Thursday, August 2, 2012

सत्ता के विरोध से आगे...

पुण्य प्रसून बाजपेयी
क्या वाकई देश एक ऐसे मुहाने पर आ खड़ा हुआ है जहां से आगे का रास्ता संविधान को तार तार करेगा। क्योंकि संविधान में दर्ज जनता के मैनिफेस्टो को खारिज कर ही राजनीतिक दल लोकतंत्र का राग अलाप सत्ता तक पहुंच सकते हैं । और राजनीतिक दलों का अपना मैनिफेस्टो संविधान की मूल आत्मा के खिलाफ जाता हुआ ऐसा कदम है जो धीरे धीरे राजनीतिक दलों के सत्ता तक पहुंचने के प्रयास को ही लोकतंत्र बना दे रहे हैं। जनता चाहे तो सरकार बदल दें। जनता को अगर किसी राजनीतिक दल में खोट दिखायी दे तो उसे सत्ता में ना आने दें। किसी सरकार या राजनीतिक दल के कामकाज अगर जनता के अनुकुल नहीं होते तो फिर उस सरकार की उम्र पांच बरस से ज्यादा हो ही नहीं सकते। यानी संविधान का मतलब अगर लोकतंत्र है और लोकतंत्र का मतलब अगर हर नागरिक के वोट का अधिकार है और वोट का मतलब अगर संसदीय राजनीति है। और संसदीय राजनीति का मतलब अगर संसद के जरीये बनाई जाने वाली नीतिया हैं। और नीतियों का मतलब अगर तत्काल में देश के पेट को भरना है। और पेट के भरने का मतलब पैसो वालों के जरीये विकास का ढांचा बनवाना है। और विकास के ढांचे का मतलब अगर मुनाफा बनाना है। और मुनाफे का मतलब अगर बहुराष्ट्रीय कारपोरेट को कमाने का लालच देकर निवेश कराना है। और विदेशी निवेश का मतलब अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपना कद बरकरार रखते हुये विकास दर और सेंसक्स से लेकर जीडीपी और उपभोक्ताओ के माल से भारत को लबालब भर देना है। तो फिर संविधान का मतलब क्या है।
मौजूदा परिस्थितियो में संविधान का मतलब शायद ऐसा लोकतंत्र है जो राजनीतिक सत्ताधारियो के सत्ता में बने रहने या सत्ता से उखडने में लगे विपक्षी राजनीतिक दलों के सत्ताधारी होने का खेल है । यह खेल संविधान का नाम लेकर संविधान की मूल भावना के खिलाफ खेले जाने वाला खेल है। संविधान चाहता है हिन्दी राष्ट्रीय और देश की भाषा बने । लेकिन संसद के भीतर ही अंग्रेजी की महत्ता ठसक के साथ स्थापित की जाती है। संविधान के मूल में है कि जाति बंधन खत्म हो। लेकिन सियासत की समूची राजनीति ही जाति को एतिहासिक महत्व देते हुये बरकरार रखने पर आमादा है। संविधान धर्म से इतर राष्ट्रीय भावना को जागृत करने की दिशा में महत्वकांक्षा पाले हुये है। लेकिन धर्म को राजनीति का आधार बनाकर उसके अनुकुल राष्ट्र बनाने की सियासत होती है। संविधान हाशिये पर पड़े तबको को मुख्यधारा से जोड़ने के लिये कदम उठाने को कहता है। लेकिन उठाये जाने वाले कदम ही सियासी तौर पर ऐसे बना दिये गये हैं कि हाशिये पर पड़ा तबका सत्ता की सुविधा में ही खुद को मुख्यधारा से जुड़ा मानने लगे। यानी संविधान के जरिये देश को बांधने के बजाये अगर सत्ता के अनुरुप संविधान को बांधने का प्रयास होने लगे तो क्या हो सकता है यह मौजूदा परिस्थितियों को देखकर समझा जा सकता है। यानी लोकतंत्र या संविधान की दुहाई देकर अगर राजनीतिक दलों की सत्ता को चुनौती देने के लिये अब कोई राजनीति करे तो एक साथ तीन सवाल खड़े हो सकते हैं। पहला , राजनीतिक दल कहेंगे संविधान के लिहाज से आप भी राजनीतिक दल बनाइये और चुनाव लडकर सत्ता में आ कर दिखाइये । दूसरा, राजनीतिक दल सारा दोष जनता की भूमिका पर डाल देंगे। तीसरा,लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ आपको मान लिया जायेगा और लोकतंत्र को साधने के लिये संसदीय राजनीति को ही सबसे बेहतर करार दिया जायेगा । अगर बारिकी से समझे तो इन तीनों परिस्थितियों से कहीं ना कहीं अन्ना आंदोलन गुजरा । संसद के भीतर से अन्ना आंदोलन को संविधान विरोधी माना गया। सड़क से अन्ना आंदोलन को चुनाव लड़ कर अपनी बात साबित करने की चुनौती दी गई । और राजनीतिक तौर पर सारे संसदीय दल इस बात को लेकर एकमत हो गये कि अन्ना आंदोलन के सवालों का जवाब आखिरकार उसी संसदीय राजनीतिक व्यवस्था से निकलेगा जिसका विरोध अन्ना आंदोलन कर रहा है।

यानी जनता के वह प्रयोग गौण हो गये जिसे पहली बार बहुसंख्यक आम जनता अमल में लाने की दिशा में कदम बढा रही थी। तो क्या यह माना जाये कि अब सवाल सत्ता, सरकार या संसदीय राजनीति को लेकर करना बेवकूफी होगी। क्योंकि मुद्दों को लकर इस रास्ते का मतलब उसी चुनावी चक्रव्यूह में जाना है जहां पहले से मौजूद राजनीतिक खिलाड़ी कहीं ज्यादा सक्षम और हुनरमंद है। और यह रास्ता लोकतंत्र या संविधान परस्त नहीं है, क्योंकि इसके तौर तरीके एक खास खांचे में सत्ता बना देते है या बिगाड़ देते हैं। और इसे प्रभावित बनाने वाली ताकतें बिना वोट दिये ही बहुंसंख्यक वोटरों को प्रभावित कर देती हैं। यह सवाल कोई अबुझ पहेली नहीं है। क्योंकि आजादी के बाद से लेकर 2009 तक लोकतंत्र का सबसे मजबूत पाया वोटिंग के तौर तरीके बताते है कि राष्ट्रीय तौर पर जिसकी पहचान भी नहीं है वह मजबूत होता गया और जो राष्ट्रीय पार्टी का तमगा लिये घुम रहे है वह कमजोर होते चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं लोकतंत्र जीने के तौर तरीके ऐसे है कि पचास फिसदी वोटरों की तो भागीदारी ही नहीं होती। और जिसकी सत्ता बनती है उसका अपना चुनावी मैनिफेस्टो इस हद कर संविधान विरोधी होता है कि वह हर उस मुद्दे पर देश को बाँट चुका होता है जिसे संविधान जोड़ने की मशक्कत करने के लिये बार बार दोहराता है। जातिगत सत्ता की मलाई, आरक्षण की सुविधा, सरकारों के विकास ना करने की एवज में पैकेज और देश में किसान-मजदूरों, आदिवासियों को दो जून की रोटी ना दे पाने की स्थिति बरकरार रखने के लिये कल्याणकारी योजनाओं की फेरहिस्त। असर इसी का है कि 2009 में 70 करोड के वोटरों के देश में सिर्फ 29 करोड़ वोट ही पड़ते है। और एक करोड़ से भी कम वोट पाने वाले देश चलाने में लग जाते हैं। कांग्रेस को ही सिर्फ साढे ग्यारह करोड़ वोट मिलते हैं। तो ममता, करुणानिधि और शरद पवार या मुलायम, मायावती को कितने वोट मिले होंगे यह आप खुद ही सोच सकते हैं। मुश्किल यह नहीं है सत्ता की कुंजी उनके पास है। मुश्किल यह है कि देश की कुंजी इन्होने लोकतंत्र को बचाने के नाम पर या संविधान की रक्षा के नाम पर हथियाई हुई है।

नया सवाल यही से शुरु होता है । क्या यह वक्त आ गया है कि अब लोकतंत्र और संविधान विरोधी आंदोलन की शुरुआत इस देश में हो जाये। कोई भी कहेगा कि लोकतंत्र या संविधान में कहां खराबी है। खराबी तो राजनीतिक सत्ता में है। सरकारों में है। व्यवस्था में है। बदलना है तो उन्हें बदलें । आंदोलन उन्हीं के खिलाफ हो । संविधान तो देश की मूल भावना और उस दौर के मुश्किलात से कैसे जुझा जा सकता है इसको लेकर ही संविधान निर्माताओं ने संविधान बनाया है। लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में क्या वाकई कोई दिल पर हाथ रखकर कह सकता है कि संविधान पढ़ते वक्त उसके जहन में देश की जो परिकल्पाना उटती है देश वैसा ही है। उसी रास्ते पर है । यकीनन संविधान बनाते वक्त बाबा साहेब आंबेडकर हो या राजेन्द्र प्रासद या जवाहरलाल नेहरु या फिर सरदार पटेल अगर इनके जहन में संविधान के मद्देनजर देश को एक धागे में पिरोने का सपना था तो उसवक्त देश की कुल आबादी 36 करोड़ थी। आज उस वक्त के दौ भारत यानी 72 करोड से ज्यादा लोगो के लिये तो सरकार के पास कोई योजाना, कोई नीति है ही नहीं । अगर कुछ है तो राजनीतिक पैकेज या कल्याणकारी ऐसी योजनाये जिससे इनकी आर्थिक परिस्थितियां जस की तस रहें। 1895 के जेल मैनुअल के मुताबिक हर कैदी को जितनी कैलोरी हर दिन भोजन में मिलनी चाहिये । यकीन जानिये अगर सिर्फ इस कैलोरी वाले भोजन को ही लागू कर दिया जाये तो सरकार को जेल भोजन के लिये खाद्द सुरक्षा विधेयक से बड़ा कानून बनाना होगा। हर बरस कम से कम साठ लाख करोड का बोझ सरकार पर पड़ेगा। क्या यह लोकतंत्र की परिभाषा में फिट बैठती है। क्या संविधान बनाने वालों ने कभी ऐसा सोचा भी होगा। जाहिर है नहीं। तो फिर अब की सत्ता और सरकार उसी लोकतंत्र या संविधान की दुहाई क्यों देती है। जाहिर है संविधान के खिलाफ आंदोलन का मतलब यहाँ तानाशाही या लोकतंत्र विरोधी धुरी बनाना नहीं है। बल्कि संविधान को विस्तार देने के लिये उसमें राजनीतिक सत्ता के लोकतांत्रिक चोंचले और संविधान की आड में संस्थानों की वह व्याख्या भी है, जो यह मानने को तैयार नहीं है देश को इस वक्त भी अंग्रेजी हुकुमत की तर्ज पर हांका जा रहा है। फर्क सिर्फ इतना ही चंद हथेलियों में सब कुछ है और यह हथेलियां संविधान का घेरा बनाकर बार बार डराती हैं कि अगर आपने विरोध किया तो आपको गैर कानूनी से लेकर देश द्रोही तक ठहराया जा सकता है क्योंकि देश में कानून का राज है और कानून की व्याख्या न्यायपालिका करती है। और उसे लागू राजनीतिक सत्ता करवाती है। जिसे सरकार कहते हैं। और यह सरकार जनता की नुमाइंदा है। जिसे बकायदा लोकतांत्रिक तरीके से चुना गया है। और इस चुनी हुई सरकार को संविधान से ही मान्यता मिली है तो आप उसे चुनौती कैसे दे सकते है। (ब्लॉग से साभार)

No comments:

Post a Comment