Wednesday, December 12, 2012

यहाँ तो जुबान से झरती है माँ-बहन की इज्जत

चिन्तामणि मिश्र
उस दिन चौराहे पर भीड़ देख कर जब मैं नजदीक पहुंचा तो देखा कि दो युवक लड़ रहे थे। यह लड़ाई हाथ-पांव के माध्यम से कम किन्तु जुबान से ज्यादा हो रही थी। दोनों एक दूसरे की मां-बहिन-बेटी के साथ खुलेआम यौन सम्बन्ध जोड़ने की घोषणा कर रहे थे। निहायत गंदी और अश्लील गालियां उन बेकसूर औरतों के लिए बोली जा रही थीं, जो वहां नहीं थी और जिनका इन युवकों के झगड़े से कोई लेना-देना नहीं था।
यह लोक धारणा बनी है कि असभ्य समाज अपनी रूढ़ियों के कारण औरत को बेइज्जत करता है किन्तु जब सभ्य समाज औरत को केवल मादा मान कर अपनी मर्दानगी का पराक्रम दिखाता है तो अजीब लगता है और पीड़ा होती है। हमारे महान देश में औरतें दिन रात ऐसी गालियां सुनने के लिए शापित हैं जो सीधे उनसे यौन सम्बन्ध बनाने के लिए उछाली जाती हैं। एक दूसरे की मां-बहिन-बेटी की इस अदला-बदली में औरतों की फजीहत की जा रही है। यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी से चल रहा है। औरत की हत्या भौतिक हथियारों के साथ-साथ बोली- भाषा के हथियारों से हर जगह की जा रही है। मर्दाना अहंकार हर हाल में अपनी तृप्ति मांगता है। किसी से बदला लेना है तो उसके घर की औरत के मान-सम्मान को तार-तार करके मर्दानगी फतह करने की डकार ली जाती है। औरत की देह गुनाह हो गई है। औरतों को शब्दों से दिगम्बर करने का भी शायद अपना ही सुख होता है। कौरव सभा में जब पांडव द्रोपदी को जुएं में हार गए थे तो द्रोपदी के बारे में इसी सुख को पाने के लिए कर्ण ने लज्जा-जनक शब्द कहे थे।
शब्दों का घिनौना खेल सामंती समाज से चलता हुआ उत्तर आधुनिक समाज तक कायम है। आज विज्ञापनों में औरतों को प्रस्तुत करने का ढंग बदला हुआ है। वहां देह,जवानी और चपलता है। नारी देह का इस्तेमाल पुरुषवाद और बाजारवाद की साङी साजिश का नतीजा है। औरत के दिल-दिमाग व हाथ-पैर को गायब किया जा चुका है, बचा है तो सिर्फ चेहरा, वक्ष और नितम्ब। ऐसे विज्ञापनों के केन्द्र में औरत केवल यौन सामग्री है।
आजादी को आए पैंसठ साल हो रहे हैं, किन्तु औरतों के मामले में सठिआई आजादी बांझ-बंजर है। बात कड़वी है, किन्तु हकीकत में आजादी मइया को औरतों के पास जाने ही नहीं दिया गया है। अभी भी हमारा समाज और हमारा देश मनु महराज से चिपका हुआ है। खाप पंचायतें फरमान जारी करती हैं कि औरतें मोबाइल फोन का इस्तेमाल न करे। जीन्स-टाप न पहने। अपना जीवनसाथी खुद न चुने। देश में समानान्तर कानून और अदालतें खुले आम चल रही हैं और सरकारें इनके आगे समर्पण किए हैं।
जो औरत इनकी हुक्म-उदूली करती हैं, उसे सजाए-मौत दे दी जाती है। उस पर तेजाब डाल दिया जाता है। बाबा साहब अम्बेडकर के बनाए संविधान में औरत-मर्द को बराबरी का अधिकार दर्ज है, लेकिन संविधान की शपथ लेकर चलाई जा रही सरकारें इन महाबली पुरुष-कबीलों के आगे दंडवती मुद्रा में है। हर समाज और हर पुरुष खुद को सभ्य बताने और कहलाने के लिए मुनादी कर रहा है लेकिन औरतों की गरिमा की हिफाजत करने की जगह उसे रौंदने में जुटा है।
दरअसल, औरतों के सम्मान पर आधात करने की घटनाएं हर रोज, हर वक्त और हर जगह हो रहीं हैं। कानून ऐसी वारदातों के घटित होने के बाद जनता को डरपोक बता कर अपनी लाचारी बता देता है कि जनता ऐसी घटनाओं में दर्शक की भूमिका से आगे नहीं बढ़ती। उधर जनता की दलील होती है कि अगर गुंडों का प्रतिरोध किया तो गुंडे उन पर ही हमला कर देते हैं। कई मरतबा तो जान से भी हाथ धोना पड़ जाता है। पुलिस का संरक्षण नहीं मिलता है। इस प्रसंग में देश की बड़ी अदालत ने बहुत साफतौर पर जो दिशा-निर्देश जारी किए हैं,उनका ईमानदारी से पालन करने पर समस्या पर काबू पाया जा सकता है। अदालत ने कहा है कि ट्रेनों-बसों और भीड़-भाड़ वाली जगहों में पुलिस की तैनाती होनी चाहिए। स्कूल-कालेजों में आने-जाने के वक्त भी पुलिस तैनात की जानी चाहिए तथा बाजारों में सार्वजनिक जगहों पर कैमरे लगाए जाएं। निश्चय ही ऐसी व्यवस्था से औरतों की गरिमा पर आघात करने वाले मनमानी करने से हिचकेगें। लेकिन सामाजिक माहौल और प्रशानिक व्यवस्था पहल करने के लिए सक्रिय ही नहीं है। औरतों के यौन उत्पीड़न और छेड़छाड़ की वारदातों को लेकर सरकारें संवेदना-शून्य हो चुकी हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने वहां घटित कुछ बलात्कार की घटनाओं को बनावटी कह दिया। कई जिम्मेवार नेता छेड़छाड़ और बलात्कार के लिए औरतों को ही दोषी घोषित कर रहे हैं। इससे अपराधिक मानसिकता के पुरुषवादी दम्भ को बढ़ावा मिल रहा है। अश्लील फिकरेबाजी, छेड़खानी और बलात्कार कम होने की लगह बढ़ते जा रहे हैं।
अभी मध्यप्रदेश के गृहमंत्री ने विधानसभा में बताया कि प्रदेश में वर्ष 2010 में 3135 बलात्कार के मामले दर्ज हुए और वर्ष 2011 में बढ़ कर बलात्कार के माम¶े 3406 हो गए। ऐसे मामलों की भारी तादात है जो पुलिस के पास जाते ही नहीं है। यह एक प्रथा बन गई है कि पुलिस से पीड़ित पक्ष को अपेक्षित सहयोग भी नहीं मिलता है। कई मामले ऐसे भी हो चुके हैं कि जिनमें छेड़खानी से आहत लड़कियों ने आत्महत्या कर ली।
अभी इसी माह अमृतसर में एक पुलिस दरोगा को सत्तारूढ़ दल के जिलाध्यक्ष ने दिन-दहाड़े सैकड़ों नपुंसक गीदड़ों के सामने कई गोलियां चला कर मार डाला क्योंकि दरोगा अपनी बेटी को रोज छेड़खानी करने वाले इस हत्यारे को समझने गया था। सत्ता-बल,धन-बल और बाहु-बल से पगलाए लोग औरतों का भोग लगाने के लिए हर हद पार कर रहे हैं। कानून इनके आंगन में बैठा केवल प्रवचन दे रहा है और औरतों को नसीहत की पंजीरी थमा रहा है। अब तो इस सच्चाई को मान ही लेना चाहिए कि सरकार और समाज दोनों लव-ब्रेकरों के गिरोहों से डरे हुए हैं। इन हालातों में अगर गर्भ में ही कन्या वध करने का पाप लाचार मां-बाप कर रहे हैं तो उन्हें दोष देने का या बेटी बचाओ का कीर्तन करने का अधिकार हमें है, क्या? जिस समाज में और जिस देश में औरत यौन प्रताड़ना के लिए आसानी से उपलब्ध होने वाली लावारिस वस्तु समङी जाती हो उस समाज और देश में बेटी-बचाओ का नारा इसीलिए खोखला और बे-मानी हो रहा है। इन हालातों में एक ही रास्ता बचा है कि आत्म रक्षा के लिए लड़कियां कराटे का प्रशिक्षण लें और इन भेड़ियों की लू उतारें।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

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