Wednesday, September 19, 2012

अर्थव्यवस्था के शव साधक


चिन्तामणि मिश्र

गुटखा पर रोक, दारू बेखौफ मध्य प्रदेश सहित कई राज्यों ने तमाखू गुटखा पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। इसका बनाना और बेचना दडंनीय अपराध भी घोषित कर रखा है। यह अलग बात है कि गुटखा अभी भी हर जगह आसानी से ज्यादा कीमत चुकाने पर उपलब्ध है, किन्तु इसके लिए कानून लागू करने वाली एजेंसियां और गुटखा गुटकने वाले लोग जिम्मेवार हैं। सरकारों ने देर ही से सही, आम आदमी की सेहत से जुड़े सवाल को गम्भीरता से सोचा और जनहित में इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया। डाक्टरों और समाज सुधारकों की राय है कि गुटखा से कैन्सर हो जाता है, जिसका कोई इलाज नहीं है। कैन्सर तो बीड़ी-सिगरेट, शराब, मिलावटी भोजन-पानी, नकली घी-दूध से भी हो जाता है। लेकिन इन सब से खतरनाक शराब है जो आदमी,परिवार और समाज को मारती है। फिर भी गुटखा पर प्रतिबन्ध लगाना अभिनन्दनीय है।
जब सरकारों में आसीन हमारे भाग्य-विधाता समाज के कल्याण के लिए ऐसे कदम उठाते हैं तो खुशी होती है, अन्यथा अभी तक देश का आम आदमी सरकारों के सरोकारों से हाशिए पर हमेशा धकेला जाता रहा है। जो लोग सरकारों पर आरोप लगाते हैं कि वह गरीब आदमी की फिक्र नहीं करती उन्हें अब अपनी सोच इस उम्मीद में बदलनी चाहिए कि शायद सरकारें हर नशे पर हमला बोलने वाली है। गुटखा का सेवन गरीब आदमी और निम्न मध्यम वर्ग ज्यादा करता है। बड़े लोगों का शगल गुटखा कभी नहीं रहा, वे तो देशी-विदेशी ब्रान्ड की शराब का सेवन करते हैं। इसे भी खारिज नहीं किया जा सकता कि आम आदमी अपनी रोजी-रोटी तथा आसमान छू रही महंगाई को लेकर तनाव और दहशत में रोज मर-मर कर जी रहा है।
कदम-कदम पर नौकरशाही, नेताओं, दबंगों और कानून के रखवालों द्वारा लतिआया जा रहा है, जिसे भुलाने और अपने भीतर झूठी ताकत का एहसास तथा तनाव से कुछ पल राहत पाने के लिए उसे गुटखा ही सस्ता तथा सर्व-सुलभ सहारा समझ में आता है। पांच-दस रुपए खर्च करके वह नरक हो रही जिन्दगी से जूझने और अपने भीतर कुछ साहस का भ्रम पाल लेता है।
हालांकि ऐसा ही काम शराब भी करती है, किन्तु शराब सामाजिक और आर्थिक कारणों से उसकी पहुंच से बाहर होती है। गुटखा की तुलना में देशी दारू भी मंहगी है। गुटखा पर प्रतिबन्ध स्वागत योग्य फैसला है सरकार ने लाखों लोगों को कैन्सर के जबड़े में जाने से बचाने का पुण्य किया है, किन्तु शराब बनाने और बेचने पर प्रतिबन्ध लगाने में ऐसा ही साहस कहां चला गया? सरकारें चला रहे भाग्य-विधाताओं की शराब पर प्रतिबन्ध न लगा पाने की विवशता लोग समझते हैं। शराब से सरकारों को कई हजार करोड़ का राजस्व मिल रहा है। शराब कुबेर का खजाना है। हर साल देशी और विदेशी शराब के ठेकों से मोटी कमाई हो रही है। होटलो,रेस्त्रां, ढाबों, पांच-सितारा बारों में शराब सर्व-सुलभ है। कई जिलों के ग्रामीण इलाकों में मोटर साइकिलों से शराब घर-घर उपलब्ध कराई जा रही है।
अपने देश में कुछ स्थानों में पूरी तरह और कुछ में आशिंक रूप से पानी का संकट स्थायी बन गया है किन्तु शराब का संकट कभी नहीं सुना। पीने का पानी हमारी सरकारें घर-घर उपलब्ध कराने में जरूर असफल हैं किन्तु शराब की धार, घर-घर पहुँच रही है। देश के कर्णधार शराब से हो रही तबाही से परिचित हैं, किन्तु इस पर प्रतिबन्ध लगाने का विचार भी करना गुनाह समझ रहे हैं। अब तो शराब निर्माता संसद सदस्य भी होने लगे है। हम और हमारा देश बाजारवाद का कीर्तन कर रहा है और सरकारें कॉरपोरेट सेक्टर की पिछलग्गू हो चुकी हैं।
असल में, हमारे देश की सरकारें कॉरपोरेट सेक्टर की पूंछ पकड़ कर रेंग रही हैं। संविधान कहता है कि राष्ट्र जनता चलाती है और सरकारें जनता के प्रति जबाबदेह हैं, किन्तु हकीकत में हमारे देश की सरकारों के नबाबों सुलतानों तथा महाराजाओं को खाए-अघाए कॉरपोरेट सेक्टर के मालिकों की मर्जी से शासन चलाने का श्राप हैं। देश का अन्नदाता किसान हर घन्टे देश में मर रहा है। मंहगाई से अस्सी करोड़ नागरिक तबाह हो रहे हैं लेकिन बीस करोड़ लोगों को लूटने की आजादी सरकारों ने दे रखी है। अभी सरकार ने डीजल में प्रति लीटर पांच रुपया बढ़ाया है और रसोई गैस सिलन्डर की राशनिंग कर दी है।
सरकार कह रही है कि सब्सिडी पेट्रोलियम पदार्थो में देने से उसे घाटा हो रहा है। लेकिन इसी सरकार ने बीते तीन साल में दो लाख करोड़ से ज्यादा कॉरपोरेट सेक्टर को छूट दी है। इसके अलावा उत्पाद शुल्क में चार लाख करोड़, सीमा शुल्क में सात लाख करोड़ की भी छूट दी है। अस्सी करोड़ गरीब जनता को डीजल और रसोई गैस में दी जा रही सबसिडी से सरकार का दिवाला निकल रहा है किन्तु कॉरपोरेट सेक्टर को अरबों रुपए की सब्सिडी थाल सजा कर भेंट कर दी जाती है। शराब बनाने और बोतलबन्द करने से लेकर बिक्री करने का काम भी कॉरपोरेट सेक्टर के पास है। लेकिन किसान अपने उत्पादन का दाम निर्धारण खुद नहीं कर सकता है। देशी दारू स्वयं सरकार की निगरानी में हैं। शराब आदमी के शरीर को ही नहीं खाती, शराब हत्या, बलात्कार, डकैती, सड़क दुर्घटना भी कराती है।
गुटखा खा कर कोई अपराध नहीं करता है। शराब बेहद खतरनाक है। गुटखा के साथ शराब के भी बनाने और बेचने पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए वैसे भी देश के नागरिकों का स्वास्थ्य सरकारों की प्राथमिक जिम्मेवारी है, लेकिन सरकारों पर काबिज गिरोह केवल अपने और धन्धेबाजों के हितों के आगे कुछ नहीं करना चाहते। गांधी ने आजादी की लड़ाई के साथ शराबबन्दी के लिए जबरदस्त आन्दोलन किए, क्योंकि व जानते थे कि आजादी और शराब दोनो एक साथ नहीं रह सकती। जब देश आजाद हुआ तो गांधी के नशाबन्दी को ही सत्ताधारी भूल गए। हमारे प्रधानमंत्री तो कभी जनता के बीच अपने लिए बोट मांगने ही नही गए। स्वराज की गंगा को जनता के खेत तक लाने की भगीरथी तपस्या उन्होंने नहीं की। वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद की उपज हैं और मैकाले और क्लाइव के पांवों पर चल कर लुटियन के टीले पर बैठे हैं। ऐसे लोग हर व्यवस्था के सेवक हो जाते हैं। ऐसे लोग गांधी और गांधी दर्शन को नहीं जानते, ऐसे लोग हिन्द स्वराज और ग्राम स्वराज भी नहीं जानते। ऐसे लोग कॉरपोरेट सेक्टर की अर्थ व्यवस्था के शव साधक हैं और आवारा पूंजी से बाजार को खुली लूट में बदलने में सहायक होते हैं। शराब बन्दी के लिए जिस ईमान और साहस की जरूरत होती है वह नदारत है। गुटखा पर प्रतिबन्ध भी कागजी है।

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