Thursday, August 16, 2012

कहाँ से चले थे कहाँ आ गए हम

चंद्रिका प्रसाद चंद्र
दिल्ली में कुतुबमीनार है, शीशगंज गुरुद्वारा है, जामा मस्जिद है, हुमायूं का मकबरा है, राजघाट, विजयघाट, शांतिवन है और भी बहुत कुछ दिल्ली में है, था, शायद रहेगा भी। दिल्ली देश के लोगों की कामना है। दिल्ली में होने रहने के लिए सदियों से क्या कुछ नहीं किया गया। दिल्ली सपनों की कत्लगाह है, फिर भी दिल्ली के सपने हैं। दिल्ली में होने का मतलब इतिहास में दाखिल होना है।देश भर के लिए दिल्ली, जागती आंखों से सपने देखती है और सिर्फ अपने सपने पूरे करने के लिए करणीय-अकरणीय करके उसे जायज ठहरा लेती है। यह अलग बात है कि खजाना मुम्बई में है। दिल्ली स्वर्ग है, जहां अपने पुण्यों का फल भोगने देश के देवता आते हैं। चारों पुरुषार्थो के फल दिल्ली में पकते हैं।
दिल्ली में सिर्फ अपना देश भर नहीं,विश्व है। इसीलिए विश्व को दिखाने के लिए दिल्ली को भव्य होना पड़ा है। दिनकर ने इसे भारत का रेशमी नगर कहा था। इसमें देश का इतिहास एक बार नहीं अनेक बार दफन हुआ। दिल्ली कभी किसी की नहीं हुई यह बे-दिल दिल्ली है। इंद्रप्रस्थ से लेकर दिल्ली तक की अनेक कहानियां यहां की आबोहवा में दर्ज है। यहां यमुना बहती है। कृष्ण का परिचय गोकुल की कालिंदी से था, वे भी जब कभी इंद्रप्रस्थ गए किसी न किसी राजनीतिक प्रपंच के कारण। दिल्ली ने कभी क्रांति नहीं की, क्रांतिकारियों का नेतृत्व भर किया। क्रांतियों का अंतिम लक्ष्य दिल्ली था। शलभ श्रीराम सिंह नें "दिल्लियां" कविता लिखी है- "हाथी की नंगी पीठ पर/घुमाया गया दारा शिकोह को गली-गली/और दिल्ली चुप रही/लोहू की नदी में खड़ा/मुसकराता रहा नादिर शाह/और दिल्ली चुप रही/" और आगे लिखते हैं कि बंदा बैरागी के बेटे के ताजा कलेजे का खून उनके मुंह में डाला गया। बहादुरशाह जफर को गिरफ्तार किया गया। इसी दिल्ली में फिर भी दिल्ली चुप रही। दिल्ली तब भी चुप थी आज भी चुप है, अंत में वे कहते हैं-"दिल्लियां/चुप रहने के लिए होती है हमेशा। इतिहास का यह अन्वेषण वर्तमान पर भी पूरी धज से कायम है। इसी दिल्ली में एक अदद लाल किला भी है जहां पिछले पैंसठ वर्ष से पंद्रह अगस्त को राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता है।" देश में धार्मिक और जातीय त्यौहारों की संख्या बहुत अधिक है परंतु राष्ट्रीय त्यौहार सिर्फ तीन हैं। पंद्रह अगस्त को देश स्वाधीनता दिवस, छब्बीस जनवरी को गणतंत्र दिवस और दो अक्टूबर को गांधी जयंती के नाम से मनाता है। स्वाधीनता दिवस अंग्रेजों के शासन से मुक्ति पाने का दिन है। देश के अनगिनत शहीदों की शहादत को याद करने का दिन है।
आजादी के लिए बलिदान देने वालों के इतिहास का पुनर्पाठ करने का दिन है। आजादी के संघर्ष का इतिहास देश के नौनिहालों के पाठय़क्रम में शामिल ही नहीं किया, सिवाय कुछ नामों के । इतिहास से अनभिज्ञ पीढ़ी किनके सपनों का देश गढ़ेगी और यही पीढ़ी देश में शासन कर रही है। जिसे न शहीदों के सपनोंे की जानकारी है न उनके त्याग और बलिदान की कहानी मालूम है। इतिहास की भित्ति पर खड़ा देश ही भविष्य की उदात्त परम्परा डाल सकता है। जिस देश का कोई आदर्श अतीत नहीं होता,अराजक होता है। पांच सौ वर्ष पहले अमेरिका का अतीत क्या था। उसे किसी "मूल्य" के गिरने की चिन्ता ही नहीं वह सिर्फ "कीमत" जानता है जो बाजार शब्द है।
हमारी नीतियों पर अमेरिका उंगली उठा रहा है हमारी क्रेडिट रेटिंग विदेशी तय करें दिल्ली चुप है। हमें "अंडरएचीवर" कहा जा रहा है। जीवन मूल्य इतिहास की धरोहर है जिस पर वर्तमान के भव्य महल खड़े हो सकते हैं,लेकिन हमने पैंसठ सालों में धीरे-धीरे उनको भुला दिया। शहीदों को तो भुलाया ही, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी भुला दिया। जिनके दर्शन विचार और आचरण में कहीं भी विरोधाभास नहीं था, उन्हें ही दरकिनार कर दिया। आजादी मिलने के बाद बापू स्वयं को अकेला और अकिंचन मानने लगे थे। उन्होंने कहा था कि मेरी कोई नहीं सुनता। राष्ट्रपिता की उस चिंता को किसने महसूस किया।
नोआखली में बापू अकेले साम्प्रदायिक हिंसा की आग को बुझते रहे और नेता आजादी और कुर्सी के जश्न में डूबे थे। फिर भी उस समय के नेताओं के दिल में देश प्रेम था। भारत मां की एक मूर्ति अमूर्त थी, लेकिन समझइस देने वाले को न सुनने की परम्परा का बीज पड़ा। जिसका खामियाजा देश आज तक भोग रहा है। विस्थापन का नया ढंग, नया रंग आसाम के बंगलादेशी सीमा के लोग भोग रहें हैं। दिल्ली सैंतालीस में भी रंगीनी में डूबी थी, आज भी डूबी है। न देखती है न सुनती है।
धृतराष्ट्र अंधे हैं, गांधारी ने आंखों में पट्टी बांध ली है। पहले पाकिस्तान से हिन्दू शरणार्थी आए थे, अब बांग्लादेश से मुसलमान शरणार्थी भारत आ रहे हैं। सदियों से पुश्तैनी कश्मीरी पंडित कश्मीर से भागकर विस्थापन का दंश भोग रहे हैं और दिल्ली देख रही है। अपने ही वतन में अपनों का विस्थापन और हम "अतुल्य भारत" एवं शाइनिंग इंडिया के झूठे नारों में खुश हो रहे हैं। अनेक संदर्भो से अगस्त, क्रांति का महीना है। 8 अगस्त 42 को मुम्बई में कांग्रेस ने "भारत छोड़ो" आंदोलन का प्रस्ताव पास किया। महात्मा गांधी ने एक अत्यंत उत्तेजक भाषण जिन्दगी में पहली बाद दिया था जिसको इस देश की जनता ने अपने अपने ढंग से समझ था। बापू ने कहा था "मैं एक छोटा सा मंत्र आपको दे रहा हूं जिसे हृदय में रखें, उसका जाप करें, मनन करें-करो या मरो"। या तो हम भारत को आजाद करेंगे या आजादी की कोशिश में प्राण दे देंगे। हम अपनी आंखों से अपने देश को सदा गुलाम और परतंत्र बना रहना नहीं देखेंगे। प्रत्येक सच्चा कांग्रेसी, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, इस दृढ़ निश्चय से संघर्ष में शामिल होगा कि वह देश को बंधन और दासता में बने रहने को देखने के लिए जिन्दा नहीं रहेगा। ऐसी आपकी प्रतिज्ञा होनी चाहिए। "अनेक ने माना कि बापू ने अहिंसा से तौबा कर ली। इस आंदोलन का नेतृत्व देश की जनता ने किया क्योंकि सारे नेता जेल में थे। 42 से 47 तक का इतिहास ‘करो या मरो" का इतिहास है। अंग्रेजों के आने के पहले तक इस देश में साम्प्रदायिक संघर्ष नहीं थे। अंग्रेजों ने "मुस्लिम" और हरिजन कार्ड खेला। अम्बेडकर ने चाल समझ ली परंतु जिन्ना झंसे में आ गए। सुभाष और गांधी का विभाजन न होने देने का सपना टूट गया। घृणा और द्वेष की जो आग अंग्रेजों ने लगाई वह आज भी सुलग रही है। हम उन्हीं की भाषा में बोल रहे हैं, उनके अहसानमंद हैं।
हम स्वाधीन हैं, आत्मनिर्भर हैं, विश्व की छठी ताकत है। विकास की अनेक मंजिलें इन पैंसठ वर्षो में देश ने तय की हैं लेकिन हमारी नैतिकता और चरित्र का ग्राफ निरंतर गिरा है। गांधी के अंतिम हथियार अनशन और सत्याग्रह अस्त्र थे। वे भोथरे हो गए और दिल्ली तथा सारे देश ने मान लिया कि भ्रष्टाचार बड़े लोगों का श्रंगार है और कोई भी बोलने कहने वाले जूते की नाप के बाहर नहीं हैं। भ्रष्टाचार को सरकारी स्वीकृति मिली है। हमें अपने से ही पूछना पड़ रहा है, "धूमिल" कवि की तरह - "क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है। जिसे एक पहिया ढोता है। या कि इसका कुछ और भी अर्थ होता है।"
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।)

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