Thursday, August 16, 2012

राष्ट्रीय होने का धर्म


                                               जयराम शुक्ल
खानवा के युद्ध में राणा सांगा के हमलों से पस्त बाबर ने अपने जासूसों को आदेश दिया कि यह पता लगाकर बताएं कि दुश्मन (राणा सांगा) की फौज की कमजोर "नस" क्या है? खोज-खबर के बाद जासूसों ने बाबर को बताया कि राजपूत सिपाही गोवंश की पूजा करते हैं, मर जाएंगे पर गोवध नहीं कर सकते। बाबर को विजय का रास्ता मिल गया। मुट्ठीभर सिपाहियों और बची खुची तोपों के साथ अगली सुबह युद्ध के मैदान में डट गया और हां अपनी सेना की ढाल के रूप में इस्तेमाल किया मवेशियों के रेहड़ का। सामने "गऊमाता" को देखकर राजपूतों के हथियार ढीले पड़ गए, उधर तोप गरजाती बाबर की सेना आगे बढ़ने लगी। हम गोवध के पाप से बच गए लेकिन "राष्ट्र" हार गए। धर्म की रक्षा हुई पर राष्ट्र पराजित हो गया।
एक सैलानी जापान घूमने गया। उसने एक युवक से पूछा-तुम्हारा धर्म क्या है? युवक ने जवाब दिया-बौद्ध। और तुम्हारे भगवान? जवाब हाजिर था-भगवान महात्मा बुद्ध। सैलानी ने फिर प्रतिप्रश्न किया-फर्ज करो कि भगवान बुद्ध जापान पर हमला कर दें तो! युवक ने जवाब दिया-तो क्या ...हम तलावार से उनका शीश काट लेंगे।
धर्म बड़ा है कि राष्ट्र, यह बहस अनादि काल से चली आ रही है।आज वैश्विक परिदृश्य में देखें तो वही देश समुन्नतशील, सम्पन्न और मजबूत है जिनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि है। धर्म की सत्ताएं राष्ट्र को नहीं संभाल सकती। खाड़ी देशों में क्यों जाएं-अपना पड़ोसी देश पाकिस्तान, धार्मिक कट्टरपंथ और धर्मभीरुता की वजह से ही दुनिया का घोषित विफल राष्ट्र है। यहां के सभी आतंकवादी संगठनों की ढाल धर्म है। राष्ट्र रहे या जाए, जेहाद कामयाब होना चाहिए। धर्म के नाम की सत्ता हमेशा ही राष्ट्रद्रोह का पथ प्रशस्त करती आयी है। अपने भारत में भी.. आज भारत की भी सबसे बड़ी समस्या कथित धार्मिक सत्ताओं का राष्ट्र से टकराव को लेकर है। हमारे स्वार्थी और मौकापरस्त राजनेता राष्ट्रीय हितों को ताक पर रखकर धर्म की रौ में बह जाते हैं। सत्ता की सरपरस्ती में बाबरी मस्जिद ध्वंस कर दी जाती है। गोधरा कांड हो जाता है। दिल्ली में सिखों का कत्लेआम होता है। धर्म की तहरीरों के आधार पर संविधान बदल दिया जाता है। समानता के मौलिक अधिकारों का दमन होता है। दुर्भाग्य से धार्मिक और साम्प्रदायिक कट्टरता आज भी उस भारत नाम के राष्ट्र के हृदय से मबाद की तरह रिस रही है, जिस भारत की एक मर्दानी नेता ने दुनिया के सामने यह साबित करके दिखा दिया था कि राष्ट्र के ऊपर धर्म की सत्ता बर्दास्त नहीं की जा सकती। हां..राष्ट्रद्रोही कट्टरपंथियों द्वारा बंकर में तब्दील कर दिए गए स्वर्ण मंदिर पर तोप के गोले दागने का माद्दा सिर्फ और सिर्फ इंदिरा गांधी में ही था। इंदिराजी को उसका परिणाम भी मालूम था और अन्तत: वहीं हुआ भी। लेकिन सिखों के कत्लेआम ने इंदिराजी के बलिदान की पवित्रता को नष्ट कर दिया।
देशभक्तों ने हमेशा ही राष्ट्र को धर्म से ऊपर रखा। गणोश शंकर विद्यार्थी जैसे प्रखर सेनानी हुए जो कानपुर के दंगे में मुस्लिम भाइयों की रक्षा करते शहीद हुए। उनकी शहादत पर महात्मा गांधी ने कहा था "काश ऐसी मौत मुङो नसीब होती"। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने सदैव राष्ट्र को धर्म से ऊपर रखा। जहां धर्म आड़े आया तो मुस्लिम लीग बन गई। देश के टुकड़े हो गए। विशाल राष्ट्र के दो बाजू अलग हो गए। यहां धर्म बंटवारे का आधार बन गया। देश की सीमाएं तभी तक सुरक्षित हैं, जब तक हमारे सैनिकों के हृदय में राष्ट्र की सर्वोच्चता स्थापित है। जिस दिन यह स्थानापन्न हुई उस दिन कोई अब्दुल हमीद दुश्मन देश से लड़ते हुए शहीद नहीं होगा। राष्ट्र हमारे राजनैतिक समाज की व्यवस्था है जबकि धर्म हमारे जीवन की मर्यादाओं व प्रवृत्ति के अनुशासन को तय करता है। धर्म निजता से जुड़ा हुआ मामला है, जबकि राष्ट्र स्वयं में बहुजन सुखाय, बहुजन हिताय का व्यापक परिप्रेक्ष्य समेटे हुए है। वह सच्चा धार्मिक मनुष्य हो ही नहीं सकता जिसकी दृष्टि में राष्ट्र सर्वोपरि न हो। राष्ट्र, धर्म से पालित और संरक्षित ऐसी आत्मा है जिसके न रहने पर धर्म भी मृतदेह की भांति अनुपयोगी हो जाएगा।
महाभारत धर्म की सर्वोच्चता के लिए नहीं अपितु राष्ट्र की सर्वोच्चता के लिए रचा गया था। उसमें भी एक सहज शिक्षा सन्निहित है। चाहे अपना कितना भी सगा, संबंधी या खून के रिश्ते वाला ही क्यों न हो यदि वह राष्ट्र के आड़े आता है तो वध्य है। धर्मात्मा द्रोणाचार्य भी थे, भीष्म भी और कर्ण भी। लेकिन वे एक अराजक और विधर्मी व्यवस्था के संरक्षक थे। कृष्ण जिस धर्म की संस्थापना के लिए शंखनाद करते हैं वह कर्म-काण्डीय धर्म नहीं अपितु राष्ट्र-धर्म है। कार्ल मार्क्‍स ने धर्म को अफीम कहा। उनके इस कथन को हमेशा ही संदर्भ से काटकर उद्धृत किया गया। मार्क्‍स का आशय यह था कि धर्म वह तत्व है जिसका इस्तेमाल किसी व्यापक लक्ष्य को प्राप्त करने की विपरीत दिशा में सहजता से किया जा सकता है। धर्म निजता से जुड़ा हुआ मामला है, जिसे अहं और अस्तित्व की श्रेष्ठता से जोड़कर, बहुधर्मी देश के समाज को कई खांचों में बांटा जा सकता है। आजादी के संघर्ष के आवेग को कम करने के लिए अंग्रेजों ने धर्म व सम्प्रदाय का सहारा लिया। जाति-पांति के मसलों को उघाड़ा। धर्म-जाति और सम्प्रदाय के विषयों ने अंग्रेजों को बांटो और राज करो की सहूलियत दी।
वही सिलसिला अब भी चल रहा है। जाति व सम्प्रदाय के आधार पर राजनीतिक फैसले लिए जाते हैं। धर्म और उसके धुरंधरों का विकृत रूप सामने है। आरक्षण और आरक्षण के भीतर आरक्षण की बातें होती हैं। संविधान की इबारतें बदल दी जाती हैं। सत्तातुर राजनीतिक दलों का अपना कोई ईमान-धरम नहीं। मौकापरस्ती और भावनाओं को भुनाने के हर वे उपक्रम होते हैं, जो सत्ता के सिंहासन तक का मार्ग प्रशस्त करें। इस प्रक्रिया में राष्ट्र की आहत आत्मा की आवाज कौन सुनेगा? भारत युवाओं का देश है। स्वतंत्रता दिवस को स्मरण करते हुए राष्ट्र की निगाहें उन्हीं पर हैं। वही भारतमाता के आंसुओं की नमी महसूस कर सकते हैं। धर्म-सम्प्रदाय, जाति- पांति, कुनबों से ऊपर हम पहले राष्ट्र की सर्वोच्चता को कायम रखें क्योंकि राष्ट्र है तो हम हैं, हमारा अस्तित्व है, बाकी सबकुछ इसके बाद।

No comments:

Post a Comment