Thursday, January 24, 2013

महापुरुषों की स्मृतियों के बहाने


 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
 किसी महापुरुष के सिद्धान्त को व्यवहार रूप देने से, दरकिनार करने का सबसे बेहतर तरीका है, उसकी पूजा करने की परम्परा की शुरुआत कर देना। अपने देश के महापुरुषों के साथ कमोवेश यही हुआ। बुद्ध ने मूर्ति पूजा का विरोध किया, विश्व में सबसे अधिक बुद्ध-मूर्तियां बनीं। पूरा पहाड़ बुद्ध हो गया जिसे तालिबानों ने तोड़कर अपने को जेहादी सिद्ध किया।
यदि अहिंसा बुद्ध का सिद्धान्त मानें, (गो कि गांधी की अहिंसा करुणा उपनिषदों, पुराणों से प्रभावित थी) तो वे हिन्दू हिंसा के शिकार हुए। उनके आदर्श और सिद्धान्त देश भर में गांधी की मूर्तियों और उनके नाम से बने पार्को में धूल फांक रहे हैं। सम्पूर्ण मानव होते हुए भी वे आस्तिक और हिन्दू थे परंतु अपने को असली हिन्दू मानने वालों में से एक ने गांधी को एक नहीं तीन तीन गोलियों से भून दिया। गांधी विश्ववंद्य हुए। गांधी के सिद्धान्तों को उनके ही देश ने सबसे अधिक झुठलाया।
महामहिम कहते हैं-‘स्वामी विवेकानन्द राष्ट्रीय एकता के प्रतीक थे, सभी भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना पैदा की थी। ऐसे वक्त में जब हमारे देश के लोगों का आत्मविश्वास काफी नीचे था और अधिकतर भारतीय अपने आदर्श और रोल मॉडल के लिए पश्चिम की ओर देख रहे थे, स्वामीजी ने उनमें आत्मविश्वास और गौरव भरा।’ क्या उनके महान संदेशों को हमने आत्मसात किया? कितना डरा हुआ देश है यह, केन्द्र और राज्य सरकारें जहां करोड़ों का विज्ञापन अपनी उपलब्धियों और पार्टी के नेताओं के प्रचार पर खर्च करती हैं, विवेकानन्द के योगदान पर चर्चा नहीं करतीं? उन्हें डर है कि विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म की विशेषताएं न सिर्फ धर्मसभा में रखीं बल्कि उनकी स्वीकृति भी ले ली। विवेकानन्द पर केन्द्र सरकार का यह मौन अल्पसंख्यकों के डर का मौन है। जबकि स्वामीजी ने अपने किसी भी उदबोधन में किसी धर्म की निन्दा नहीं की।
इतिहास में हुई अपनी गलतियों को उन्होंने स्वीकारा। वर्ण विभाजन की जड़ता को तोड़ने के लिए उन्होंने कहा-‘युगों से ब्राrाण भारतीय संस्कृति का थातीदार रहा है, अब उसे इस संस्कृति को सबके पास विकीर्ण कर देना चाहिए। हमारे पतन का कारण ब्राrाण की अनुदारता रही है। भारत के पास जो भी सांस्कृतिक कोश है, उसे जनसाधारण के कब्जे में जाने दो। और चूंकि ब्राrाण ने यह पाप किया था, इसलिए प्रायश्चित भी सबसे पहले उसी को करना है। सांप का काटा हुआ आदमी जी उठता है, यदि वही सांप आकर फिर से अपना जहर चूस ले। भारतीय समाज को ब्राrाण रूपी सर्प ने डसा है, यदि ब्राrाण अपना विष वापस ले ले, तो यह समाज अवश्य जी उठेगा।’ सन्यासी होते हुए भी उन्होंने निवृत्ति का नहीं प्रवृत्ति का मार्ग अपनाया। उन्होंने एक पत्र में लिखा था कि हमारी जन्मभूमि का कल्याण तो इसमें है कि उसके दो धर्म, हिन्दू और मुसलमान, मिलकर एक हो जाएं। वेदान्ती मष्तिस्क और इस्लामी शरीर के संयोग से जो धर्म खड़ा होगा, वही भारत की आशा है? कहां और किसमें है ऐसे चिंतन का अहसास। भाजपा यदि उन्हें सिर पर उठा लेती हैं तो कांग्रेस और और अन्य दल बिदक जाते हैं।
विवेकानन्द ने तो धर्म को देश से जोड़ा था और आज जब महामहिम विवेकानन्द की 150 वीं जयंती पर कहते हैं कि स्वामी जी ने जिन उद्देश्यों के लिए अपनी पूरी जिन्दगी न्यौछावर कर दी उनके प्रति लोगों को आज फिर से प्रतिबद्ध करने की जरूरत है? यह आह्वान राष्ट्र के नाम संदेश जैसी परम्परा की तरह लगता है। स्वामीजी के सिद्धान्त एवं व्यवहार में अंतर नहीं था, इसलिए कि वे उस पर चले, परंतु आज हर व्यक्ति उपदेशक है। क्या ऐसा नहीं लगता कि आज हमारा रोल माडल अमेरिका और ब्रिटेन है।
हमारे हर निर्णय उनके इशारे पर नहीं लिए जा रहे हैं? इतने मुखापेक्षी तो हम कभी नहीं थे? यह आत्माभिमान कौन स्वामी जगाने आएगा? क्या हमारे महापुरुष मात्र प्रतीक रह गए हैं? आदमी के जन्म के हजारों हजार वर्ष बाद हिन्दू, मुसलमान, क्रिस्तान, बौद्धों ने जन्म लिया और आदम की मूल जाति खत्म होकर नई जातीय पौध विकसित हुई। जिनसे सम्प्रदाय निकले परंतु उनका प्रदेय अधिकतर आत्मीय संघर्ष और श्रेष्ठता का ही रहा। विविधता में एकता का सिद्धान्त सामाजिक परिपेक्ष्य में अंग्रेजों के आने तक चलता रहा। बिना किसी विवाद के देश ने अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में अठारह सौ संतावन की लड़ाई लड़ी। हिन्दू और मुस्लिम एकता से अंग्रेजों का भविष्य अंधकार में दिखा और फूट डालने के सिद्धान्त की परिणति भारत विभाजन में हुई। जायसी, खुसरो, रसखान, आलम, रहीम का देशी सपना चूर चूर हो गया। मुस्लिम विश्वविद्यालय के बरक्स हिन्दू विश्वविद्यालय खुला। महामना पं. मदन मोहन मालवीय हिन्दू धर्म के उन्नयकों में माने जाते थे।
अकबर इलाहाबादी की श्रद्धा कुरान तथा नमाज में पूरी शिद्दत से थी, वे पक्के मुसलमान थे। सर सैयद अहमद खान ने यह कहने में गुरेज नहीं किया- ‘हजार शेख ने दाढ़ी बढ़ाई सन की सी। मगर वो बात कहां, मौलवी मदन की सी।’ अकबर इलाहाबादी ने तो गांधी से बेहतर महामना को माना-‘भाई गांधी खुदसरी आरजू के साथ हैं। और साहेब लोग गांधी रंगे-बू के साथ हैं। मालवीय जी सबसे बेहतर हैं मेरी दानिश्त में। यानी, मंदिर में है और अपनी गऊ के साथ हैं।’ ऐसी बातें कहने का साहस आजादी के बाद कहां गुम हो गया? ईश्वर-अल्लाह को एक मानने वाले ने दुआ की थी कि सबको सन्मति दें भगवान, लेकिन दुआ कुबूल हो गई। उस गांधी की एक भी बात आजादी के बाद नहीं मानी। आजादी के बाद भी अपनी पहली और आखिरी सालगिरह की प्रार्थना सभा में बापू ने कहा था-‘आज तो मेरी जन्मतिथि है। मेरे लिए तो आज यह मातम मनाने का दिन है। मैं आज तक जिन्दा पड़ा हूं, इस बात पर मुझको खुद आश्चर्य होता है, शर्म लगती है। मैं वही शख्स हूं कि जिसकी जुबान से एक चीज निकलती थी कि ऐसा करो तो करोड़ों उसको मानते थे।
पर आज तो मेरी कोई सुनता ही नहीं है। ऐसी हालत में हिन्दुस्तान में मेरे लिए जगह कहां है, और मैं उसमें जिन्दा रहकर क्या करूंगा? राष्ट्रपिता की इस पीड़ा को तत्कालीन शासकों ने क्या कभी समझने की कोशिश की? नीतिगत जनाधार के स्थान पर धर्म जाति, पिछड़े अगड़े, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, पंद्रह-पच्चासी का आधार देश को कहां ले जाएगा, इसकी चिन्ता किनको है? विभिन्न संस्कृतियों में बंटे इस देश की एकता जिन महापुरुषों के चिंतन का परिणाम है, उसे अपने वोट के लिए भुनाने की कोशिश राष्ट्रीय एकता को कमजोर करेगी, इसका अहसास नेतृत्व को करना होगा।
महापुरुषों को मात्र पूजनीय बनाने से कुछ होगा नहीं? - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं। सम्पर्क- 09407041430. लोकायन

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