Saturday, March 23, 2013

पनघट पर पहरे और बेचारे नंदलाल

देश भर के दीवानों को शरद यादव का शुक्रगुजार होना चाहिये कि उन्होंने सियासत के इस बेरहम दौर में दीवानों के व्यथा की परवाह की। पार्लियामेंट में जब ये कानून पास हो रहा था कि लड़कियों को देखना और घूरना जुर्म होगा, तब बहुतों की जुबान पर साठोत्तर दशक का वो फिल्मी गीत आ गया होगा 'दीवानों से मत पूछो, दीवानों पे क्या गुजरी है। दिल को सुकून मिला कि शरद यादव जी भी ऐसा सोचते हैं। उन्होंने कहा कि यह कानून तो मोहब्बत के अंत की उद्घोषणा है। भला कोई किसी को नहीं देखेगा, पीछा नहीं करेगा तो प्यार का अंकुरण कैसे प्रस्फुटित होगा। शरद बाबू ने मार्के की बात कही। साठोत्तर दशक की हर दूसरी रोमांटिक फिल्मों में छेड़छाड़-पीछा करना और चुहुलबाजी केन्द्रीय थीम हुआ करती थी। जब कानून पास ही हो गया तो लगे हाथ उन फिल्मों को सेंसर की हवालात में डाल देना चाहिये। क्या पता नारी उत्थान संगठनों का अगला मुद्दा यही हो और हमारे नेता फिर पसीज जाएं। कवियों को त्रिकालदर्शी यूं ही नहीं कहा जाता। फिल्म गीतकार आनंद बक्षी कोई तीस साल पहले भावी समाज व सरकार का रुख भांप चुके थे, तभी तो लिखा 'तेरा पीछा न छोड़ंूगा शोणिये, भेज दे चाहे जेल में या 'अब चाहे लग जाए हथकडिय़ां यारा मैंने तो हां कर दी। अब सरकार ने आनंद बक्षी की भविष्यवाणी के अनुरूप पूरे इंतजाम कर दिये हैं।
हर कानून के साथ एक अर्थगणित भी जुड़ी होती है। निश्चित ही मनमोहन, चिदम्बरम और अहलूवालिया की यही सोच होगी। कानून कड़ाई से लागू हुआ तो सौंदर्य और फैशन बाजार पर इसका असर दिखेगा। सौंदर्यशास्त्र कहता है कि महिलायें इसलिये श्रृंगार करती हैं और सजती हैं कि पुरुष रीझें। पुरुष रीझेगा तो घूरेगा, पीछा करेगा और यह सब करेगा तो जेल जाएगा। संभव है इस कानून की सीधी मार सौंदर्यबाजार पर भले पड़े पर मंदी के दौर में मध्यवर्गीय परिवार के अपव्यय को बचाएगा। गांवों की बारातों में अभी भी बाराती और घराती महिलाओं के बीच बताशे और चावल के आदान-प्रदान और देखा-देखी के चलन का रिवाज बचा है। अब बताशेबाजी की तो सीधे हवालात में। सो अब बारात भी जाइये तो सोच समझकर हरकतें करिये, वरना.... हां। मुझे लोकप्रिय मंचीय कवि सुनील जोगी की पंक्तियां याद आ रही हैं 'कलयुग में न आना मेरे कृष्ण कन्हैया। कल्पना करिये कि वही गोकुल- वही गोपी- वही ग्वाल- वही कृष्ण आज के दौर में होते तो क्या होता। जैसे ही कोई गोपी फरियाद करती कि 'मोहे पनघट में नंदलाल छेड़ गयो रे। बस इतना ही पुलिस को संज्ञान लेने के लिये काफी और नंदलाल हवालात में। खुदा न खास्ता बंहियां मरोड़ी और गगरी फोड़ी जैसा बयान दे देतीं तो, जमानत के लाले पड़ जाते।  द्वापर में कंस की जेल से तो वे जन्मते ही सटक लिये थे, कलयुग में तो जितनी बार गगरी फोड़ते उतनी बार अंदर होते और बेचारे नंदबाबा को खसरा मिसिल लेकर अदालतों के चक्कर लगाने पड़ते। सो सुनील जोगी के अलाप में मेरा भी एक स्वर समझिये कि 'कलयुग में न आना रे मेरे कृष्ण कन्हैया। 
आदमी-औरत के जन्म से ही मोहब्बत का सिलसिला शुरू हुआ होगा व वक्त के साथ इसके रंग-ढंग बदले होंगे। हमारे दौर में मोहब्बत की कहानी एक रूमाल से शुरू होती थी, उसे मैच्योर होने में दशकों लग जाते थे। धरमवीर भारती के उपन्यास 'गुनाहों का देवता में तो नायक-नायिका जिंदगी भर साथ में रहने के बाद भी प्यार का इजहार नहीं कर पाते। अब तो फास्टफूड की तरह लव फटाफट। इजहार करने के लिये फेसबुक तो है न। सो फास्ट फूड, फेसबुक ने लव फटाफट का दौर ला दिया। जब समाज की वर्जनाएं टूटती हैं, मर्यादायें मरती हैं, संवेदना आंकड़ों में बदल जाती है, लोकलाज और लोकभय, पब डिस्कोथेक व रियल्टी शो की रंगीनियों में खो जाता है। तब ऐसा ही दौर शुरू होता है जिसके पेश-ए-नजर आज हम हैं। वैसे बता दें लोक की अदालत और उसके कानून से बड़ी अब तक न कोई अदालत हुई है और न कोई दण्डाधिकारी। उसकी सजा इतनी करारी है कि उससे न तो देवताओं का लंपट राजा इंद्र बचता और न वह सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा को बख्शती। और उस लोक की चेतना अभी मरी नहीं है, संवेदनाओं के समापन और इतिहास के अंत की यूरोपीय घोषणा के बावजूद भी। 

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