Friday, May 3, 2013

शांति निकेतन का हिन्दी भवन परिसर

                                                     चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
अठारह मार्च 2013 की दोपहर! मैं अपने साथी प्रसिद्घ कहानीकार, उपन्यासकार महेश कटारे के साथ, शांति निकेतन के हिन्दी भवन परिसर में अशोक वृक्ष की छाया में खड़ा हूं। महेश की यायावटी ने देश के उन सभी शक्तिपीठों का परिभ्रमण कर भर्तृहरि पर सशक्त उपन्यास ‘कामिनी काय कांतारे’ लिखा है, जिन पीठों से भर्तृहरि का नाता रहा। अशोक वृक्ष के लाल स्वतक देखकर अभिभूत हूं। हमारे यहां के अशोक वृक्षों से भिन्न ये पेड़ है। उनमें खिले लाल फूल देखकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी बरबस याद आते हैं कि पता नहीं किन युवतियों के पद प्रहार से ये पुष्पित हुए हैं। आचार्य द्विवेदी बेहद सनकी लेखक थे। सच तो यह है कि संसार के सारे श्रेष्ठकर्म सनक की ही उपज हैं। जब पेड़ पौधों पर आ गए तो उन सारे उपेक्षितों पर शास्त्रीय विद्वता और भावुक मन से ऐसे मेहरबान हुए कि वे सभी निबंध, निबंध-छंद के मानक बन गए। अशोक, शिरीष, कुटज, देवदारु, आम, सभी खास हो गए। बंगाल में हिन्दी और फिर शांति निकेतन में हिन्दी भवन? हिन्दी भाषी चिंतकों के ध्यान में क्या कभी यह आया है कि उनके भी आसपास कहीं बांग्ला या कोई भारतीय भाषा भवन हो? हिन्दी भवन के निर्माण के सूत्रधारों में से प्रमुख का संबंध विन्ध्यप्रदेश से रहा है। शांतिनिकेतन का नाम आते ही मन मष्तिस्क में एक सुन्दर दुबले पतले ऋषि तुल्य व्यक्ति की तस्वीर उभरती है, जिनकी कल्पना ने शांतिनिकेतन को विश्व भारती बनाया। पं़ बनारसी दास चतुर्वेदी, सी.एफ़ एन्ड्रूज जिन्हें देश दीनबंधु के नाम से जानता है, के घोर प्रशंसक थे। एन्ड्रूज के कहने पर वे राजकुमार कालेज इंदौर की नौकरी छोड़कर चौदह महीने शांति निकेतन में रहे। चतुर्वेदी ने अनेक वर्षो तक हिन्दी अखबार ‘विशाल भारत’ का परचम लहराया। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे गंभीर व्यक्ति को हंसते बहुत कम लोगों ने देखा था। चतुर्वेदी उनकी इस समाधि को तोड़ने वाले अकेले व्यक्ति थे। ‘रेणुका’ रचना जब चतुर्वेदी जी ने गुरुदेव के चरणों रखी तो उसे उठाकर उलटने-पलटने लगे। बनारसीदास अंग्रेजी में बोले- ‘गुरुदेव मैं आपसे कह चुका हूं कि जब तक आप हिन्दी नहीं सीखेंगे, तब तक मैं बांग्ला नहीं सीखूंगा।’ गुरुदेव ने किंचित मुस्कुराते हुए कहा- ‘पंडित! जीवन भर मैंने तो कभी कुछ सीखा ही नहीं। हिन्दी मैं पढ़ लेता हूं, संभवत: उसका अर्थ भी समझ लेता हूं, किंतु शब्दों के साथ जो वातावरण लिपटा होता है, उसे मैं नहीं समझ पाता।
सच तो यह है कि शब्दों के साथ लिपटे हुए वातावरण का ज्ञान मुङो अपनी भाषा को छोड़कर और कहीं भी नहीं होता।’ काश!
अंग्रेजी भाषा की अनिर्वायता की वकालत करने वाले गुरुदेव से कुछ सीख पाते।
हिन्दी भवन की सीढ़ी पर बैठकर मैं सोचने लगा। पढ़ा था कि एक दिन प्रात: भ्रमण में बनारसीदास चतुर्वेदी और आचार्य द्विवेदी हंसते बतियाते थे, चतुर्वेदी जी ने द्विवेदी जी से कहा- ‘यहां हिन्दी भवन बनेगा।’ अपने इस जागृत स्वप्न की चर्चा चतुर्वेदी जी ने गुरुदेव से की। वे प्रसन्न हुए। गुरुदेव की खोज, क्षिति मोहन सेनर, नंदलाल बसु और आचार्य हजारी प्रसाद के अतिरिक्त हर विषय और विधा में निष्णात अध्यापक और ‘विजनरी’ मनीषी थे। सन् 35 से 38 के मध्य चतुर्वेदी के प्रयास से, गुरुदेव के आशीष और आचार्य के सहयोग से भव्य हिन्दी भवन का निर्माण हुआ जिसकी दीवारों पर तत्कालीन चित्रकारी के नमूने आज को चुनौती दे रहे हैं। यह दुखद आश्चर्य है कि न तो शिलान्यास और न ही लोकार्पण के अवसर पर चतुर्वेदी जी वहां उपस्थित रहे। पं. जवाहर लाल नेहरु ने भवन का लोकार्पण किया। पं़ चतुर्वेदी ‘विशाल भारत’ छोड़कर टीकमगढ़ के ओरछा महाराज, जो उनके शिष्य थे, आ गए और साढ़े चौदह वर्ष वहां रहे। उनकी सांसें शांति निकेतन की हवाओं में हैं, लेकिन वहां के हिन्दी भवन का छात्र बनारसीदास के बारे में कुछ नहीं जानता। विन्ध्यप्रदेश की विधानसभा से राज्य सभा के लिए जब एक सामान्य व्यक्ति का नाम पं़ नेहरु ने देखा तो बोले- ‘क्या विन्ध्य प्रदेश में कोई पढ़ा लिखा आदमी नहीं है।’ तब किसी ने चतुर्वेदी जी का नाम सुझया। पं. जी चतुर्वेदी की ख्याति से परिचित थे। वे लगातार दो अवधि तक राज्यसभा के नामित सदस्य रहे। हिन्दी भवन की न तो नींव की ईंट में और न कंगूरे की छत में बनारसीदास का नाम है, लेकिन बिना उनके इस भवन की कल्पना नहीं की जा सकती। हिन्दी भवन के प्रथम आचार्य हजारी प्रसाद विशुद्घ पारम्परिक पंडित और ज्योतिषाचार्य थे। गुरुदेव ने ‘हंड्रेड पोयम्स आफ कबीर’ का अनुवाद करके जो भूमिका प्रस्तुत की, उसने आचार्य को कबीर का उत्तराधिकारी बनाकर दूसरी परम्परा की नींव रखी। काशी का पंडित हिन्दी में कबीर कहलाया, खंडन मंडन से दूर, पांडित्य से भरपूर ।
‘हिन्दी भवन’ के निर्माण के बाद 13 जनवरी 38 के पत्र में चतुर्वेदी जी ने गुरुदेव को एक पत्र लिखा- मेरे प्यारे गुरुदेव, अब जब कि हमारे मित्र दीनबंधु सीएफ एन्ड्रूज का अपने आश्रम में हिन्दी भवन स्थापित करने का स्वप्न साकार हो रहा है, मैं आपके चरणों में एक विनम्र भेंट समर्पित करने का सम्मान पा सकता हूं।
मैं अपने भाई श्री राम शर्मा की सहायता से पांच सौ रुपए पांच वर्ष के लिए एक माली रखने के लिए एकत्र कर लूंगा जो नीचे लिखे इक्कीस वृक्षों के छोटे से कुंज की देखभाल कर सके। हम उन्हें ‘एन्ड्रूज निकुंज’ कहकर पुकारेंगे। वटवृक्ष एक, पांच अशोक, पांच मौलश्री, पांच आम, पांच परिजात। पेड़ हैं, सुगंध है पर पानी देने वाला कोई माली नहीं दिखा। इस पुराने अंतेवासी पंडित ने गुरुदेव को लिखा था-‘गुरुदेव! आप जानते हैं, मैं शांतिनिकेतन का पंडा रहा हूं, गत बीस वर्षो से मैं वहां यात्रियों को ले जाता रहा हूं और हजारी प्रसाद द्विवेदी मेरे सहायक पंडा हैं। हमें अपने पंडायन पर उचित गर्व है। ‘विशाल भारत’ में छपे आचार्य द्विवेदी के एक लेख पर उनकी टिप्पणी थी- यह आदमी (हजारी प्रसाद द्विवेदी) हम सबसे आगे जाएगा।’ उनका यह आशीष अक्षरश: फलित हुआ। गुरुदेव से आचार्य द्विवेदी अपनी शालीनता वश कहते थे- ’दर्शन करने आया हूं।’ जब कभी कोई आचार्य जी का मित्र गुरुदेव का दर्शनेच्छु हुआ करता था और वे उन्हें गुरुदेव से मिलाने ले जाते, वे कहते - ’दर्शनार्थी लेकर आए हो क्या? मैं इस बात को शिद्दत से स्वीकारता हूं, यदि आचार्य द्विवेदी शांति निकेतन न गए होते, गुरुदेव की संगत न मिली होती तो वे मात्र ज्योतिषाचार्य व्योमकेश शास्त्री बनकर बनारसी पंचांग लिख रहे होते और हम कितने ही अशोक के फूलों से वंचित रह जाते।’ हिन्दी साहित्य में संस्कृत की संस्कृति का समावेश ही न हो पाता, हिन्दी का सांस्कृतिक लालित्य समस्त आधुनिक चिंतन के साथ आचार्य जी के निंबंधों उपन्यासों में जीवंत हो उठा है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं। सम्पर्क- 09407041430. लोकायन 

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