Wednesday, August 29, 2012

इधर कुआं और उधर खाई

चिन्तामणि मिश्र

खुदरा व्यापार में विदेशी इजारेदारी के लिए बोतल में बन्द भूत के बाहर आने की खार ने देश के छोटे और मझोले खुदरा दुकानदारों को फिर सड़कों पर उतर कर विरोध करने का काम दे दिया है।
यह हकीकत है कि सरकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत में खुदरा व्यापार करने का न्यौता दे चुकी है।
सरकार, विदेशियों की बारात के स्वागत हेतु लाल कालीन बिछाए, हाथों मे स्वागत की फूल माला लिए आकुल-व्याकुल हो रही है। विदेशी बारातियों के आगमन में थोड़ा विलम्ब इसलिए हो रहा है, क्योंकि देश में अभी विरोध के स्वर उठ रहे हैं अस्तु अच्छे तथा शुभ मुहूर्त का इन्तजार हो रहा है। सरकार विदेशी खुदरा व्यापार के पक्ष में दलील देती है कि अभी देश में बिचालियों के कई स्तर होने से कीमतें बढ़ती हैं और उत्पादन करने वाले को उसके उत्पादन की सही कीमत नहीं मिलती है। सरकार का दावा है कि विदेशी स्टोर खोलने से देश में रोजगार बढ़ेंगे। ऐसे फैसले लेने वाले जमीनी हकीकत से या तो अनजान हैं या फिर जानबूझ कर सच्चाई छिपा रहे हैं। हमारे देश का खुदरा व्यापार मामूली नहीं है। असंगठित क्षेत्र में कृषि के बाद खुदरा व्यापार सबसे ज्यादा रोजगार उपलब्ध कराता है। हमारे यहां खुदरा व्यापार ऐसा कौशल है जिसे सीखने के लिए मोटी फीस चुका कर किसी बिजनेस स्कूल में जाने की जरूरत नहीं है। थोड़ी पूंजी, निजी कौशल से खुदरा व्यापार शुरू हो जाता है। इसके लिए किसी विदेशी निवेश की जरूरत भी नहीं है। इस समय लगभग चार करोड़ खुदरा दुकानदार हैं, जो विदेशी स्टोरों के आ जाने से तबाह हो जाएंगे। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अधिक से अधिक एक करोड़ लोगों को नौकरी देंगी। इसमें भी सन्देह होता है, क्योंकि इन रिटेल स्टोरों का आधे से ज्यादा काम मशीनों के जरिए होगा।
जहां तक किसानों और अन्य उत्पादकों को अधिक या फिर बाजिब कीमत मिलने की बात है तो ऐसा होना नहीं है। गन्ना उत्पादक किसानों को चीनी मिलें कितना मुनाफा कमाने दे रही हैं, यह सभी को मालूम है। जब बाजार में कुछ संगठित ताकतें ही उत्पादन खरीदने के लिए बचेंगी तो किसान की मोलभाव करने की क्षमता घटेगी और किसान असहाय हो जाएगा। यह पूरी तरह से झुनझुनेबाजी है। विदेशी कम्पनियों को चुनौती देने के लिए बाजार में देशी खुदरा दुकानें सक्षम नहीं हो सकती हैं। मुकाबले के लिए इनका खड़ा हो पाना ही सम्भव नहीं है। वे आपस में अपना फेडरेशन बना कर देशी दुकानदार को हर कदम पर रगेद-रगेद कर बाजार के बाहर कर देंगी। उपभोक्ता भी इन विदेशी स्टोरों के रहमोकरम पर अपनी जेबें कटवाएगा। अभी खाद, बिजली, सीमेन्ट, पैट्रोल, डीजल, रसोई गैस में उपभोक्ता के साथ दिन-दहाड़े ऐसी डकैती हो रही है जिसकी रपट किसी भी थाने में नहीं लिखी जाती और सरकार टुकुर-टुकुर तमाशा देख रही है।
विदेशी खुदरा स्टोर की मालिक कम्पनियों को उपभोक्ता के पक्ष में हड़काने तक का धतकरम करने की हिम्मत सरकारों में आएगी, इस पर किसी को भरोसा नहीं है। यह हकीकत है कि हमारे देश में दैनिक उपभोक्ता वस्तुओं की मूल्य वृद्धि में बिचौलिए-दलालों का भी बहुत बड़ा हाथ है। खेतों से सब्जी जिस कीमत पर बाहर आती है वह किचन तक आते-आते दस गुना तक महंगी हो जाती है। लेकिन भारतीय खुदरा व्यापार से बिचौलियों का खातमा कर पाना ना-मुमकिन होगा। हां यह जरूर होगा कि गन्दी परदनी- कुर्ता पहनने वाले बिचौलियों की जगह बहुराष्ट्रीय कम्पनियां टाई, बेल्ट, सूट, बूट वाले बिचौलिये रखेगी। करोड़ों रुपये लेकर फिल्मी सितारे और क्रिकेट के खिलाड़ी इन कम्पनियों का प्रचार करने के लिए ब्रान्ड एम्बेस्डर होंगे। अभी देशी खुदरा बाजार में आलू चिप्स साठ से सत्तर रुपए प्रति किलो बिक रहा है और यही आलू चिप्स बहुराष्ट्रीय कम्पनिया एक हजार रुपए प्रति किलो की दर से हमारे देश में बेच रही हैं।
हमारे देश में आर्थिक प्रगति कृषि और उद्योग के सहारे नहीं, सेवा क्षेत्र के भरोसे होती है। सर्वाधिक जनसंख्या को जो अपना जीवन-यापन सेवा क्षेत्र में ही तलाशना हो तो, खुदरा क्षेत्र को बड़ी कम्पनियों के हवाले करने का फैसला गरीबों को भिखारी बनाने का षड़यंत्र है। कठिनाई तो यह है कि इतनी बड़ी तादाद में इनको भीख भी कौन देगा? हमारे प्रधानमंत्री माने हुए अर्थशास्त्री हैं। लेकिन उनके अर्थशास्त्र में अमीर तो मुटिआते (मोटा होना) जा रहे हैं और गरीब सूख कर छुहारा जैसा हो रहा है। उधर भारतीय खुदरा कम्पनियां भी विदेशी कम्पनियों से साङोदारी करने का ताना-बाना बुन चुकी हैं। वे भी अपने विदेशी साथियों के साथ मुनाफा पीटने के लिए लार बहा रही हैं। यही कारण है कि घरेलू धन्ना सेठ खुदरा बाजार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने की जम कर पैरवी कर रहे हैं।
इस देश का किसान हो या फिर छोटे दस्तकार और छोटे व्यापारी- दुकानदार हों सभी को मनमोहनी-अफीम चटा-चटा कर विदेशी और देशी कम्पनियों को लूटने का मौका देने के लिए रास्ते से बाहर धकेला जा रहा है। संविधान में सब को समानता की गारंटी दर्ज है। लेकिन केन्द्र और प्रदेश सरकारों की मन-मर्जी पर यह संवैधानिक गारन्टी सीमित हो कर रह गई है।
सरकारें बहुंराष्ट्रीय कम्पनियों और बड़े उद्योगपतियों को जमीनें, पानी, बिजली, खदानें नाममात्र के भुगतान पर पचासों साल की अवधि के लिए दान कर रही हैं। इनको टैक्सों से भी छूट मिलती हैं। इतना ही नहीं सरकारी बैंक करोड़ों रुपए आसानी से दे रहे हैं। उधर छोटे और मझोले व्यापारियों- दुकानदारों और दस्तकारों को कोई सुविधा और कोई सहायता मिल पाना असम्भव है। समान अवसर और समानता का जनाजा वे ही लोग रोज निकाल रहे हैं जिन्हें संविधान ने संरक्षक बनाया है। हमारे देश में अब संविधान को हमारे शासकों ने सत्यनारायण कथा की पोथी बना दिया है कि संविधान और इसमें दर्ज मौलिक अधिकारों का घंटा-घड़ियाल बजाकर केवल नाम लेते रहो। देश में अमीरों की संख्या बढ़ने और पाताली गरीबी का मुख्य कारण यही धतकरम है। विदेशी कम्पनियां खुदरा स्टोर खोलंेगी और हमारी सरकारें ऐसे ही हथकन्डों से इनका लालन-पालन करेगी। इन तमाम हालातों में एक ही हल सामने आता है कि खुदरा बाजार को सहकारिता के रास्ते से चलाया जाकर उत्पादकों और उपभोक्ता को राहत दी जाए। भारतीय बिचौलियों का इस्तेमाल सहकारी उपभोक्ता समितियों में किया जा सकता है। अमूल्य मदर डेयरी, लिज्जत पापड़, कॉफी हाउस आदि कई क्षेत्रों में लम्बे समय से सफलतापूर्वक खुदरा व्यापार हो रहा है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र-09425174450. समान अवसर और समानता का जनाजा वे ही लोग रोज निकाल रहे हैं जिन्हें संविधान ने संरक्षक बनाया है। हमारे देश में अब संविधान को हमारे शासकों ने सत्यनारायण कथा की पोथी बना दिया है कि संविधान और इसमें दर्ज मौलिक अधिकारों का घंटा- घड़ियाल बजा कर केवल नाम लेते रहो। देश में अमीरों की संख्या बढ़ने और पाताली गरीबी का मुख्य कारण यही धतकरम है। 

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