Saturday, January 5, 2013

मोदी को तानाशाह की छवि से बाहर निकलना होगा

- चिन्तामणि मिश्र 
अभी कठिन है राह दिल्ली की गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने चौथी बार मुख्यमंत्री की शपथ ले ली हैं और अपनी पार्टी के साथ अन्य राजनैतिक दलों के नेताओं की धड़कनों को बढ़ा दिया है। गुजरात में मोदी की सत्ता पर लगातार पकड़ के चलते लोगों ने मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना शुरू कर दिया है। मोदी में आम आदमी ने देश की दुर्दशा और चौपट हो गई व्यवस्था को ठीक करने वाले तारणहार के रूप में स्थापित कर लिया है। राजनैतिक व्यवस्था को अपनी शैली में चलाने के कारण मोदी की छवि ईमानदार,दबंग और कठोर प्रशासक के रूप में बन गई है।
वैसे भी गुजरात के ताजा चुनाव नतीजे भाजपा के कम और मोदी के अधिक हैं। इन चुनावों में भाजपा के झण्डे और भाजपा का चुनाव चिन्ह जरूर था किन्तु हकीकत यह है कि वहां भाजपा की हाजरी औपचारिक थी। उम्मीदवारों के टिकिट वितरण से ले कर उन्हें चुनाव वैतरणी पार कराने की हर व्यूह रचना में मोदी का चेहरा,उनकी बोली और उनकी अपनी शैली थी। गुजरात के इस गर्वीले गुजराती ने, वोटरों को गुजरात के विकास का बखान करके नहीं उसकी क्षेत्रीय भावना को उभार कर विपक्षियों को भू- लुठिंत किया। मोदी ने अपने वोटर का आक्रामक शैली में भावदोह न करने में पूरी ताकत लगा दी। विपक्ष मोदी के चुनाव भाषणों का अभिप्राय नहीं समझ सका। मोदी बार-बार गुजरात के सम्मान और गुजरात की अस्मिता पर दिल्ली द्वारा किए जा रहे कल्पित हमलों और कांग्रेस की गुजरात को लेकर सौतेली सोच को दमदारी से उभारने में जुटे रहे। गुजरात में चुनाव के दौरान मोदी के हर भाषण में छह करोड़ गुजराती और गुजरात का अनेक बार उल्लेख होता था। ऐसा लग सकता था कि मोदी की नजर में केवल गुजरात है, किन्तु ऐसा सोचना मोदी को हल्के ढंग से समझने की नादानी होगी। उन्होंने बड़ी सफाई से गुजरात के वोटरों के ही मन में नहीं बल्कि देश के वोटरों के मन में भी अपने लिए जगह बना ली।
मोदी का यह चुनाव संग्राम देश के चुनाव इतिहास में विशेष रूप से याद रखा जाएगा क्योंकि जातिवाद, अल्पसंख्यक वाद, को दरकिनार करके मोदी ने क्षेत्रीयवाद की इतनी बड़ी चुनौती खड़ी कर दी थी कि प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस का उछाला राष्ट्रवाद कोई चमत्कार नहीं कर सका। सामान्य तौर पर अब यह धारणा पनप सकती है कि मोदी गुजरात में खुद को व्यस्त रख कर प्रदेश के विकास पर ध्यान देगें, लेकिन मोदी उन लोगों में नहीं हैं जो चांद को पानी से भरी थाली में देखकर चांद पा लेने का भ्रम पाल लेते हैं, उन्हें पूरा और वास्तविक चांद चाहिए। मोदी की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है और इसे पाने के लिए वे अपनी खास स्टाइल में आगें बढ़ रहें हैं।
लेकिन मोदी के सामने दिल्ली की राह आसान नहीं है, उनके रास्ते में हिमालय जैसे स्पीड ब्रेकर हैं। भाजपा का हाईकमान कहलाने वाले नेता, मोदी को प्रधानमंत्री बनने नहीं देगें, वे इसके लिए जी जान से जुट भी गए हैं। क्योंकि वे खुद प्रधानमंत्री बनने के लिए प्राणायाम कर रहे हैं। इन लोगों के मुखारविन्द मोदी की गुजरात में वापसी होने के कई दिन बाद भी नहीं खुले और जब खुले तो उनके और शब्दों के बीच का सन्नाटा हर किसी ने आसानी से पढ़ा भी और देखा भी। जहां तक आरएसएस का सरोकार है तो वह मोदी जैसे स्वच्छन्द नेता को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आसानी से बैठाने के लिए तैयार नहीं हो सकता, क्योंकि मोदी को लेकर संघ के अनुभव बेहद कड़वे रहे हैं। संघ का चेहरा कहलाने वाले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और जोशी का मोदी खुला विरोध करने का एक भी मौका कभी नहीं चूके। उनके कारण संघ की किरकिरी हुई।
लेकिन संघ परिवार दिल्ली की सत्ता पर फिर वापसी और अपना दबदबा चाहता है। वह थके और हांफते घोड़े को लम्बी रेस में दौड़ाने का खतरा भी नहीं ले सकता है। संघ ने ऐसा फेर-बदल भाजपा की पालकी में गडकरी को आसीन करा कर किया भी है।
संघ की पसन्द तो वाजपेयी भी नहीं थे। उधर एनडीए के सहयोगी जद को भी मोदी से खुन्नस है। जद ने मोदी प्रसंग में जो रास्ता अपनाया है उससे ऐसा नही लगता कि उसे मोदी प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार हो जाएंगे। सत्ता के लिए हर दल जीभ लपलपाता है और अगर भाजपा बड़े दल के रूप में आई तो मोदी अभी अछूत हैं वह भुला दिया जाएगा, सुनने को मिलेगा- ‘प्रभु तुम चन्दन हम पानी।’ अगर देश के संसदीय इतिहास पर नजर डालें तो ऐसे कई क्षत्रप अचानक दिल्ली में लैण्ड कर गए और प्रधानमंत्री के रूप में उनकी ताजपोशी भी हो गई। देवगौड़ा, गुजराल, नरसिंहराव, चरणसिंह, चन्द्रशेखर, वीपीसिंह और मनमोहन सिंह ऐसे नाम हैं जिन्हें जोड़-तोड़ और विवशता के चलते प्रधानमंत्री बनने का सौभाग्य मिला। हमारे देश की राजनीति मौसम विभाग की भविष्यवाणी की तरह अनिश्चित होती है। गणित और विज्ञान के सूत्रों की तरह हमारी राजनीति में कोई सटीक और सिक्का बन्द भविष्य-बखान करना सम्भव ही नहीं है।
इस हकीकत से भागा नहीं जा सकता कि मोदी के अन्दर गुप्तकालीन चाणक्य है जो अपने रास्ते की हर बाधा को समूल नष्ट करने में आस्था रखता है। अपने कद के बराबर वे किसी को सहन नहीं कर सकते और उनके शब्द-कोश में क्षमा शब्द नदारत है। उनका राजनीति गुरू कौन है, यह रहस्य के अंधेरे में हैं, किन्तु मोदी शिवसेना के सुप्रिमों बाल ठाकरे से जरूर प्रभावित रहे होंगे। ठाकरे ने मराठा-मानुष और महाराष्ट्र की राजनीति करके पावर और लोकप्रियता अर्जित की थी। कुछ इसी तरह मोदी ने गुजराती अस्मिता को उभार कर सत्ता पर लगातार पकड़ बनाई। मोदी समझोतावादी नहीं हैं, जबकि राजनीति में यह आजमाया हुआ दांव है। मोरार जी भाई देसाई में भी ताल-मेल करने और समझोतों के तहत सब को साथ ले चलने की कमी थी। हालांकि कई दशक तक आजादी के शुरूआती समय के नेताओं की कतार में वे थे जरूर, किन्तु अपने ऐसे ही स्वभाव के चलते प्रधानमंत्री की कुर्सी उनसे दूर रही। जनता शासन में प्रधानमंत्री बनाया जाना जेपी की लाचारी थी। उस समय जनता दल भानमति का कुनबा था और हर कोई प्रधानमंत्री ही होना चाहता था।
मोदी के सपनों का पूरा होना असम्भव कतई नहीं है, क्योंकि हमारी राजनीति में असम्भव जैसे किताबी शब्दों के लिए जगह नहीं है। लेकिन मोदी को अपना स्वभाव बदलना होगा और तानाशाह की छवि से भी बाहर निकलना होगा। लेकिन इतना तो तय है कि मोदी के लिए दिल्ली की राह आसान नहीं है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र- 09425174450.

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