Sunday, November 4, 2012

खादी, मखमल और टाट के पैबन्द


 सत्तर के दशक में हम लोग एक कविता की दो पंक्तियों को दीवारों पर नारे की तरह लिखा करते थे ..खादी ने मखमल से ऐसी सांठ-गांठ कर डाली है, टाटा, बिड़ला, डामिलया की बरहों मास दिवाली है। उन दिनों किसी भी नेता के खिलाफ सबसे बड़ा लांछन यही माना जाता था कि वह पूंजीपरस्त है और उद्योगपतियों से उसकी सांठगांठ है। सन् 75 में देश पर इमरजेंसी थोपने वाली इंदिराजी पर भी खुलेआम कोई आरोप नहीं लग पाया कि वे पूंजीपतियों की हितचिन्तक है। इंदिराजी ने तो निजी क्षेत्र के सार्वजनिक उपक्रमों व बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने का दुस्साहसिक फैसला लिया था। पर उसी कांग्रेस की वंश परम्परा के मंत्री सलमान खुर्शीद को यह कहने में कोई शर्म नहीं आती कि यदि उद्योगपतियों को इसी तरह जेल भेजा जाता रहा तो देश में पूंजी निवेश कौन करेगा।
यदि केजरीवाल का टेप के जरिये (अटलजी के मानस दामाद रंजन भट्टाचार्य और कारपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया के बीच बातचीत) किया गया खुलासा सही है, जिसमें मुकेश अंबानी के हवाले से यह कहते हुए सुना गया कि कांग्रेस तो उनकी दुकान है, तो यह खादी और मखमल के बीच सांठ-गांठ की कवि की भविष्योक्ति का प्रमाणीकरण है। पिछले साल नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री जगदीश भगवती संसद में हीरेन मुखर्जी मेमोरियल व्याख्यान देने आए थे। भ्रष्टाचार के मामले में चर्चा करते हुए कहा कई ऐसे देश होंगे जहां टूजी स्पेक्ट्रम स्तर के भ्रष्टाचार होते होंगे। अमेरिका में यदि कोई पकड़ लिया जाए तो उसे भगवान भी नहीं बचा सकता, करोड़ों हिन्दू देवी-देवता भी नहीं।
ऐसा नहीं कि उद्योगपतियों के नेताओं व राजनीति से सम्बन्ध नहीं रहें हों, ऐसे संबंध रहे हैं कि आज भी उनकी दुहाई दी जाती है। मुगल सल्तनत के खिलाफ लड़ते हुए राणा प्रताप ने जब आर्थिक मदद का आह्वान किया तो भामाशाह ने अपनी समूची मिल्कियत उनके कदमों पर रख दी। सुभाषचन्द्र बोस ने जब आजाद हिन्द फौज का गठन किया तो उन्हें आर्थिक मदद देने में तत्कालीन पूंजीपति पीछे नहीं रहे। महात्मा गांधी ताउम्र बिड़ला घराने के अतिथि रहे। डॉक्टर राममनोहर लोहिया हैदराबाद के सेठ ब्रदीविशाल पित्ती और पटना के सेठ रामसहाय के मेहमान रहे और ये समाजवादी आंदोलन की आर्थिक जरूरतों को पूरी करते रहे। सम्पूर्ण क्रांति का बिगुल फूंकने वाले लोकनायक जयप्रकाश नारायण और उनके सहयोगी नानाजी देशमुख के पीछे की आर्थिक पृष्ठिभूमि में गोयनका घराना व टाटा का ट्रस्ट रहा है। कमल मोरारका चन्द्रशेखरजी के करीबी रहे हैं। इन नेताओं ने कभी अपने संबंध छुपाए नहीं, अपितु उद्योगपतियों को समाजसेवा व राष्ट्रप्रेम के साथ जोड़ा।
दरअसल खादी और मखमल के बीच घालमेल का खेल नब्बे के दशक से आर्थिक उदारीकरण के साथ शुरू हुआ। पूंजी बाजार के खेल में जहां नेताओं की उद्योग धंधों के प्रति रुचि पैदा हुयी, वहीं उद्योगपतियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जागी। क्षेत्रीय दल उभरे और कारपोरेट घरानों में बदलते गए। इस नई बयार में विजय माल्या जैसे लिकरकिंग धन बल के दम पर राज्यसभा में चले गए, तो भाजपा और कांग्रेस ने अपने-अपने कोटे से उद्योगपतियों को राज्यसभा में भेजने का काम शुरू किया। काशीराम और मायावती ने तो राजनीति को बाकायदा कारोबार में बदल दिया। बसपा एक राजनीतिक संगठन के रूप में आज किसी कारपोरेट हाउस से कम नहीं, जिसकी सुप्रीमो मायावती वैसे ही सीईओ हैं, जैसे कि शिवसेना के बाल ठाकरे व अब उनके वंशज उद्धव व राज ठाकरे। मुलायम सिंह और करुणानिधि क्यों पीछे रहते। करुणानिधि घराने ने उद्योगपतियों से सांठ-गांठ तो किया ही खुद का विशाल कारोबार खड़ा कर लिया। इस सदी के सत्ता के सबसे बड़े दलाल अमर सिंह ने राजनीतिक दलों को यह सिखाया कि औद्योगिक घरानों का कैसे राजनीतिक इस्तेमाल किया जा सकता है और राजनीति अपने आप में कैसे एक स्वतंत्र उद्योग हो सकती है। शरद पवार और नितिन गड़करी भी इसी लाइन के ध्रुवतारा हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के सुप्रीमो पवार व उनके परिवार का भी ऐसा ही सुव्यवस्थित कारोबार है जैसा कि नितिन गड़करी का जिनकी फर्जी कम्पनियों के खुलासे ने मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के भीतर की सड़ांध तक झंकने का मौका दिया है। भाजपा को कारपोरेट संस्कृति से जोड़ने का श्रेय स्वर्गीय प्रमोद महाजन को जाता है जिन्होंने उद्योगपतियों व भाजपा के बीच सेतु का काम किया। राबर्ट बाड्रा और डीएलएफ के गठजोड़ के खुलासे ने कांग्रेस के चरित्र के ढंके परदे को खोला है।
एसोसियेटेड जर्नल्स को कांग्रेस द्वारा दिए गए लोन ने देश के सबसे बड़े राजनीतिक घराने के कारोबारी चरित्र को रेखांकित किया है।
दरअसल कांग्रेस-भाजपा समेत किसी भी दल में अब आन्तरिक लोकतंत्र बचा नहीं है इसलिए धीरे-धीरे सभी राजनीतिक दलों का कायान्तरण औद्योगिक घरानों की तर्ज पर हो गया है। पार्टी की प्रदेश व जिले की शाखाएं आउटलेटस और शोरूम में तब्दील हो गईं।
राजनीतिक दलों के इस चलन ने भ्रष्टाचार व कालाबाजारी के जरिए कुबेर बने अपराधियों व असमाजिक तत्वों को तहेदिल से प्रोत्साहित किया है। कर्नाटक में भाजपा सरकार के मंत्री रहे रेड्डी बन्धु और हरियाणा के गृह राज्यमंत्री रहे गोपाल काण्डा कोई विरले चरित्र नहीं हैं, विधायक, सांसद बनने के लिए अब किसी वैचारिक पृष्ठभूमि व राजनीतिक संस्कार की जरूरत नहीं रह गई। हर प्रदेश में हर राजनीतिक दल में रेड्डियों व काण्डाओं की भरी पूरी जमात है।
इसी नई व्यवस्था का परिणाम है कि आज नेताओं व उद्योगपतियों के पास 10 लाख करोड़ रुपयों की घोषित संपत्ति है। यानि के भारत के कुल संपत्ति का 95 प्रतिशत जो 5 प्रतिशत ऐसे लोगों के पास है। टाइम मैग्जीन के मुताबिक सत्ता के दुरुपयोग के मामले में शीर्ष दस मामलों में भारत दूसरे नम्बर पर है। दुनिया में अमीरों की संख्या के मामले में भी भारत अमेरिका के बाद दूसरे नम्बर पर है। वहीं दूसरी ओर अर्थशास्त्री अरुण सेन गुप्ता की अध्यक्षता वाले आयोग का अध्ययन बताता है कि 77 प्रतिशत भारतवासी 20 रुपये प्रतिदिन में गुजारा करते हैं।
शायद स्वतंत्र भारत के भविष्य का आंकलन करते हुए ही 10 फरवरी 1936 के यंग इंडिया के अंक में महात्मा गांधी ने स्वराज के संदर्भ में लिखा था..सच्चा स्वराज मुट्ठीभर लोगों द्वारा सत्ता प्राप्ति से नहीं आएगा, बल्कि सत्ता का दुरुपयोग किए जाने की सूरत में उसका प्रतिरोध करने की जनता की सामथ्र्य विकसित होने से आएगा।.. क्या आप नहीं मानते कि व्यापक जन प्रतिरोध का अब वह वक्त दस्तक दे रहा है? लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208

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