ण सुझव व निर्देश दिए हैं। लेकिन किसी भी राज्य सरकार तथा केन्द्र ने इस दिशा में कोई कदम उठाना जरूरी नहीं समझ। देश की बड़ी अदालत कई बार कह चुकी है कि पुलिस तंत्र चरमरा गया है।
पुलिस और जनता के मध्य गहरी खाई बन चुकी है और अन्याय का एहसास ऐसा ही बना रहा तो एक दिन लोगों की भीड़ सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाएगी। जाहिर है कि लोगों के बुनियादी अधिकारों के हनन की यह स्थिति पुलिस सुधार की अनदेखी का नतीजा है। औपनिवेशिक जमाने में पुलिस का गठन शासकों का इकबाल बनाए रखने और जनता को निर्ममता से कुचलने के इरादे से किया गया। मगर जनतांत्रिक प्रणाली के छह दशक बाद भी पुलिस का रवैया वैसा ही है बल्कि उससे ज्यादा क्रूर और अमानवीय है। पुलिस के चेहरे को बदलने के लिए सन 2006 में बड़ी अदालत ने अपने आदेश में मुख्य रूप से सात कदम उठाने को कहा था। इनमें पुलिस को राजनीतिकों के अनुचित हस्तक्षेप से मुक्त करना, पुलिस महानिदेशक की नियुक्ति में पारदर्शिता, कानून व्यवस्था और अपराधों की जांच के काम को अलग-अलग करना, पुलिस शिकायत प्राधिकरण के गठन जैसे सुझव शामिल थे। राष्ट्रीय पुलिस आयोग और पुलिस सुधारों पर गठित रिबेरो समिति, सोली सोहराबजी और पदमनाभैया समितियों ने भी अपनी र्पिोटों में इसी तरह की कई अहम सिफारिशें की थी, लेकिन तमाम सुझव दफना दिए गए। असल में पुलिस का इस्तेमाल राज्य और केन्द्र सरकारें अपने राजनैतिक हित साधने में करती आई हैं। ऐसे में पुलिस तंत्र को सुधारने की इच्छा ही किसी सरकार में नहीं है।
इस मनमानी के चलते पुलिस बेलगाम हो गई है। अब हमारे देश में साफतौर पर दो वर्ग हैं। एक वर्ग उन देवताओं का है जिसमें शासक, प्रशासक, नेता-बिरादरी, दलाल, ठेकेदार, माफिया, उद्योगपति, फिल्मों के नचइया-गवइया और धर्मो के गद्दीनसीन महन्त शामिल हैं। दूसरी विरादरी चिरकुटों की है। सत्ता पर कोई भी दल आसीन हो सभी पुलिस को अपना टहलुआ समझते हैं और इसे देवताओं की विरादरी की आव-भगत, उसकी सुरक्षा, उसके जायज-नाजायज हितों की देखभाल में जोते रहते हैं। शेष चिरकुटों की भीड़ के लिए शासकों ने पुलिस को मनमानी करने अपमानित करने, नोचने-खसोटने और हड्डी-पसली तोड़ने के लिए लगा रखा है। इनको यह भी छूट है कि शान्ति-व्यवस्था की ओट में चिरकुटों पर चादंमारी भी कर सकते हैं। ईमानदारी से अगर हकीकत को परखा जाए तो यही निष्कर्ष सामने आता है कि सरकारें पुलिस का बेजा इस्तेमाल करती आ रही है और पूरा पुलिस तंत्र देश और विदेश में बदनाम है। मेरी अक्सर पुलिस के छोटे,मझोले और बड़े अफसरों से बातें इस बिन्दु पर होती रहती हैं। शासकों द्वारा बना दी गई अपनी इस छवि से अधिकतर असंतुष्ट और दुखी हैं। वे अपनी छवि को सुधारना चाहते हैं। ऐसा कतई नहीं है कि पुलिस तंत्र में अच्छे लोग नहीं है। लेकिन यह अच्छापन इनको विभागीय प्रताड़ना के रूप में भोगना पड़ता है।
प्रश्न यह खड़ा होता है कि क्या निष्ठा से अपनी ड्यूटी करने वाले पुलिस कर्मी प्रताड़ित किए जाएगें? तब कौन करेगा ईमानदारी से काम? क्या पुलिस के मनोबल को ऐसे ही गिराया जाना सही है। छोटे और मझोले स्तर के पुलिस कर्मचारियों की ड्यूटी और मूलभूत सुविधाओं में गहरी असमानता है। चालिस प्रतिशत को ही सरकारी आवास मिले हैं शेष साठ प्रतिशत गैर सरकारी भवनों में किराए से रहते हैं। अच्छे मकानों के महंगे किराए के कारण इनको गन्दी और असुविधाजनक जगहों में रहना होता है। लगातार दस से बारह और अक्सर इससे भी ज्यादा घन्टों की ड्यूटी करनी पड़ती है। थानों-कोतवालियों में कैन्टीन तक नहीं है। टायलेट नहीं हैं। पीने का साफ पानी नहीं है। अपने और अपने परिवार के लिए वक्त नहीं है। बड़े अधिकारियों के आदेशों का दबाव नेताओं और उनके चमचों की धौंस आदि ऐसी समस्याएं हैं जिसके कारण जल्दी ही इन्हें तनाव, गुस्सा और हीन-भाव अपनी गिरप्त में ले लेता है। इसका नतीजा पुलिस के दमनकारी व्यवहार के रूप में सामने आता है। पुलिस तंत्र को दमनकारी बनाती है। इस तरह हुकुम देने और मनवाने की संस्कृति पुलिस तंत्र में जम गई है, जो जन दमन का रूप ले लेती है। सामाजिक, न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए एक सशक्त पुलिस तंत्र का होना बेहद जरूरी है, पर निरंकुश पुलिस तंत्र नहीं। पुलिस पर अंकुश जरूरी है, पर इस तरह नहीं कि वह असहाय, प्रताड़ित और हत्योसाहित महसूस करें। पुलिस तंत्र को न तो जनता सुधार सकती और न खुद पुलिसिए यह काम कर सकते है। कठिनाई तो यह है कि सरकारें पुलिस को सुधारना ही नहीं चाहती क्योंकि पुलिस से ही चिरकुटों पर कारगर नियंत्रण रखने और देश के सम्राटों, महाराजाओं, राजाओं, को सत्ता की दूध मलाई का भोग लगाने का परमिट मिलता है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं। सम्पर्क सूत्र - 09425174450. खटराग 
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