Friday, November 23, 2012

साझे -चूल्हे में सरकारी सेंध


हमारा संयुक्त परिवार है। तीन बेटे, उनकी पत्नियाँ, चार पोते और हम मियां-बीबी। इस तरह बारह लोगों का भोजन हमारे घर की रसोई में गैस के चूल्हे पर बनता है। अक्सर अतिथि भी आ जाते हैं। इस तरह औसतन बारह से पन्द्ररह गैस सिलेंडर प्रति वर्ष लग जाते हैं। सिलेंडरों की बुकिंग में बीस दिनों के बाद का बैरियर गैस कम्पनियों ने लगा रखा है इसलिए हमने चार गैस सिलेंडरों का कनेक्शन ले रखा है। तीन कनेक्शन बेटों के नाम और चौथा मेरे नाम है। पता एक ही है क्योंकि हम एक ही घर में, एक ही मोहल्ले में एक ही सड़क पर रहते हैं। अभी तक सब ठीक-ठाक चल रहा था। लेकिन अब हमारा संयुक्त परिवार टूटने की कगार पर है और आगे इसे कायम रख पाना सम्भव नहीं लग रहा है। इसके पीछे ऐसा नहीं है कि बहुओं और सास के मध्य कलह या बेटों की बेफाई। कारण हमारा परिवार अपना-अपना दाल-दलिया अलग-अलग बनाने की सोच रहा है। इसका इकलौता कारण सब्सिडी वाले गैस सिलेंडर हैं जो साल में अब केवल छह मिलने हैं। एक ही भवन में एक ही पते पर लिए गए गैस कनेक्शन अमान्य हो जाएगें। हमने इस फरमान से बचने के लिए बहुत माथा-पच्ची की, लेकिन एक ही रास्ता दिखा कि हम संयुक्त परिवार की बिदाई की घोषणा करके चारों गृहस्थी अलग-अलग कर लें। इस तरह सब्सिडी वाला सिलेंडर लेकर अपना-अपना चूल्हा जलाए रखें। बिना सब्सिडी वाला गैस सिलेंडर दुगनी से ज्यादा कीमत पर लेने की हमारी आर्थिक हालत न होने से पुरखों से चले आ रहे संयुक्त परिवार से बिदा लेना ही हितकर है।
आज यह भी नहीं हो सकता कि हम लोग अपने पूर्वजों की तरह कन्द-मूल खाकर जिन्दगी की गाड़ी को धकेले, क्योंकि हमें पता ही नहीं कि कन्द-मूल कैसे होते हैं, कहां मिलते हैं और कितनी कीमत हैं इनकी। अखबारों और टीवी में इनका कभी विज्ञापन भी नहीं देखा। वैसे शकरकन्द, जिमीकन्द जरूर कभी- कभी सब्जी मंडी में दिख जाते हैं किन्तु नियमित रूप से कच्चा तो इनको खाया नहीं जा सकता है। मूल अगर मूली है तो उसे भी रोज मुख्य भोजन नहीं बनाया जा सकता है। पता नहीं हमारे ऋषि-मुनि कन्द-मूल कहां से लाते थे और रोज कैसे खाते थे। मैं अपना संयुक्त परिवार टूटने नहीं देना चाहता, किन्तु सरकार सब्सिडी वाले गैस सिलेंडरों का राशन करके हमें मिलजुल कर नहीं रहने देगी। जो काम हमारे भूतपूर्व शासक अंग्रेज बहादुर नहीं कर सके उसे हमारे वर्तमान मालिकों ने कर दिया पता नहीं कितनी पीढ़ियों से जो चूल्हा-चौका खंडित नहीं हो पाया उसे ईंधन ने तोड़ दिया। मिला-जुला परिवार बचा पाना अब तो हमारे जैसे चिरकुटों के सार्मथ्य के बाहर है। पुराने ढंग के मिट्टी के चूल्हों की वापसी हो नहीं सकती क्योंकि जलाने के लिए लकड़िया ही सुलभ नहीं है। जंगल तो हैं किन्तु उन्हें सरकार ने संरक्षित कर रखा है। लकड़ियां लाना तो दूर की बात है इनमें प्रवेश करने का प्रयास करना खुद को मुसीबत में फंसाना है। साधू-बाबा और सन्यासी इसीलिए शहरों में रहते हैं। अच्छा है आज के दौर में भगवान श्री राम नहीं हुए, वरना वे चौदह वर्ष के लिए दिए गए वनवास में किसी भी जंगल में प्रवेश ही न कर पाते। फिर न सीता हरण होता न रावण वध। न रामायण लिखी जाती और न रामलीलाएं ही होती। राम मन्दिर भी न टूटता तथा कोई बबाल भी न होता।
हमारे देश के और हम सब के महा प्रभु दिल्ली में विराज कर ऐसे-ऐसे हलाकान और प्राण-नुचवा फरमान जारी करते रहते हैं कि करोड़ों प्रजा-जनों का जीवन नरक होता जा रहा है। लगता है कि सल्तनत पर बैठते ही बाबा साहब का संविधान पढ़ने की जगह देश के हुक्मरान गरुण-पुराण का नित्य पाठ करते हैं तभी हमें सता-सता कर नरक और दोजख में धकेला जा रहा है। ऐसा अब आभास ही नहीं होता कि हम लोकतंत्र में रह रहे हैं। हमारी जिन्दगी और हमारी मौत भी देश पर काबिज इन सामन्तों के हाथों में गिरवी हो गई है। इनकी सनक और पगलौटी ने तो हमारा दाना-पानी भी छीनना शुरू कर दिया है। अब हमारी सदियों पुरानी परम्परा और घरों को तोड़ने की शुरूआत कर दी गई है। बेशर्मी से कहते हैं कि अब गैस सिलेंडरों पर सब्सिडी नहीं दी जाएगी। सब्सिडी के घाटे से सरकार दिवालिया हो रही है। उधर कॉरपोरेट घरानों, उद्योगपतियों को करोड़ों-अरबों रुपयों की सब्सिडी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में बड़ी उदारता से उपहार में दी जा रही है। इस दान-पुण्य पर सरकारों को अपने खजाने की फिक्र नहीं सताती।
गरीब की छाती पर सरकारें और उनसे देश को लूटने का अधिकार-पत्र पाने वाले गिरोह विकास की कव्वाली गा रहे हैं। इन कुबेरों को बिजली, पानी और जमीने फोकट में और टैक्सों में दीर्घकालीन छूट देने की केन्द्र तथा प्रदेश सरकारों में होड़ा-होड़ी चल रही है। कौन नहीं जानता कि सब्सिडी का पैसा जनता का पैसा है। यह जनता से वसूला टैक्स है। गरीब आदमी का भी इसमें योगदान है और अगर गरीब आदमी को भी कुछ जरूरी वस्तुओं में सब्सिडी दी जा रही है तो इसे बन्द करने के ऐसे तुगलगी फरमानों को इंसाफ नहीं कहा जा सकता है। गरीब को दी जाने वाली सब्सिडी को सरकारें इस तरह से बखान करती है कि सब्सिडी भीख है, जिसे मालिक लोग चाहे जब बन्द कर दें।
हकीकत तो यह है कि जनता का पैसा जनता के लिए होता है अगर सरकार चलाने का ढोंग कर रहे महा-प्रभुओं को सब्सिडी गरीबों को देने में कर्ज होता है तो सब की सब्सिडी बन्द करने में धुकुर-पुकुर क्यों हो रही है? असल में हम सभी को वैश्वीकरण के ठेकेदारों ने भेड़ों की तरह हांकना शुरू करके बाजार नाम के बाड़े में धकेल दिया है, ताकि हमारी चमड़ी उतारी जा सके। यह बाजार पुराने वक्त का हाट-बाजार नहीं है जहां केवल खरीदने- बेचने का काम होता था। आज का, यह बाजार देश-समाज को उसकी संस्कृति, परम्परा से वंचित करने का भी उपक्रम है। अब इसी बाजार से सत्ताएं भी संचालित होती है। कॉरपोरेट जगत की कई कम्पनियां जीरो टैक्स कम्पनिया होती है, अर्थात सरकार से तमाम फायदे हासिल करने के बावजूद एक रुपया भी टैक्स के रूप में अदा नहीं करती। कॉरपोरेट घराने साधारण दामाद नहीं होते, वे तो देश के दामाद होते हैं। वे राष्ट्रीय दामाद हैं और राष्ट्र का खजाना इनको सुविधाए देने में अगर आम आदमी की जेबों से घाटे की भरपाई कर रहा तो सभी को चुपचाप इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। हमने भी स्वीकार कर लिया है और हमारे यहा चार किचन हो गए। हमने अपने बर्तन-भाड़े बांट लिए हैं।

चिन्तामणि मिश्र
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।

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