Monday, April 8, 2013

इक आग धधकती है सिंगरौली के सीने में

 सिंगरौली की समस्याओं का ओर-छोर ढूंढ़ना, कोयले के ओवरवर्डन के नंगे पहाड़ों में सुई तलाशने जैसा है। जो सिंगरौली नहीं गया उसके लिए यह भारत का चमकदार चेहरा हो सकता है जिसे दुनिया में पॉवर-हब के रूप में पेश किया जा रहा है। सिंगरौली कल्पनाओं का सिंगापुर भी हो सकता है, पर जो एक बार वहां हो आया है और उसके दिल में जरा भी संवेदना बची है तो वह या तो गुस्से में जबड़े भींचे, मुट्ठी ताने लौटेगा, या आंखों में टप-टप आंसू लिए। सिंगरौली चमकदार है, एस्सार रिलायंस, बिड़ला, जेपी के लिए और मालदार है दिल्ली व भोपाल के सियासतदारों के लिए, लेकिन उन लोगों के लिए, सिंगरौली अमेरिका के गुआन्तोनामों जैसे नरक में बदला जा रहा है, जिसकी नाभि नाल यहां की जमीन में गड़ी है। कोयले के ओवर वर्डन के तने पहाड़ों के नीचे उनकी संस्कृति परम्परा कुल के देवी देवता, न भाग पाए जीव-जन्तुओं के अस्थिपंजर दबे हैं।
दुनिया में विस्थापन का ऐसा भयावह स्वरूप शायद ही और कहीं हो जो सिंगरौली में। कारपोरेट की नजर अब शेष बचे जंगल और जमीन पर है। महान ब्लाक के सघन वन जल्द ही नष्ट कर दिये जाएंगे और खूबसूरत और सद्यनीरा गोपद नदी जल्दी ही किसी विधवा की सूनी मांग में बदल जाने वाली है। सिंगरौली का मूल निवासी कहां गया उसका लेखा-जोखा किसी के पास नहीं।
प्रशासन- सरकार-कारपोरेट, वर्ल्ड बैंक, सभी सिंगरौली के कोयले से पैदा होने वाली बिजली की यूनिट के आंकड़े गिनने में व्यस्त हैं। सिंगरौली दुनिया में विषमता मूलक विकास के रोल मॉडल के रुप में उभर रहा है। गरीबी की घुटन और पूंजी का अट्टहास यहां की वादियों में गूंजता है।
कभी-कभी प्राणियों की खूबी ही उसकी मौत का सबब बन जाया करती है। कस्तूरी मृग के लिए मौत का बन्दोबस्त है तो मणि-सांप के लिए। आज वनों में न कस्तूरी मृग मिलते हैं न ही मणियारे सांप। कस्तूरी और मणि के लिए शिकारियों ने इनका वंशनाश कर दिया। सिंगरौली की व्यथा कुछ ऐसी ही है। यह अपनी कोख में कोयले का अतुल्य भंडार छिपाए है। विकीपडिया में दर्ज जानकारी के अनुसार सिंगरौली का कोयलान्चल 2200 वर्ग किमी विस्तृत भूभाग में फैला है। जियालाजिकल सव्रे आफ इडिया ने फिलहाल 220 वर्ग किलोमीटर में कोयले के खनन की संतुस्ति दे रखी है। इस क्षेत्र में फिलहाल 2,724 मिलियन टन कोयले के भंडार का अनुमान है। जीएसआई ने 1 मीटर से 162 मीटर तक कोयले की मोटी पट्टी बताई है। आजादी के बाद पूंजीपतियों व औद्योगिक घरानों की निजी खदानों से कोयले की लूट को रोकने के लिए, इंदिरा गांधी ने कोयले की खदानों का राष्ट्रीयकरण करके कोल इंडिया लिमिटेड नाम की इकाई स्थापित की थी, एनसीएल-सीआईएल की शाखा है जो मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश में 14 कोल परियोजनाओं को संचालित करती है। सरकारी उपक्रम होने के नाते एनसीएल की जवाबदेही बनती थी, विस्थापितों के लिए जो भी अच्छा या बुरा किया सरकार के उपक्रम ने किया और सिंगरौली से दिल्ली तक सुनवाई के रास्ते खुले थे। लेकिन अब तो गजब हो गया कारपोरेट के दबाव में सरकार ने राष्ट्रीयकरण की अपनी नीतियों की ही धज्जियां उड़ा कर कोल ब्लाक्स को निजी कम्पनियों को औने-पौने में दे दी। यही कोल ब्लाक आवंटन घोटाला है जिसका सिलसिला एनडीए से लेकर यूपीए तक जारी है।
सिंगरौली क्षेत्र में जेपी, रिलायंस, एस्सार और हिन्डालको समेत कई कारपोरेट घरानों को कोल ब्लाक आवंटित कर दिए गए हैं या प्रक्रिया में हैं। इन्हें कोयला खोदकर मुनाफा कमाने की इतनी जल्दी है कि ये पलभर में जंगल साफ कर निवासियों को मवेशियों के माफिक हांकने के लिए तैयार हैं और पुलिस तथा प्रशासन इनके लिए लठैतों की भूमिका में है।
एक अंग्रेजी उक्ति है कि आपकी कमाई का हर एक रुपया दूसरे की जेब में ही आता है। यदि आप कहीं बसते हैं तो किसी का उजड़ना तय है। सिंगरौली साठ के दशक के आरंभ से ही विस्थापन के यातनामय दौर से गुजर रहा है। पहला विस्थापन जीबीपंत सागर जिसे रिहंद जलाशय कहते हैं से शुरु हुआ। इसके बाद एनसीएल और एक के बाद एक चौदह परियोजनाओं में सैकड़ों गांव उजड़े।
परियोजनाओं के शुरू होने के साथ ही तापविद्युत घरों की श्रृंखला शुरु हुई। यूपी में शक्तिनगर- रिहंद - अनपरा और ओबरा प्लांट आए तो मध्यप्रदेश में विंध्यांचल ताप विद्युत घर। त्रासदी देखिए जिन परिवारों को रिहन्द जलाशय के लिए विस्थापित कर अन्यत्र बसाया उन्हें कोयला परियोजनाओं ने विस्थापित कर दिया। वे कहीं भली भांति बस पाते कि तापविद्युतघरों के आने के बाद भगा दिय् गया। अब तक एक दजर्न से अधिक निजी क्षेत्र के तापविद्युत घर व कोयला परियोजनाएं आ गई है, विस्थापन फिर इनकी नियति है समूचे सिंगरौली क्षेत्र के सौ से ज्यादा गांव व 50 हजार से ज्यादा परिवार हैं जिन्हें तीन से पांच बार विस्थापित किया गया। प्रशासन् के फरमान और पुलिस की लाठियों के दम पर बसे बसाए परिवार को उजाड़ना तो गुन्डों जैसे खेल है, पर शर्म की बात यह है कि सिंगरौली की त्रासदी को न तो भोपाल ने महसूस किया और न ही दिल्ली ने। जरूरत थी कि यहां के रहवासियों के लिए पुनर्वास की कोई विशेष नीति बनायी जाती व उजड़े गांवों को सुनियोजित तरीके से बसाया जाता लेकिन बसाने की बात तो दूर आज सिंगरौल् प्रशासन के पास इस बात के भी पुख्ता आंकड़ें नहीं है कि अब तक कितने गांव व परिवार उजाड़े गए, वे कहां बसे, उनके रोजगार व् उद्योग धंधों का क्या हुआ, उनकी संस्कृति-परंपरा और विरासत् कहां दफन है? एक उदाहरण खैरवारों का! जनजातीय श्रेणी में आनेवाल् खैरवार कभी सिंगरौली के राजा हुआ करते थे। वृस्तित भू-भाग् में उनका इलाका फैला था। जैसा कि नाम से ही जाहिर है कि खैरवारों का पारंपरिक धंधा कत्था बनाने का था। सिंगरौल् चिंतरंगी कुसमी-मझोली में खैर के शानदार वन थे। खैर के पेड़ की छाल से सत्व निकालकर कत्था बनाया जाता था। सिंगरौल् चितरंगी के जंगलों में बना उम्दा किस्म का कत्था पूरे देश में बड़े चाव से पान सुपारी के साथ खाया जाता था। यह पुश्तैनी धंध् सत्तर के दशक के मध्य तक चला। इसके बाद कोयल् परियोजनाओं और ताप विद्युतघरों के आने के बाद हुआ बड़े विस्थापन से जंगलों की परिस्थितिकी भी बदली। कत्थे का पुश्तैनी धंधा बन्द हो गया। खैरवार जो कभी सिंगरौली के राज् थे, आज वहीं अपनी जमीन पर भिखारी हैं। कारपोरेट जगत के नए राजाओं ने उनकी जमीन-हुनर, कला, संस्कृति परंपरा सब् कुछ छीन लिया। आपको मालुम है सिंगरौली क्षेत्र में खैरवारों की जनसंख्या हर जनगणना के बाद घट जाती है। कहां. गए सिंगरौली के राजा के वंशज! है कोई जवाब देने वाला?  - लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। सम्पर्क-09425813208. 

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