Friday, August 31, 2012

लम्हों की खता, सदियों की सजा


चिन्तामणि मिश्र

असम में भड़की जातीय हिंसा की प्रतिक्रिया में मुम्बई, कानपुर, इलाहाबाद और बरेली आदि कई शहरों में हिंसक प्रदर्शन हुए और गोलीबारी भी। इसी के साथ दक्षिण के कई राज्यों से पूर्वोत्तर के लोगों ने थोकबन्द अपने गृह प्रदेश के लिए पलायन किया, यह चिंतनीय और दुखदायी है। इसके पीछे कुछ शरारती तत्वों द्वारा भेजे गए एसएमएस और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों के जरिये उन्हें दी गई धमकियों का प्रत्यक्ष हाथ था। यह अजीब लग सकता है कि केवल अफवाहों और अनजानी धमकियों के कारण भागने का सिलसिला शुरू हो गया। राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार के समझने और सुरक्षा का वायदा करने पर भी लोग भागते रहे। जाहिर है कि लोगों को सरकार के वायदों पर विश्वास नहीं हो रहा था। सरकार और देश के लिए यह खतरनाक स्थिति है। प्रधानमंत्री और उनके गृहमंत्री कहते हैं कि ऐसे संदेश पाकिस्तान से भेजे गए हैं और सरकार ने इन सभी वेबसाइटों को ब्लॉक कर दिया है। सरकार ने यह कदम पलायन शुरू होने के तीन दिन बाद उठाया। सोशल मीडिया के जरिए भारत पर ऐसा प्रभावी हमला था यह, कि सरकार भौचक्की और लकवाग्रस्त दिखाई दी। इन अफवाहों और झूठे संदेशों के दंश में अफरा-तफरी मचा दी। सामूहिक पलायन और हिंसक दंगों की घटनाओं से केन्द्र सरकार फ्रीज हो गई थी और जब साइबर हमला अपना काम कर चुका तो सरकार बयान दे रही थी कि हमने इन साइटों की पहचान कर ली है और इन्हें ब्लॉक कर दिया है। कितनी लाचार और गैरजि म्मवार है हमारी सार्वभौमिक तथा सम्प्रभुता सम्पन्न सरकार कि उसे इन संदेशों की तीन दिन तक जानकारी नहीं मिली। जब देश के दुश्मन अपना काम कर चुके तब सरकार कोमा से बाहर आती है और सांप के निकल जाने पर लकीर पीटती है।
असम के कोकराझर,धुबरी और चिरांग जिलों में जातीय हिंसा से बहुत से घर जला दिए गए। बड़ी संख्या में लोग मारे गए, घायल हुए और करीब चार लाख लोग राहत शिविरों में संदेह,भय और तनाव के साथ रह रह हैं। यहां पहले दिन से ही जिला प्रशासन हालात पर काबू करने में असफल रहा। इतनी व्यापक स्तर पर की गई हिंसा का उसे पूर्व संज्ञान तक नहीं था। सेना बुलाने का फैसला भी दो दिन बाद लिया गया। यह प्रशासनिक लापरवाही थी। किसी भी समस्या को गैर जिम्मेवारी और टालू तरीके से निपटाने की प्रवृति शासन और प्रशासन की आदत बन गई है। देश में इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से विस्फोटक अफवाहें, आंतककारी मैसेज आते रहे।
अब हमारे देश के महाप्रभु यह बता रहे हैं कि यह कारनामा पाकिस्तान से किया गया है और इन साइटों को ब्लॉक कर दिया गया है। देश को यह भी जानने का हक है कि सरकार और सरकार के कारकुन इसको रोकने और इसके फैलाव को सीमित करने के लिए पहले दिन ही प्रभावी कदम उठाने में असफल क्यों रहे? केन्द्र सरकार के पास साइबर मामलों के लिए अलग से विभाग है। इसका बजट कई अरब रुपए का है।
आखिर तेरह अगस्त को ही जब ऐसे शरारती संदेश बड़ी तादाद में आने लगे थे तो इन्हें रोकने और ब्लॉक करने का काम क्यों नहीं किया गया? तीन दिन तक सरकार क्या कर रही थी। इसी कड़ी में यह भी बड़ा विचित्र लगता है कि दक्षिण के अलग-अलग शहरों में रहने वाले पूर्वोत्तर के निवासियों के सेल फोन नम्बर शरारती लोगों के हाथ कैसै पड़े? इन्हें किसने सौंपा? जाहिर है कि इनको हमारे ही देश से उपलब्ध कराया गया। बिना भीतरी मदद और बिना भितरघात के ऐसा सम्भव ही नहीं है कि किसी वर्ग विशेष के फोन नं. इतनी बड़ी संख्या में देश के बाहर बैठे लोगों को उपलब्ध हो सकें। यह दो-चार दिन का काम नहीं हो सकता इसके लिए पूरी रणनीति और तैयारी की गई होगी किन्तु सरकार की खुफिया ऐजेंसियों को भनक तक नहीं लगी। आईबी, रॉ, मिलटरी इन्टेलीजेंट,अर्ध सैनिक बलों तथा विदेश मंत्रालय का खुफिया प्रभाग सहित एक दजर्न खुफिया ऐजेन्सियां सरकार के ¶िए काम कर रही हैं किन्तु लगातार भेजे जा रहे बारूदी संदेशों और धमकियों से बे-खबर क्यों थी। यदि इन्हें जानकारी मिल गई थी तो सरकार ने समय पर प्रभावशाली कदम उठाने में इतना विलम्ब क्यों किया? चिन्तनीय है कि देश पर साइबर हमला होता है। अफरा-तफरी मचती है किन्तु सरकार समय पर प्रभावी कदम उठाने में ना कामयाब रहती है।
विमान अपहरण कांड मुम्बई में किया गया आंतकी हमला जैसे कई मौकों में सरकार समय पर फैसला लेने में विलम्ब करती रही है। केन्द्र सरकार ने सुरक्षा परिषद् बना रखी है। किन्तु जब ऐसे अवसर आते हैं तो तत्काल निर्णय करने में सरकार हमेशा पिछड़ जाती है। ऐसा लगता है कि ऐसे मौकों में भी सरकार के भीतर लालफीताशाही अपना काम करती है।
प्रशासनिक स्तर पर तालमेल की कमी भी त्वरित फैसले लेने के रास्ते में सब से बड़ी बाधा है। हमारे यहां सारा सरकारी कामकाज अंग्रेजों से विरासत में मिले नौकरशाही के ढांचे के भीतर से चलता है, जिसकी विशेषता है फैसला करने में अत्याधिक विलम्ब। किसी भी सरकार ने इस बेजान और गैर-जिम्मेवार व्यवस्था को समय और देश के अनुकूल नहीं बनाया।
हालांकि कई बार प्रशासनिक सुधार आयोग बने जरूर किन्तु आधे-अधूरे ढंग से इनका क्रियान्वय हुआ है। देश को देश के भीतर तथा देश के बाहर से आतंकवाद की चुनौती का लगभग अखंड सामना करना पड़ रहा है और चुनौतियों का रूप-स्वरूप भी बदलता जा रहा है ऐसे हालातों में सरकार को अपने खुफिया तंत्र को इस्पाती तथा भेदक बनाना होगा। हमारे देश में सूचना तकनीक के रूप में इंटरनेट का इस्तेमाल बहुत व्यापक हो गया और इस काम में हैकिंग यानी सेंधमारी भी बढ़ी है।
साइबर अपराधों के मामले में हमारा देश दुनिया के देशों में चौथे नम्बर है। इन अपराधों पर शकिंजा कसने के लिए हमारा कानून कठोर तो है, किन्तु अकेला कानून तब तक विकलांग है जब तक प्रशासनिक व्यवस्था चौकस न हो। देश की सुरक्षा के लिए खुफिया एजेंसियों की बहुत अहम भूमिका होती है। किन्तु हमारा निगरानी तंत्र और तत्काल निर्णय लेने की क्षमता कितनी चुस्त है, यह इस वारदात से पहिले भी कई बार उजागर हो चुकी है। हमारा खुफिया तंत्र चाहे वह केन्द्र का हो या राज्यों का, ठीक से अपना काम नहीं कर रहा है। बाहरी हो या आन्तरिक सुरक्षा, सभी में गैर जिम्मेवारी और टाल-टूल की प्रवृति पर लगाम लगनी चाहिए, अन्यथा देश को ऐसी कीमत चुकानी पड़ सकती है जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की होगी।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

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