Monday, October 15, 2012

चैनलों के चाल, चरित्र और चेहरे


टीवी चैनलों में खबरों और विचारों की दुनिया का पिछला हफ्ता रजत पट पर गत्ते की तलवार भांजने वाले शताब्दी के महानायक अमिताभ बच्चन उर्फ बिग-बी और अट्ठावन साल में भी ब्रम्हाण्ड सुन्दरी रेखा के नाम रहा। अपन तो इन दोनों की अदाओं में ही फिदा रहे। हर एंगल को कवर किया, रोमान्स, रोमान्च, ट्रेजडी, कामेडी आदि-आदि। अवसर था 10 अक्टूबर को रेखा और 11 अक्टूबर को अमिताभ बच्चन के जन्मदिन का। मीडिया की वरीयता में न तो लोकनायक जयप्रकाश नारायण रहे, जिनका 11 अक्टूबर को जन्मदिन पड़ता है और न ही डॉ. राममनोहर लोहिया जिनकी पुण्यतिथि 12 अक्टूबर को थी। दरअसल अपना देश एक विचित्र व अफसोसनाक सन्धिकाल से गुजर रहा है। मीडिया का महत्तम वर्ग वास्तविक भारत के मुकाबले एक आभाषी भारत की रचना में जुटा है, जिसके "फूल्स पैराडायज" (मूर्खो का स्वर्ग) में चमकद मक, मौज-मस्ती, हरे-भरे, खाए-पिए और अघाए लोग आबाद हैं। ठीक वैसे ही जैसे कारपोरेट जगत ने भारत के मुकाबले अपने लिए इन्डिया बसा लिया। वास्तविक भारत जल-जंगल और जमीन पर हक की मांग को लेकर दिल्ली कूच करने को तैयार है।
नब्बे के दशक से शुरू हुए नव उदारीकरण की प्रक्रिया में जब निजी क्षेत्र के आडियो-विजुअल मीडिया के लिए रास्ते खुले तब उम्मीद जगी थी, कि इनके आने के बाद सत्ता नियंत्रित खबरों और विचारों की एकरसता टूटेगी। लेकिन दो दशक बाद जब हम समग्रता के साथ स्थितियों का सिंहावलोकन करते हैं तो उन आलोचकों की बात में दम दिखता है कि भारत में मीडिया (टीवी चैनलों के संदर्भ में) का उदारीकरण "बंदरों के हाथ में उस्तरा" देने जैसा है। इस तथ्य को खबरिया चैनलों के वे दिग्गज पत्रकार भी स्वीकार करते हैं जो प्रिन्ट मीडिया के संस्कारों में पले बढ़े और चैनलों की सीढ़ी पर चढ़े। चर्चित टीवी पत्रकार और खबर प्रस्तोता पुण्यप्रसून वाजपेयी ने अपने ब्लाग में, टीवी चैनलों को लेकर विरोधाभास और विवशताओं का तथ्यों के साथ विशद् वर्णन किया। वाजपेई लिखते हैं कि अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त व जीवंत माध्यम आहिस्ता- आहिस्ता गलत लोगों के हाथों में जा रहा है और जीविका की विवशता के चलते अच्छे व मेधावी पत्रकार काम करने को विवश हैं। चाहकर भी कोई पत्रकार न्यूज चैनल नहीं शुरू कर सकता, क्योंकि इसके लिए लायसेंस का फार्म भरने वालों को अपने कारोबार का टर्नओवर 20 करोड़ रु. साबित करना होगा। तथ्यों की रोशनी पर जाकर देखें तो बीते सात बरस में न्यूज चैनलों का लायसेंस पाने वाले अस्सी फीसदी लोग बिल्डर, चिटफन्ड चलाने वाले, रियल इस्टेट के खेल में माहिर और भ्रष्टाचार या अपराध के जरिए राजनीति में कदम रख चुके हैं।
गीतिका शर्मा काण्ड के मुख्य आरोपी व हरियाणा के गृह राज्य मंत्री रहे गोपाल काण्डा के पास पांच चैनलों का लायसेंस है। काण्डा का न्यूज चैनल हरियाणा और यूपी में चलता है, इसी समूह का एक धार्मिक चैनल भी चलता है। जेसिका लाल हत्याकाण्ड के मुख्य अभियुक्त मनु शर्मा का भी न्यूज चैनल है, इनका परिवार उत्तर भारत से एक बहुसंस्करणीय अखबार भी चलाता है। योग की तिजारत करते-करते राजनीति में कूदने को बेताब बाबा रामदेव अपने ही धार्मिक चैनल के जरिए घर-घर पहुंचे। न्यूज चैनल नेताओं की भी पहली पसंद बने हुए हैं। दक्षिण में तो यह संक्रामक रोग की शक्ल में फैल रहा है। करुणानिधि, मारन परिवार के चैनल के मुकाबले जयललिता का भी चैनल है। केरल-आन्ध्र-कर्नाटक और अब तो पश्चिम बंगाल में नेताओं और पार्टियों के अपने-अपने न्यूज चैनल हैं। वर्तमान में 27 न्यूज चैनलों के लायसेंस नेताओं के पास हैं जो चालू स्थिति में हैं। नेताओं के परिजनों के नाम से 32 न्यूज चैनल अभी पाइप लाइन में हैं। 18 न्यूज चैनल चिटफन्ड कम्पनियों के नाम हैं, जबकि 19 न्यूज चैनल रियल इस्टेट के कारोबारियों के पास।
न्यूज चैनल का लायसेंस हासिल करके दूसरे को बेचने का भी चोखा धंधा चल रहा है। एक लायसेंस हासिल करने में 10 से 15 लाख रुपए खर्च होते हैं, बाजार में इनकी कीमत 3 करोड़ रु. तक मिल जाती है। न्यूज चैनलों के इतर केबिल नेटवर्क का भी धंधा दिलचस्प है। डीटीएच के चलन के बाद भी ज्यादातर न्यूज चैनल केबिल नेटवर्क के जरिए ही घर-घर तक पहुंचते हैं। एक न्यूज चैनल को केबिल नेटवर्क से जुड़ने के लिए हर महीने 30 से 35 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते हैं। छोटे-मझोले से लेकर बड़े शहरों तक केबिल नेटवर्क स्थानीय बाहुबलियों और नेताओं के नियंत्रण में है। यही नहीं इस क्षेत्र की अहमियत को दिग्गज नेता भी भली- भांति समझते हैं। जैसे छत्तीसगढ़ में रमन सिंह से जुड़े लोगों का केबिल नेटवर्क पर नियंत्रण है तो पंजाब में प्रकाश सिंह बादल का। किसी बड़े न्यूज चैनल की इतनी हिम्मत कहां कि इन नेताओं की खबर हवा में प्रसारित कर सके।
आपको लगता होगा कि आज तक जैसे चैनल इस जमात से अलग होंगे। नहीं ऐसा नहीं है। खबरों व तथ्यों को लेकर ये कितने संजीदा हैं, एक घटना मेरी आंखो देखी है। उन दिनों मैं भोपाल के एक अखबार में था। बैतूल से एक खबर छपी कि यहां गरुड़ (वेदों में वर्णित भगवान विष्णु का वाहन) के बच्चे मिले हैं। "आज तक" ने सजीव प्रसारण शुरू किया। वेद मर्मज्ञ और पण्डित स्टूडियो में गरुड़ पुराण बखान रहे थे। जबकि तब तक अखबार खबर का खण्डन छापकर पक्षी विशेषज्ञों के हवाले स्पष्ट कर चुका था कि ये गरुड़ नहीं उल्लू के बच्चे हैं। खबरिया चैनल हमें इसी तरह उल्लू बनाते हैं। असम की वह दर्दनाक घटना शायद ही किसी को भूली हो जिसमें एक टीवी पत्रकार के उकसाने पर जोरदार फुटेज के लिए एक कन्या को चौराहे पर निपर्द कर दिया गया और लफंगों ने उसकी इज्जत से खेला। बाद में टीवी पत्रकार को जेल हुई।
चैनलों को लेकर बात एकतरफा नहीं है। कई सामाजिक सरोकार की खबरें भी रहती हैं पर यदि टीआरपी रेट प्रिन्स के गड्ढे में गिरने के सजीव प्रसारण से बढ़ता है, तो सामाजिक सरोकारों की क्या बिसात। और इसीलिए अमिताभ बच्चन और रेखा के मुकाबले जयप्रकाश व लोहिया हांसिए पर चले जाते हैं। यह संक्रामक रोग प्रिन्ट मीडिया में भी फैल रहा है। सही पूछे तो लघु पत्रिकाएं और क्षेत्रीय भाषाई अखबार ही आज की तारीख में पत्रकारिता की अस्मत को बचाए हुए हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि आजादी की लड़ाई में मुख्य धारा के अखबार अंग्रेजों के साथ थे और भाषाई अखबार क्रांतिकारियों के साथ मोर्चा ले रहे थे। और अंत में कारपोरेटी अखबारों की प्राथमिकताओं को लेकर हिमान्शु कुमार की कविता के अंश, आप भी पढ़ें।
अक्लमंद हो तो क्या लिखो? 
रूप, रंग, गंध लिखो, मन की उड़ान हो गई जो स्वच्छन्द लिखो। तितली लिखो, फूल लिखो। रेशम लिखो, प्रेम लिखो। ठसक और खनक लिखो। देश, विश्व, सत्ता के बदलते समीकरण लिखो। अच्छा लिखो, नफीस लिखो। ऊंचा लिखो, दमकदार लिखो। प्रशंसा, पैसा और सम्मान के जरूरतमंद लिखो। मुख्य धारा लिखो, बिकने वाला लिखो। सेंट लिखो, लड़की लिखो। पैसा लिखो, मंत्री लिखो। जली हुई झोपड़ी, लूटी हुई इज्जत, मरा हुआ बच्चा, पिटा हुआ बूढ़ा मत लिखो। अन्याय मत लिखो, प्रतिकार मत लिखो। सहने की शक्ति का खात्मा और बगावत मत लिखो। क्रांति मत लिखो, नया समाज मत लिखो। संघर्ष मत लिखो, आत्म सम्मान मत लिखो। लाईन है खींची हुई, अक्लमंद और पागलों में, अक्लमंद लिखो, पागल मत लिखो।
जयराम शुक्ल
लेखक दैनिक स्टार समाचार के सम्पादक एवं वरिष्ठ साहित्यकार हैं.
jairamshuklarewa@gmail.com

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