Monday, August 13, 2012

बड़ा मुंसिफ है अमरीका


जयराम शुक्ल
जिन दिनों दो ध्रुवीय विश्व में शीत युद्ध चरमोत्कर्ष पर था, उन्हीं दिनों शान्ति के लिये नोबल पुरस्कार विजेताओं ने रोनाल्ड रीगन (तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति) और मिखाइल गोबरेचोव (तत्कालीन सोवियत के राष्ट्र प्रमुख) को पत्र लिखकर अपील की थी कि "दुनिया को बचाने का सिर्फ एक ही तरीका है और वह है गांधीवाद"।
खैर सोवियत संघ के बिखरते ही शीतयुद्ध प्रकारान्तर में "वार एगेन्स्ट टेररिज्म" में बदल गया। रीगन के उत्तराधिकारी सीनियर बुश ने दंभोक्ति कही थी लाल (कम्युनिस्ट) से तो निपट लिया अब हरे (मुस्लिम कट्टरपंथ) से निपटने की चुनौती है। बिल क्लिंटन के बाद आए जूनियर जार्ज बुश ने अपने पिता के एजेन्डे को बढ़ाया। ईराक, लीबिया, सीरिया और अब अफगानिस्तान एक के बाद एक निपट रहे हैं।
ईरान और उत्तर कोरिया उसके निशाने पर हैं। उत्तर कोरिया तो हर अमेरिकी धमकी पर एक मिसाइल धमाका करता है। बेनेजुएला भी क्यूबा की भांति अमेरिका के सामने सीना ताने खड़ा है। ह्यूगो शावेज का संयुक्त राष्ट्र संघ में वह प्रखर वक्तव्य आज भी लोगों के जेहन में है, जब जार्ज बुश के भाषण के बाद डायस से दहाड़ लगाई कि हाल ही में यहां से कोई राक्षस गया है क्योंकि बारूद की गंध अभी शेष है। तख्ता पलट के बाद भी मिस्र में अशांति है, खून-खराबे का दौर जारी है। सीरिया गृह युद्ध में झुलस रहा है पाकिस्तान तबाही के मुकाम तक पहुंच चुका है। इन हरेक देशों में अमेरिका या नाटो (नार्थ एटलांटिक ट्रीटी अर्गनाइजेशन) का दखल है। पाकिस्तान, नार्थ कोरिया और ईरान के पास एटम बम है और ये एटम बम आतंकवादियों के हाथ में न पड़ जाएं इसलिए अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ युद्ध छेड़े है। शीत युद्ध के समय दुनिया अमेरिका व सोवियत संघ के खेमों में बंटी थी।
दो ध्रुवीय टकराव की ये इन्तेहा थी कि अमेरिकी परस्त देशों ने 1980 के मास्को ओलिम्पिक का बहिष्कार किया था। गुट निरपेक्ष देशों के लिए यह पैमाना था। भारत ने तब मास्को ओलिम्पिक में भाग लिया था। अमेरिका परस्त होने के नाते पाकिस्तान बाहर था। बहरहाल सोवियत संघ के बिखराव और शीतयुद्ध के समापन के बाद यह उम्मीद जगी थी कि दुनिया तनाव मुक्त होगी, चैन अमन बहाल होगा लेकिन आतंकवाद का नया सिलसिला शुरू हो गया।
अस्सी के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत फौज के दखल के खिलाफ अमेरिका ने तालिबान और अलकायदा को तैयार किया। हथियारों के साथ प्रशिक्षण दिया। अफगानिस्तान तालिबान के कब्जे में आ गया।
अमेरिकी कूटनीति की नाजायज औलाद अलकायदा और तालिबान ने जब अमेरिका के हाथों खुद के इस्तेमाल होने से मना किया तो वे आतंकवादी संगठन घोषित कर दिए गए। फिर शुरू हुआ रक्तपात का नया दौर जिसकी परिणति अमेरिका के मर्मस्थल वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर और पेन्टागन (अमेरिकी रक्षा मुख्यालय) पर अलकायदा के हमले के रूप में हुई। शीतयुद्ध के खात्मे के साथ मिटी दो ध्रुवीय विभेदक रेखा को नए शिरे से खींच दिया गया है।
अमेरिका ने दुनिया को फलसफा पढ़ाया जो देश हमारे साथ नहीं, तो वह निश्चित ही आतंकवाद के साथ है। आज फिर आतंकवाद के सवाल पर दुनिया दो खेमे में बंटी है और खूंरेजी दौर जारी है। इन सबके चलते अमेरिका खुद एक दुश्चक्र में फंसता जा रहा है और वह है नव-नात्सीवाद का। हाल ही में वहां एक गुरूद्वारे में हुए हमले का मुख्य हमलावर नव-नात्सीवाद के प्रतीक के रूप में उभरा है। तालीबान और अलकायदा से लड़ते-लड़ते अमेरिकी खुद उनके चरित्र को आत्मसात करते जा रहे हैं।
अब सवाल यह है कि अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक युद्ध जीत लेता है तो क्या विश्व में शांति आ जाएगी..? साफ जवाब है..नहीं। वजह युद्ध और औजार ही अमेरिका का व्यापार और बाजार है, वह बाजार के लिए सब कुछ जायज मानता है। भयादोहन उसका सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक एजेन्डा है और वह जिस तरह भीषण आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है, उससे उबरने के लिए युद्ध के बाजार को सजाए रखना जरूरी होगा।
अमेरिकी सत्ताधीश बाजार के प्रति कितने प्रतिबद्ध हैं, इसका एक उदाहरण आज भी चटखारे के साथ दिया जाता है। अर्थजगत के पण्डितों ने बिल क्लिन्टन और मोनिका लेवस्की प्रकरण को बाजार के साथ जोड़ा था। याद करिए यह घटना उन्हीं दिनों की है, जब "वियाग्रा" लांच होने वाली थी।
आज अमेरिका "पोर्न इन्डस्ट्री" का बेताज बादशाह है। कोई स्पष्ट आंकड़े तो नहीं हैं पर अर्थशास्त्रियों के अनुमान पर यकीन करें तो पोर्न इन्डस्ट्रीज का आकार-व्यापार और टर्नओवर एविएशन, आटोमोबाइल और आर्म्स इन्डस्ट्रीज से कई गुना बड़ा है। अमेरिका अपने बाजार की सेहतमंदी के लिए नित नए रास्ते तलाशता रहता है और उसी को वह वैश्विक एजेन्डा बना देता है। खाड़ी देशों में उसे आतंकवाद व मानवाधिकार का हनन इसलिए दिखता है क्योंकि वहां तेल है। वेनेजुएला भी इसीलिए दुश्मन है। पाकिस्तान के घर में घुसकर निहत्थे ओसामा बिन लादेन को मार गिराने और अपने विरोधियों को गुआन्तनामों के नरक में भेज देने में कोई मानवाधिकार का हनन नहीं दिखता है पर मानवता के दुश्मन लिट्टे के प्रभाकरण के मामले में वह लंका को बड़ा गुनहगार मानता है। सक्षम होने के बावजूद क्या भारत इतनी हिम्मत कर सकता है कि करांची के आलीशान बंगले में ऐश कर रहे दाऊद इब्राहीम को वहीं जाकर निपटा दे। यदि वॉर अगेन्स्ट टेरोरिज्म में वह भारत को अपना बड़ा सहयोगी मानता है, तो इसके लिए उसे आगे बढ़कर साथ देना चाहिए।
अमेरिका, भारत और पाक को एक ही नजरिए के तराजू में तौलता आया है। ये दोनों मुल्क एक होकर रहें वह कभी नहीं चाहेगा। इधर एक नेता पाकिस्तान को आतंक की नर्सरी घोषित करता है तो दूसरा अमेरिकी कांग्रेस में अरबों डॉलर की खैरात देने की पैरवी करता है। मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी दशकों पहले कह गए हैं कि "बड़ा मुंसिफ है अमरीका, ब यौमे सबको बराबर प्यार देता है। किसी को लड़ने के लिए देता है मीसाइल। किसी को बचने के लिए राडार देता है"।
अब सवाल ये है कि दुनिया जाएगी कहां? क्या होगा दुनिया को बचाने के गांधीवादी तरीके का। इस गांधीवाद को तो हम अपने मुल्क में ही खारिज करते जा रहे हैं। गांधी का अमोघ अस्त्र, सविनय अवज्ञा सत्याग्रह तो वहां काम करेगा जहां की सत्ता में हृदय और संवेदनाएं साबुत बची होंगी। सत्ता का अमेरिकी मॉडल हृदयहीनता और भोथरी संवेदनाओं का है। हम इसी मॉडल के मुरीद हैं। इस मॉडल में गांधीवाद, सुराज, रामराज्य की गुंजाइश ही कहां। यहां गरीब, आदमी नहीं आंकड़ों की इकाई है। सो गांधीवाद में विश्व शांति का फार्मूला तलाशने वाले, नोबल शांति विजेताओं अपनी अपील का असर भूल जाओ, क्योंकि नई विश्व व्यवस्था में बाजार और व्यापार के लिए सब कुछ जायज है..युद्ध भी और आतंकवाद भी।

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