Tuesday, August 7, 2012

बृज से कुरुक्षेत्र तक ‘कृष्ण-लीला’

  चिन्तामणि मिश्र
श्री कृष्ण का जीवन और चरित्र दोनों बहुत अद्भुत तथा बहुरंगी हैं। बालपन में पूरी मस्ती के साथ की गई बाल-लीला, इन्द्र को चुनौती देते गोपाल कृष्ण, राधा और गोपियों के संग रास में नाचतें रासबिहारी श्रीकृष्ण कंस वध के बाद मथुरा से पलायन करते रणछोड़। कौरव सभा में विराट रूप के दर्शन कराते पाडंवों के शान्ति दूत श्रीकृष्ण,राष्टÑ की एकता के लिए महाभारत के महानायक सारथी श्रीकृष्ण, महायुद्ध के मैदान में कर्म-धर्म की गीता रचते श्रीकृष्ण, सखा की परिभाषा स्थापित करते पांचाली के श्रीकृष्ण और राधा को अपने संग समेटे राधारमण श्रीकृष्ण। इतना बहुयामी और इतना बहुरूपी चरित्र केवल श्रीकृष्ण का ही रहा, धरती में। श्रीकृष्ण के अलावा और किसी की नहीं रही ऐसी भूमिका। वे बैकुन्ठ से हमारी धरती में अवतरित हुए।
      कितना विचित्र है कि विष्णु अपने हर अवतार में अपनी कुछ कलाओं को बैकुन्ठ में ही छोड़ कर धरती में आए, किन्तु अचानक ऐसा घटित होता है कि उनकी सोलह कलाओं और दसों अवतारों का वैभव लूट कर एक घना श्यामल प्रकाश भादों की अंधेरी रात को घनघोर वर्षा में मथुरा के बन्दीगृह की दीपहीन अंधेरी कोठरी में राजपुत्री और सम्राट की बहन की कोख से प्रगट होता है और सारे समीकरण और सारी भूमिकाए उलट-पुलट हो जाती हैं। यह श्यामल सलोना शिशु कृष्ण नाम को ग्रहण करके फिर अनन्त नामों से आज तक करोड़ों-करोड़ लोगों का जीवन कृतार्थ कर रहा है, दुखों को दूर करने का मार्ग सुझा रहा है। उन्हें तृप्त कर रहा है। बाह पकड़ कर भवसागर पार करा रहा है। जीना सिखा रहा है। उसका नाम सुमिरन करने पर ऐसी रस वृष्टि होती है कि बुद्धि और प्यास हिरा जाती है। देव लोक और सभी देव चकित हो जाते हैं कि यह तो अवतरण नहीं है। पृथ्वी पर स्वर्ग नहीं उतरता। पृथ्वी तो स्वर्ग को नकार देती है,क्योंकि कृष्ण बृज को ऐसे स्वर्ग में रूपान्तरित कर देते हैं जो देवताओं के स्वर्ग से ज्यादा रस-रंग-रास उलीचता है। देवता कृष्ण और बृज के गोप-गोपियों को देख कर पछताते हैं कि हमारा अहंकार हमें धोखा दे गया । हमारा कृष्ण तो उनके वश में हो गया जो जानते ही नहीं कि कृष्ण परमब्रह्म हैं, परमेश्वर हैं, असाधारण हैं, विराट हैं। बृजवासी तो इनके संग घूमते फिरते हैं, नाचते हैं, गाते हैं, माखन चुराते हैं। इसमें भक्ति नहीं है। लकुटी में ,बांस की छेदों वाली बांसुरी में, मोरपंख के मुकुट में ऐश्वर्य कहां से आएगा? नहीं जानते देवता कि कृष्ण तो ऐसा खिंचाव हैं, जिसमें उलझ कर देह, देह नहीं रह जाती, भाव बन जाती है। गेह, गेह नहीं रह जाता,आंखें, आंखें नहीं रह जाती, रूप बन जाती हैं, प्यार, प्यार नहीं रह जाता, वह प्रियतम बन जाता है। खुद कृष्ण, कृष्ण नहीं रह जाते राधा बन जाते हैं। परायी मां, सगी मां बन जाती है और सगी मां परायी हो जाती है। बालू जमुना बन जाती है और जमुना कृष्ण की छवि के लिए तरसती बालू बन जाती है।
     लेकिन कृष्ण की बाल-लीला उनके अवतरण का लक्ष्य नहीं था, यह उनके द्वारा भविष्य में किए जाने वाले विराट कामों की प्रारम्भिक झलक और भूमिका थी। वे आए थे भारत के विखराव को समेट कर साल और संगठित राष्टÑ बनाने। हताश और निराश लोगों को सद्कर्म के लिए प्रेरणा देने।   कृष्ण जैसा पे्रमी और कृष्ण जैसा निर्मोही संसार में कोई दूसरा नहीं हुआ। बृज के लोगों, से बृज की रेणु, बृज के पहाड़-जंगल, बृज के पशुओं और बृजरानी राधा से प्रेम किया तो ऐसा कि प्रेम जीवन्त हो गया, सार्थक और सुगन्धित हो गया। अपने पालनकर्ता नन्द-यशोदा को ऐसा प्रेम दिया कि दोनों का स्नेह हिमालय होे गया और र्निमोह ऐसा कि फिर बृज और बृजवासियों की तरफ मुड़ कर नहीं देखा। यह थी निर्मोह की पराकाष्ठा  कि पल भर में माया-मोह और पे्रम के बन्धन तोड़ कर खुद को निसंग बना लिया। यह कृष्ण की ही क्षमता थी और यह थी कृष्ण की लीला। कृष्ण का जीवन हलचल भरा था, क्योंकि वे सामुदायिकता के लक्ष्य की ओर तत्कालीन समाज को ले जा रहे थे। वे भारत का उद्धार और इसका विकास संगठित राष्टÑ के रूप में चाहते थे। बड़ा विचित्र लगता है कि जो काम त्रेता में दशरथ-नन्दन राम ने शुरू किया था उस अधूरे काम को कृष्ण ने पूरा किया और सारे देश के विखराव को एक सूत्र में बांध कर शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की। कृष्ण इस केन्द्र के अधीश्वर बन सकत थे, किन्तु हमेशा की तरह कृष्ण फिर मोह से परे ही रहे। इस बिन्दु की अनदेखी नहीं की जा सकती कि भारत में अवतार की श्रृंखला तो शुरू हो चुकी थी, किन्तु कृष्ण का विलक्षण अवतार था। श्रीराम ने त्रेता युग में अवतार लिया किन्तु वे उच्च स्तर की मर्यादाओं को आत्मसात करके मनुष्य की भूमिका में भी निरंतर देव बनने का ही प्रयास करते रहे। द्वापर में कृष्ण ऐसे देव थे जो मनुष्य बनने की कोशिश करते रहे और इसमें उन्हें पूरी सफलता मिली। मनुष्य और मनुष्यता को सुखी बनाने और भारत को राष्टÑ में रूपान्तिरित करने में कृष्ण का पूरा जीवन साक्षी है। कृष्ण एकता के देवता है। महाभारत पूर्व से पश्चिम की यात्रा है जैसे रामायण उत्तर-दक्षिण की यात्रा है। लोहिया कहते थे कि मणिपुर से द्वारिका की एकता कृष्ण के ही प्रयासों से सम्भव हुई थी।  पूर्व-पश्चिम की राजनीति अलग थी। सामाजिक सरोकार अलग थे। राम उत्तर-दक्षिण की एकता के नायक और राजा बने किन्तु कृष्ण दूसरों को   राजा और सम्राट बनाते रहे। कृष्ण ने सभी को कुछ न कुछ दिया और बदले में शाप तथा आरोपों की पठोनी ही पाई।
    राष्टÑ की एकता के लिए कृष्ण को अपने ही लोगों से जूझना पड़ा। कौरव और पाण्डव उनके निकट आत्मीय थे, तो मथुरापति कंस सगे मामा थे, किन्तु कृष्ण की तुला में नाते और संग-सगाती राष्टÑ के समक्ष वजनहीन थे। उनके अपने कृष्ण से घटतौली नहीं करा सकते थे। कृष्ण के लिए राष्टÑ ज्यादा महान और मानवीय था। राष्टÑीय एकता के लिए वे हिंसा और अहिंसा के भंवर जाल में नहीं फंसे। कभी न्याय और अन्याय के तर्क-विर्तक का  चिन्तन नहीं किया। जहां जैसी जरूरत थी वहां उसी तरह हर बाधा को जड़ से मिटाया। राम का मुकाबला भील, राक्षस, किरात, वानर, किन्नर, भालू जातियों से था, इनको हराने के बाद या हराए बिना अपनी सभ्यता में ढाल लेने का था किन्तु कृष्ण के सामने चुनौती बड़ी थी। इसमें कई पेंच थे किन्तु कृष्ण ने असम्भव को सम्भव कर दिखाया।
       कृ ष्ण जैसा स्वार्थहीन न कभी हुआ है और कभी होना सम्भव है। भारत ही नहीं संसार के करोड़ों-अरबों लोग कृष्ण की गीता से अपने दायित्व की पहचान सदियों से करते आ रहे हैं। जो घनघोर नास्तिक हैं वे भी कुरुक्षेत्र से प्रवाहित गीता-गंगा और कृष्ण से प्रेरणा ले रहे हैं।
                                      - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                          सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

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