Monday, October 22, 2012

मैं रोया परदेश में, भीगा मां का प्यार


चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
शब्दों के संसार में रिश्ते नाते और सम्बन्ध एक दूसरे के पर्याय हैं, परंतु गंभीरता से परखें तो लगता है कि रिश्ते और नाते जन्म से ही तय होते हैं, लेकिन सम्बन्ध बनाये जाते हैं। जन्मते ही हमें रिश्ते में मां-बाप, भाई-बहन, काका-काकी, मामा-मामी, दादा-दादी इत्यादि मिल जाते हैं और यही हमारी प्रारंभिक पहचान होते हैं, हम अपने आप में कुछ नहीं होते। कालांतर मे कुछ ऐसे भी सम्बन्ध बनाने होते हैं जिन्हें रिश्तों और नातों का नाम दिया जाता है। रिश्ते रक्त-संबंधों पर आधारित होते हैं जबकि संबंध, सम्पर्को से समान रुचि, क्षमता, गुण और आवश्यकतानुसार बनते हैं। सम्बन्ध टूट भी जाते हैं परंतु रिश्ते कभी नहीं टूटते। रिश्तों के सम्बन्ध टूट रहे हैं। रिश्तों से अपेक्षाएं जुड़ी होती हैं इसीलिए वे पूर्ति के अभाव में अक्सर दरक जाते हैं। सम्बन्ध रिश्तों पर भारी पड़ रहे हैं। दोनों के निर्वाह (सम+बंध) अर्थात बराबर बंधने पर भी सम्भव है। प्रत्येक रिश्ते-नातों की परम्परागत शर्ते हैं, उन शर्तो के कारण ही आज वे सब हाशिए पर जहां-तहां खड़े हैं। सम्बन्धों में कहीं न कहीं स्वार्थ है, स्वार्थ रिश्तों में भी है। रक्त संबंधों का वास्ता देकर भावनात्मक दबाव वश रिश्तों के निभाने की बातें समाज में अधिक चर्चित होती हैं। स्वार्थ से मुक्त संसार का न कोई रिश्ता है, न संबंध। लेकिन कुछ रिश्ते ऐसे भी हैं जिनमें भावना की लहर में स्वार्थ शब्द किनारे में ही डूब जाते हैं। मां का बेटे से और बेटे का मां से संसार का पहला और पवित्रतम रिश्ता है। बेटा या बेटी के जन्मते ही मां का रक्त दूध बनकर अमृत हो जाता है, जिसे पीने के लिए राम-कृष्ण, बुद्ध, ईसा को मां की गोद में आना पड़ता है। मां के दूध को चुनौती देने वाले की शामत कब से आती रही है, लेकिन मां का दूध कभी नहीं लजाया। मनुष्य, सभी रिश्तों की गाली सुन-सह सकता है परंतु मां की गाली सुन वह स्थिर नहीं रह सकता।
मनुष्य जन्म के बाद पहला शब्द मां ही बोलता है, यह सृष्टि का आदि शब्द है। पशु भी "बां" बोलते हें, चीं-चीं करके चहकने की ध्वनि के कारण ही चिड़ियों की संज्ञा बनी। मां, भावना और दायित्व का मेल है। यह सम्बन्ध नहीं रिश्ता है। रिस-रिस कर इसका उद्भव हुआ है। रिश्ते के इस सम्बन्ध को हाशिए पर करना पशुत्व की श्रेणी में आता है। भूखी रहकर भी बेटे को पुष्ट करने की अभिलाषा उससे क्या नहीं कराती? मां, बेटे के बड़े होने के बाद भी उसका पेट टटोलती है कि पेट भरा है कि नहीं। कहनूति है कि मिलने पर मां बेटे को पेट और पत्‍नी टेंट पर हाथ फेरती है। कितने सपने पालती है मां, विश्व भर के सरित्सागर की कथा मां के हृदय में ही पलती है। बचपन के दूध पिलाने, बड़े होने और प्रौढ़-वृद्ध होने तक बेटा, मां के लिए बच्चा ही रहता है। पोते में भी बेटे की छवि ढूंढ़ती है। मां के पुत्र-प्रेम की गरिमा अतुलनीय है। पिता के अभाव में वह पिता बनकर उनकी कमी नहीं खलने देती लेकिन मातृहीन बेटे या बेटी को पालने के लिए कण्व ऋषि होने वाले पुरुष कहीं नहीं दिखते।

लोक परम्परा में बेटे के परदेश गए की याद, तुलसी बाबा ने राम द्वारा छोड़ गई बचपन की धनुही और पनही देखकर ताजा कर दी-जननी निरखत बान धनु हियां/बार बार उर नैनहिं लावति प्रभु जी की ललित पनहियां/मां की स्मृति कभी भी मंद नहीं पड़ती। बेटे के गलती करने पर जब वह बहुत गुस्से में होती है तो रोते हुए पीटती है, पीटते हुए रोती है और फिर रोते हुए आंसू पोछती है मलहम लगाती है। बेटा मां से झूठ बोलता है, तरह-तरह की बातें गढ़ता है। बालक कृष्ण के मुंह में दही लगा है, रंगे हाथ पकड़कर गोपी द्वारा लाया गया है, फिर भी कहता है, मैंने माखन नहीं खाया, सभी ने मिलकर जबरन मुख लपटाया है। यशोदा अपमान सहते-सुनकर थक गई हैं, पिटाई निश्चित जानकर मां के कोमल हृदय पर ममत्व का यथार्थ बाण कृष्ण चला देता है- तू मुझे इसलिए पीटेगी, मेरा कहना नहीं मानती, क्योंकि मैं पराया हूं, तुम्हारा बेटा तो हूं नहीं? यशोदा के हाथ से छड़ी छूट जाती है, आंसुओं की अजस्त्र धारा फूट पड़ती है। कृष्ण ने वह कहा जो कोई भी मां सुनना नहीं चाहती। मर्म पर चोटकर कृष्ण रोने लगता है। यशोदा दौड़कर गले लगा लेती है। सारे अपराध आंसुओं में बह जाते हैं। वहीं यशोदा कृष्ण के मथुरा चले जाने पर पुत्र प्रेम में नंद जी से यह भी कहती हैं- नंद ब्रज लीजै ठोंकि बजाय। देहुं विदा मिल जाहुं मधुपुरी जंह गोकुल के राय। मां के प्रेम के इन स्वरूपों का क्या नाम दिया जा सकता है। इससे बड़ा कौन सा रिश्ता हो सकता है?

मुनव्वर राना देश के प्रतिष्ठित शायर हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि मां जब बीमार होती हैं, मैं कहता हूं, कि यदि तुझे कुछ हुआ और मुझे छोड़कर तू गई तो मैं भी पीछे-पीछे चला आऊंगा। मेरी इस बात पर वे ठीक हो जाती हैं। कहीं जाने के पहले जब, मैं मां के पास जाता हूं वे मेरी आखें चूमती हैं। राना कहते हैं- मेरी आंखों की ज्योति बढ़ जाती है। मैंने चश्मा नहीं लगाया साठ बरस के बाद भी। यह मां के चुम्बन का कमाल है। कौशिल्या मां चिंतित हैं कि कोमल पांवों में कांटे और कंकड़ चुभते होंगे- कउने विरछ तर भीजत होइही, रामलखन दुनौ भाई।विधवा मां ने बेटे को पाला-पोसा। खूब पढ़ाया, बेटा बड़ा इंजीनियर हो गया। विवाह कर लिया, विदेश में करोड़ों कमा रहा है। मां उसके लिए अतीत का स्वप्न बन गई, कभी याद नहीं करता। बेटा, न मां का हुआ न देश का, उसकी दृष्टि में सिर्फ पैसा है। मां को पता है कि बेटे के बेटे नहीं हैं, मिलने पर बोली- भाई साहब! ईश्वर से दुआ करती हूं कि उसे एक बेटा दे दे। मां थी तो रात देर तक दरवाजे पर बैठी हमारे आने की राह देखती थी। नब्बे वर्ष की उम्र में सत्तर वर्ष के बेटे की चिन्ता। अब नहीं है, घर आने पर नहीं लगता कि कोई हमारे लिए प्रतीक्षारत है। मां थीं तो हम बेटे थे, उनके जाते ही हम बुढ़ा गए। एक छाया थी सिर पर, एक हाथ था आशीष का, नहीं रहा। माताओं को वृद्धाश्रम में देखकर एक महत्वपूर्ण सामाजिक चिंता से रुबरू होता हूं। इस रिश्ते को कैसे भुलाया जा सकता है। मुनव्वर राना का एक शेर बरबस स्मृतियों में ले जाकर खड़ा कर देता है-"इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है। मां बहुत गस्से में होती है तो रो देती है।"
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।)

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