Friday, August 31, 2012

लम्हों की खता, सदियों की सजा


चिन्तामणि मिश्र

असम में भड़की जातीय हिंसा की प्रतिक्रिया में मुम्बई, कानपुर, इलाहाबाद और बरेली आदि कई शहरों में हिंसक प्रदर्शन हुए और गोलीबारी भी। इसी के साथ दक्षिण के कई राज्यों से पूर्वोत्तर के लोगों ने थोकबन्द अपने गृह प्रदेश के लिए पलायन किया, यह चिंतनीय और दुखदायी है। इसके पीछे कुछ शरारती तत्वों द्वारा भेजे गए एसएमएस और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों के जरिये उन्हें दी गई धमकियों का प्रत्यक्ष हाथ था। यह अजीब लग सकता है कि केवल अफवाहों और अनजानी धमकियों के कारण भागने का सिलसिला शुरू हो गया। राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार के समझने और सुरक्षा का वायदा करने पर भी लोग भागते रहे। जाहिर है कि लोगों को सरकार के वायदों पर विश्वास नहीं हो रहा था। सरकार और देश के लिए यह खतरनाक स्थिति है। प्रधानमंत्री और उनके गृहमंत्री कहते हैं कि ऐसे संदेश पाकिस्तान से भेजे गए हैं और सरकार ने इन सभी वेबसाइटों को ब्लॉक कर दिया है। सरकार ने यह कदम पलायन शुरू होने के तीन दिन बाद उठाया। सोशल मीडिया के जरिए भारत पर ऐसा प्रभावी हमला था यह, कि सरकार भौचक्की और लकवाग्रस्त दिखाई दी। इन अफवाहों और झूठे संदेशों के दंश में अफरा-तफरी मचा दी। सामूहिक पलायन और हिंसक दंगों की घटनाओं से केन्द्र सरकार फ्रीज हो गई थी और जब साइबर हमला अपना काम कर चुका तो सरकार बयान दे रही थी कि हमने इन साइटों की पहचान कर ली है और इन्हें ब्लॉक कर दिया है। कितनी लाचार और गैरजि म्मवार है हमारी सार्वभौमिक तथा सम्प्रभुता सम्पन्न सरकार कि उसे इन संदेशों की तीन दिन तक जानकारी नहीं मिली। जब देश के दुश्मन अपना काम कर चुके तब सरकार कोमा से बाहर आती है और सांप के निकल जाने पर लकीर पीटती है।
असम के कोकराझर,धुबरी और चिरांग जिलों में जातीय हिंसा से बहुत से घर जला दिए गए। बड़ी संख्या में लोग मारे गए, घायल हुए और करीब चार लाख लोग राहत शिविरों में संदेह,भय और तनाव के साथ रह रह हैं। यहां पहले दिन से ही जिला प्रशासन हालात पर काबू करने में असफल रहा। इतनी व्यापक स्तर पर की गई हिंसा का उसे पूर्व संज्ञान तक नहीं था। सेना बुलाने का फैसला भी दो दिन बाद लिया गया। यह प्रशासनिक लापरवाही थी। किसी भी समस्या को गैर जिम्मेवारी और टालू तरीके से निपटाने की प्रवृति शासन और प्रशासन की आदत बन गई है। देश में इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से विस्फोटक अफवाहें, आंतककारी मैसेज आते रहे।
अब हमारे देश के महाप्रभु यह बता रहे हैं कि यह कारनामा पाकिस्तान से किया गया है और इन साइटों को ब्लॉक कर दिया गया है। देश को यह भी जानने का हक है कि सरकार और सरकार के कारकुन इसको रोकने और इसके फैलाव को सीमित करने के लिए पहले दिन ही प्रभावी कदम उठाने में असफल क्यों रहे? केन्द्र सरकार के पास साइबर मामलों के लिए अलग से विभाग है। इसका बजट कई अरब रुपए का है।
आखिर तेरह अगस्त को ही जब ऐसे शरारती संदेश बड़ी तादाद में आने लगे थे तो इन्हें रोकने और ब्लॉक करने का काम क्यों नहीं किया गया? तीन दिन तक सरकार क्या कर रही थी। इसी कड़ी में यह भी बड़ा विचित्र लगता है कि दक्षिण के अलग-अलग शहरों में रहने वाले पूर्वोत्तर के निवासियों के सेल फोन नम्बर शरारती लोगों के हाथ कैसै पड़े? इन्हें किसने सौंपा? जाहिर है कि इनको हमारे ही देश से उपलब्ध कराया गया। बिना भीतरी मदद और बिना भितरघात के ऐसा सम्भव ही नहीं है कि किसी वर्ग विशेष के फोन नं. इतनी बड़ी संख्या में देश के बाहर बैठे लोगों को उपलब्ध हो सकें। यह दो-चार दिन का काम नहीं हो सकता इसके लिए पूरी रणनीति और तैयारी की गई होगी किन्तु सरकार की खुफिया ऐजेंसियों को भनक तक नहीं लगी। आईबी, रॉ, मिलटरी इन्टेलीजेंट,अर्ध सैनिक बलों तथा विदेश मंत्रालय का खुफिया प्रभाग सहित एक दजर्न खुफिया ऐजेन्सियां सरकार के ¶िए काम कर रही हैं किन्तु लगातार भेजे जा रहे बारूदी संदेशों और धमकियों से बे-खबर क्यों थी। यदि इन्हें जानकारी मिल गई थी तो सरकार ने समय पर प्रभावशाली कदम उठाने में इतना विलम्ब क्यों किया? चिन्तनीय है कि देश पर साइबर हमला होता है। अफरा-तफरी मचती है किन्तु सरकार समय पर प्रभावी कदम उठाने में ना कामयाब रहती है।
विमान अपहरण कांड मुम्बई में किया गया आंतकी हमला जैसे कई मौकों में सरकार समय पर फैसला लेने में विलम्ब करती रही है। केन्द्र सरकार ने सुरक्षा परिषद् बना रखी है। किन्तु जब ऐसे अवसर आते हैं तो तत्काल निर्णय करने में सरकार हमेशा पिछड़ जाती है। ऐसा लगता है कि ऐसे मौकों में भी सरकार के भीतर लालफीताशाही अपना काम करती है।
प्रशासनिक स्तर पर तालमेल की कमी भी त्वरित फैसले लेने के रास्ते में सब से बड़ी बाधा है। हमारे यहां सारा सरकारी कामकाज अंग्रेजों से विरासत में मिले नौकरशाही के ढांचे के भीतर से चलता है, जिसकी विशेषता है फैसला करने में अत्याधिक विलम्ब। किसी भी सरकार ने इस बेजान और गैर-जिम्मेवार व्यवस्था को समय और देश के अनुकूल नहीं बनाया।
हालांकि कई बार प्रशासनिक सुधार आयोग बने जरूर किन्तु आधे-अधूरे ढंग से इनका क्रियान्वय हुआ है। देश को देश के भीतर तथा देश के बाहर से आतंकवाद की चुनौती का लगभग अखंड सामना करना पड़ रहा है और चुनौतियों का रूप-स्वरूप भी बदलता जा रहा है ऐसे हालातों में सरकार को अपने खुफिया तंत्र को इस्पाती तथा भेदक बनाना होगा। हमारे देश में सूचना तकनीक के रूप में इंटरनेट का इस्तेमाल बहुत व्यापक हो गया और इस काम में हैकिंग यानी सेंधमारी भी बढ़ी है।
साइबर अपराधों के मामले में हमारा देश दुनिया के देशों में चौथे नम्बर है। इन अपराधों पर शकिंजा कसने के लिए हमारा कानून कठोर तो है, किन्तु अकेला कानून तब तक विकलांग है जब तक प्रशासनिक व्यवस्था चौकस न हो। देश की सुरक्षा के लिए खुफिया एजेंसियों की बहुत अहम भूमिका होती है। किन्तु हमारा निगरानी तंत्र और तत्काल निर्णय लेने की क्षमता कितनी चुस्त है, यह इस वारदात से पहिले भी कई बार उजागर हो चुकी है। हमारा खुफिया तंत्र चाहे वह केन्द्र का हो या राज्यों का, ठीक से अपना काम नहीं कर रहा है। बाहरी हो या आन्तरिक सुरक्षा, सभी में गैर जिम्मेवारी और टाल-टूल की प्रवृति पर लगाम लगनी चाहिए, अन्यथा देश को ऐसी कीमत चुकानी पड़ सकती है जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की होगी।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

व्रतों-उत्सवों के कुछ निहितार्थ


चंद्रिका प्रसाद चंद्र
अपना भारत,त्यौहारों, व्रतों और उत्सवों का देश है। अन्य किसी भी देश में इतने उत्सव नहीं मनाए जाते। उत्सवधर्मिता मनुष्य के नित-नूतन जीवंतता का प्रमाण है। आनंद मनुष्य जीवन का सवरेत्तम भाव है। अधिकतर व्रत-उपवास स्त्रियों के ही भरोसे हैं, इन उपवासों में उन्हें कष्ट होता है, यदि वे इन व्रतों के प्रति एक दिन भी असमर्थता की उंगली उठा दें तो उत्सवों की धरती डगमगा जाएगी। लेकिन वे ऐसा नहीं करेंगी क्योंकि भक्ति, आस्था और विश्वास की गठरी उन्हीं को पुरुषों ने देकर मुक्ति पा ली है। हर हफ्ते कोई न कोई व्रत करना उनकी नियति है और उस स्थिति में भी सुस्वाद और मधुर भोजन अन्यों के लिए तैयार करने की जिम्मेदारी भी उन्हें ही उठानी है। फिर भी वह अर्धागिनी है, दूसरा अंग केवल भोजनार्थी है। भादौं के कृष्ण पक्ष की छठ, बलराम जयंती, हलछठ (हलषष्ठी) के रूप में मनाई जाती है। रेवांचल में भाई के लिए बहुला चौथ, पति के लिए हरतालिका (तीजा), पुत्र के लिए हलछठ के व्रत उपवास रखे जाते हैं। जिन बहनों के भाई हैं वे व्रत के दिन शाम को पूजा अर्चना के बाद फूला चना शुद्ध घी में तलकर सेंधा नमक डालकर उद्यापन करती हैं और जाै की रोटी खाती हैं। हरतालिका का व्रत निजर्ला और सबसे कठिन होता है। रात भर जागकर उत्तम पति पाने और पाये हुए को अगले जन्म में भी पाने की आशा का व्रत। पाये हुए से मुक्ति पाने का कोई भी व्रत नहीं- ˜अब तो सब शीश चढ़ाए लई,जो कछु मन भाइबे से कीजिए यूं ही एक मात्र आधार शहीदी अंदाज में यह सब वे करती हैं। कभी करवा, कभी तिलवा चौथ तो कभी संतान सप्तमी, हर पखवाड़े एकादशी-तेरस अलग से।
संस्कृति की एकमात्र संरक्षक स्त्रियां हैं। वे हाथ उठा दें, संस्कृति भरभरा जाएगी। व्रतों के भी सामाजिक और पर्यावरणीय निहितार्थ हैं।
हलषष्ठी के दिन, माताओं का पुत्र के दीर्घायु होने का व्रत, (पुत्री के लिए कोई व्रत नहीं) जोते हुए खेत में नहीं जाना, बोए हुए का फल नहीं खाना, पालतू पशुओं में सबसे निरादृत पड़वा (पाड़ा) के मां (भैंस) के दूध के दही से कांस-बेर-छिउला एवं पूजास्थल की लोकविधि से पूजा करने का विधान कबीर के हठयोग से भी कठिन है। भारतीय कृषि-संसार में सबसे उपेक्षित पड़वा को भी एक दिन ढूंढ़ा जाता है और उस पुत्रवती भैंस पर भी क्षण भर के लिए रश्क किया जाता है। मनुष्यों में भले ही पुत्रों से वंश परम्परा का चलन हो, पशुओं की वंश-परम्परा पुत्रियों से ही चलती है। बछिया और पड़िया ही गाय और भैंस की सल्तनत बढ़ाते हैं। गाय और भैंस का थोड़ा दूध क्रमश: बछिया और पड़िया के लिए छोड़ देते हैं, ताकि वे स्वस्थ रहें और दो तीन साल बाद किसान के काम आएं। पड़वा (पाड़ा) को तभी तक भैंस के थनों में लगे रहने देते हैं, जब तक दूध थनों में उतरता है, जैसे ही वह चूसने लगता है उसे अलग किसी खूंटे से बांध देते हैं। लोक में एक कहनूति है-किसी ने पाड़ा से पूछा-तुम्हारी मां का दूध कैसा है। उसने जवाब दिया-थाम्हा (जिसमें बंधा था) जैसा। कुसंग में पड़े मनुष्य जिसके उठने-बैठने के कुछ निश्चित अड्डे बन गए हों, उसके लिए लोकोक्ति है- भैंसा भैंसों में या कसाई के खूंटे में। मूर्ख व्यक्ति को भी निरा पड़वा कहकर संतुष्ट हुआ जाता है। भैंसों की लड़ाई प्रसिद्ध थी। कभी शिकारियों की मचान के पास भैंसा बांधकर शेर के शिकार की परम्परा थी। पशुओं में अलमस्त यह जीव यमराज का वाहन है। लोक में भैंसासुर देव की तरह पूजित है। चरवाहा युग (कृष्ण युग) में कृष्ण की बंशी ने सभी चर-अचर को स्तंभित किया, अनेक पशु-पक्षियों-जीवों के मुग्ध होने की बात मिलती है लेकिन कहीं भैंस के तल्लीनता की आहट काव्यों में नहीं मिलती। शायद इसीलिए कहावत बनी हो कि भैंस के आगे बीना बाजै ठाढ़ि भैंस पगुराय ऐसी वीतरागिता सिर्फ ज्ञानियों ध्यानियों में ही हो सकती है परंतु कृष्ण की वंशी पर तो ध्यानियों का ध्यान भी छूट गया था। भैंस ज्ञानी है, उस पर फर्क नहीं पड़ा। वैसे भी ज्ञानियों पर कब, किसी की बात का असर पड़ा हो, प्रमाण कहां मिलता है? हलछठ की अनेक लोककथाएं हैं। अपने अपने अंचल में अपनी तरह से कही जाती हैं। खेत जोतते किसान के हल के फाल से झुरमुट में छिपाकर रखे ग्वालिन के बच्चे की मृत्यु और उसे उन्हीं कांटों से मिलकर जिलाने के दिन से लोक में हलछठ के दिन गाय-बैल की जगह भैंस-पड़वा की स्थापना और जोते हुए खेत में न जाने की परम्परा का बीज पड़ा होगा। पाड़ा बड़ा होकर भैंसा कहलाया। भैंसा ताकत का प्रतीक है, भैंस की तुलना में अधिक सुंदर भी होता है। मनुष्य ने स्त्रियों की सुन्दरता के मानक भले ही गढ़े हों।
पुरुष अधिक सुन्दर होता है। पशु पक्षियों और जानवरों में सिंहनी से सिंह, गौरेया से गौरबा, मादा बाज से नर बाज, मोरनी से मोर, गीदड़ी से गीदड़, गाय से बैल और भैंस से भैंसा अधिक सुन्दर होते हैं। निरीहों और अनाथों के नाथ सदैव भोलेनाथ शिव शंकर रहे। वे पशुपतिनाथ हैं, बैल की सवारी करते हैं, मूषक, मोर, सर्प से संयुक्त उनका परिवार, लेाक जीवन का सहचर है।
महाभारत के युद्ध समाप्ति के बाद- शेष जो था रह गया कोई नहीं।
एक वृद्धा एक अंधे के सिवा। युधिष्ठिर को आत्मग्लानि हुई। विज्ञ थे, लोकापवाद अपनों की हत्या का अलग से था। उनकी हर समस्या के समाधान द्वारिका चले गए। अपनी करनी का प्रायश्चित करने के लिए पाण्डवों को अकेले हस्तिनापुर छोड़ गए। पाण्डवों ने चिरशांति के लिए स्वर्गारोहण किया। आर्यावर्त के चक्रवर्ती राजा का अभिषेक करने कोई नहीं आया। श्रीराम ने सरयू में समाधि ली, कृष्ण हिरण्य नदी (प्रभाष) में समाधिस्थ हुए। पाण्डव हिमालय की कन्दराओं के बर्फीले इलाके में स्वर्ग जाने के लिए चले। हिमालय भगवान शिव का परिक्षेत्र था। उनसे मिलने की उत्कट चाह हृदय में संजोये पाण्डव शिव की तलाश में थे। शिव उनको दर्शन देना नहीं चाहते थे, वे लोक देवता थे, और पाण्डवों की लोक निन्दा कर रहा था। भैंसों का एक झुण्ड पाण्डवों को दिखाई पड़ा। पाण्डवों ने उन भैंसों का पीछा किया। शिव, भैंसों के उस झुण्ड में भैंसे के रूप में शामिल थे। भैंसा बड़ी सतर्कता से दाएं-बाएं देखता भाग रहा था। दूसरों की अपेक्षा बलशाली लग रहा था। महाबली भीम को उस पर संदेह हुआ, वे उसके पीछे दौड़े।
जब तक भीम ने भैंसे की पीठ पकड़ी तब तक सींग सहित भैंसे का सिर और धड़ बर्फ की कंदरा में घुस चुका था। पृष्ठ भाग भीम ने पकड़ लिया, कहते हैं कि वही पृष्ठ भाग केदारनाथ कहलाया, जिसे द्वादश ज्योतिर्लिगों में एक माना जाता है। पीठ, लिंग कैसे कहलाया, यह आस्था का सवाल है। लेकिन यह क्या कम है कि एक अनादृत जीव भैंसा, शिव का संसर्ग पाकर तीर्थ बन गया। लोक का पाड़ा केदारनाथ बन पूजित हो गया।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430. 

Wednesday, August 29, 2012

वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे

चंद्रिका प्रसाद चंद्र
आकाशवाणी से जगजीत सिंह का गाया मगर मुझको लौटा दो, बचपन का सावन। वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी गीत बज रहा है। पढ़ना बंद हो गया और मन, गीत के बोल, उसके अंतरा और जगजीत की पुरकशिश आवाज में अटक गया। दिल उदास हो गया। गायक भी चला गया, बचपन भी चला गया। रिमही कहनूत है- भरी जवानी मांझ ढील ऐसी जवानी बिना चढ़े ही बीत गई। बुढ़ापा आ गया, सरकारी नौकरी से रिटायर होने का अर्थ है, कार्यक्षमता का कम होना (दीगर है कि अपने देश के नेताओं की जवानी अक्सर बुढ़ापे में चढ़ती है) बुढ़ापे से बचपन बहुत सुन्दर दिखाई पड़ता है। उस दहलीज पर, नाती पोतों की बाल हरकतें देखकर, अपना बचपन जिनको याद न आए वे मनुष्य नहीं हैं। प्रेमचन्द ने बूढ़ी काकी कहानी की शुरुआत ही बुढ़ापा, बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है वाक्य से की है। बच्चों के प्रति वृद्धों के प्रेम का मनोविज्ञान शायद यही है कि उन्हें अपना बचपन याद आता है, इसीलिए उनका लगाव पुत्रों से अधिक पौत्रों से होता है। दार्शनिक कहते हैं कि जिन्दगी तीन घंटे की है, बचपन, जवानी और बुढ़ापा। ईश्वर यदि कहीं-किसी सगुण रूप में है तो वह सिर्फ बचपन में है। छोटे-बड़े, जाति- पांति का विभेद तो बड़े होने की देन है। छुटपन में एक दूसरे से लिपटना, चूमना, लात-हाथ मारना, झगड़ना, रोना-हंसना, रूठना-मनाना और बड़े होते ही जाति-धर्म बताकर उन्हें एक दूसरे से अलग कर देना, ईश्वरत्व से अलग कर देना है। इतने निश्छल, निद्र्वन्द, कुन्ठामुक्त-वजर्नाहीन बचपन को याद करना आत्म अन्वेषण करना है, जो मनुष्यता का चरम शिखर है।
वे पिढ़ई-पाटी के दिन थे। घोट्टी-पोत्ती अब नहीं रही। इनकी भौतिक उपस्थिति नदारद है। पाटी को चिमनी के धुंए से काले आले को एक छोटे गोल कपड़े से पोंछकर पोता जाता। सूखने पर उसे घोटनी से घोटकर इतना चमकाया जाता कि पाटी पर चेहरा दिखने लगता। उस पाटी पर बोरिका से भरी पारदर्शी छूही में डूबकर जब मूंज की कलम से अक्षर उतरते, उसकी चिकनाहट और सुन्दर लिखावट पर गुरुजी की प्रशंसा, विद्यार्थी को और भी प्रतिस्पर्धी बना देती थी। प्राथमिक शिक्षा, लिखावट की सुन्दरता, शुद्धता, पाठ पढ़ाना, पाटी पर ही लिखना, जोड़-बाकी, गुणा-भाग, सवैया-पौना, अढै़या, डेढ़ा की थी। जिसकी जीवन के हर कदम पर उपयोगिता थी।
मिडिल तक कागज नसीब होता था। अभ्यास पेंसिल से कागज पर होता था।
बाद में रबर से उसे मिटा दिया जाता और दूसरे रफ कार्य होते। रास्ते में किसी पेड़ की छाया में बैठकर सबक पूरा करके खेलते-कूदते घर पहुंचते। खाना खाते और फिर शेष सबक पूरा करते इसलिए कि रात को दिया जलता!
मिट्टी का तेल किन्हीं-किन्हीं घरों में होता। शाम को खरकौनी पर पशुओं के चरी से वापस आने की प्रतीक्षा। घर के कामों में हाथ बंटाना भी पढ़ाई से अलग नहीं था। गाय-भैंसों को दुहवाना, बैलों को भूसा-पानी देना, ढील कर खेतों तक पहुंचाने में कोई कोताही नहीं। लौटकर सबक याद करना, एक गगरा पानी सिर पर डाल, नहाने को स्नान कहना, जल्दी से कपड़ा पहनते हुए खाना और बस्ता लेकर स्कूल भागने के दिन, स्कूल जाते हुए लड़कों को देखकर अनायास याद आते हैं।
शिक्षक (गुरुजी) मात्र अध्यापक नहीं थे, मां-बाप भी थे। दण्ड के नाम पर सांटी होती थी, उसे विद्यावर्धिनी कहते। हाथ लाल हो जाते, परंतु मां-बाप से कभी शिकायत करने की हिम्मत नहीं पड़ी। यदि कहीं पता चल गया तो घर में भी पिटाई। परंतु घर की पिटाई की खबर सुन वही शिक्षक घर वालों को बच्चों के पक्ष में डांटने आते। वे गुरुजी लोग सच्चे अर्थो में राष्ट्रनिर्माता थे। गांव में डेरा रहते, नियमित समय से आते। छुट्टी होने के बाद विद्यार्थियों को खेल सिखाते, साथ में खेलते। स्कूल बंद होने का सन्नाटा कहीं नहीं दिखता था। वर्षा में अक्सर भीगना पड़ता परंतु भीगने के कारण सर्दी-जुकाम, बुखार कभी नहीं हुआ। आजादी के एक दो दशक बाद की, देश के गांवों की यही पढ़ाई थी। भाई राम सहाय बताते हैं कि एक दिन के एक सहपाठी की ड्राइंग बनाने में मदद कर दी। उसने पेंसिल दे दी। शाम को मां ने चित्र बनाते देख पूछ लिया-पेंसिल कहां पाए, किसी की चुराए क्या? उन्होंने बताया-मित्र ने दिया है। मां की आंखों में आंसू आ गए। पढ़ी लिखी नहीं थी, लेकिन जब वे पढ़ते थे, वे उनकी कापी देखती, अक्षरों पर हाथ फेरती-कहती तुम्हारी लकीर सीधी नहीं है। बोली-कल उसकी पेंसिल दे देना, वह किससे चित्र बनाएगा। इस सद्भाव और बेबसी पर वे रोने लगे।
मां ने कहा था- बेटे! ऐसे भाव वक्त के बदलाव के साथ लुप्त हो गए। जिस दिन हाफ टाइम छुट्टी हो जाती, उस दिन दो बजे से शाम तक स्कूल के मैदान में फुटबाल खेलते बीत जाता। पानी में दो हाथ भी गेंद न जाती लेकिन खेल जारी रहता न थकान न भूख। भूख तो घर देखकर लगती। घर देर से पहुंचने का दण्ड अलग से मिलता। मां चिड़ियों की तरह ढंक कर गोद में बैठाकर रूखा-सूखा जो खिलाती, उस खाने सा सुख, आज सब साधन होने के बाद भी नहीं मिला। एक कौर और कहने वाले शब्द मां के साथ चले गए। वक्त कभी वापस नहीं आता, उसका स्यापा करना भी उचित नहीं कहलाता, परंतु ऐसा महसूस होता है कि वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे।
बचपन में एक घर था जिसमें मां-पिता, दादा-दादी, काका-काकी, भाई- बहन सारे नाते-रिश्ते उसी समय समङो गए। अब मकान है जिसमें सभी अकेले रह रहे हैं, अपने -अपने अहं के साथ, अपने अपने स्वर्ग में।
हमारे पौराणिक नायकों को भी अपना बचपन कभी नहीं भूला। राम को अवध नहीं भूला, सरयू नहीं भूली। गोपियों को उद्धव ने कितना समझया। कृष्ण की उन सारे खेलों(लीला) को भूलने की बात कही। उद्धव से कृष्ण भी कह बैठे- ऊधौ! मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं। जबहि सुरति आवति वा सुख की, जिउ उमगत तन माहीं। ग्वाल-बाल सब करत कोलाहल, नाचत गहि गहि बाहीं। वे सुरभी, वे बच्छ-दोहनी, खरिक दुहावन जाहीं। बचपन को भुलाना अपने को भुलाना है। कवियों ने तो बचपन के लौटाने तक की मांग की है। परंतु क्या कभी बीता हुआ पल लौटा है। अब बचपन के सपने शेष हैं। सपनों को याद रखना अपनों को याद रखना है। बचपन मुग्ध करता है, उसकी यादें सारे अहंकार को ध्वस्त करती हैं। यह तो आइना है जिसे जवानी तोड़ देना और वृद्धता सुरक्षित रखना चाहती है इच्छा होती है कि बिना इसके लौटे भी यह गीत निरंतर बजता रहे- ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी.....।- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430 

इधर कुआं और उधर खाई

चिन्तामणि मिश्र

खुदरा व्यापार में विदेशी इजारेदारी के लिए बोतल में बन्द भूत के बाहर आने की खार ने देश के छोटे और मझोले खुदरा दुकानदारों को फिर सड़कों पर उतर कर विरोध करने का काम दे दिया है।
यह हकीकत है कि सरकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत में खुदरा व्यापार करने का न्यौता दे चुकी है।
सरकार, विदेशियों की बारात के स्वागत हेतु लाल कालीन बिछाए, हाथों मे स्वागत की फूल माला लिए आकुल-व्याकुल हो रही है। विदेशी बारातियों के आगमन में थोड़ा विलम्ब इसलिए हो रहा है, क्योंकि देश में अभी विरोध के स्वर उठ रहे हैं अस्तु अच्छे तथा शुभ मुहूर्त का इन्तजार हो रहा है। सरकार विदेशी खुदरा व्यापार के पक्ष में दलील देती है कि अभी देश में बिचालियों के कई स्तर होने से कीमतें बढ़ती हैं और उत्पादन करने वाले को उसके उत्पादन की सही कीमत नहीं मिलती है। सरकार का दावा है कि विदेशी स्टोर खोलने से देश में रोजगार बढ़ेंगे। ऐसे फैसले लेने वाले जमीनी हकीकत से या तो अनजान हैं या फिर जानबूझ कर सच्चाई छिपा रहे हैं। हमारे देश का खुदरा व्यापार मामूली नहीं है। असंगठित क्षेत्र में कृषि के बाद खुदरा व्यापार सबसे ज्यादा रोजगार उपलब्ध कराता है। हमारे यहां खुदरा व्यापार ऐसा कौशल है जिसे सीखने के लिए मोटी फीस चुका कर किसी बिजनेस स्कूल में जाने की जरूरत नहीं है। थोड़ी पूंजी, निजी कौशल से खुदरा व्यापार शुरू हो जाता है। इसके लिए किसी विदेशी निवेश की जरूरत भी नहीं है। इस समय लगभग चार करोड़ खुदरा दुकानदार हैं, जो विदेशी स्टोरों के आ जाने से तबाह हो जाएंगे। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अधिक से अधिक एक करोड़ लोगों को नौकरी देंगी। इसमें भी सन्देह होता है, क्योंकि इन रिटेल स्टोरों का आधे से ज्यादा काम मशीनों के जरिए होगा।
जहां तक किसानों और अन्य उत्पादकों को अधिक या फिर बाजिब कीमत मिलने की बात है तो ऐसा होना नहीं है। गन्ना उत्पादक किसानों को चीनी मिलें कितना मुनाफा कमाने दे रही हैं, यह सभी को मालूम है। जब बाजार में कुछ संगठित ताकतें ही उत्पादन खरीदने के लिए बचेंगी तो किसान की मोलभाव करने की क्षमता घटेगी और किसान असहाय हो जाएगा। यह पूरी तरह से झुनझुनेबाजी है। विदेशी कम्पनियों को चुनौती देने के लिए बाजार में देशी खुदरा दुकानें सक्षम नहीं हो सकती हैं। मुकाबले के लिए इनका खड़ा हो पाना ही सम्भव नहीं है। वे आपस में अपना फेडरेशन बना कर देशी दुकानदार को हर कदम पर रगेद-रगेद कर बाजार के बाहर कर देंगी। उपभोक्ता भी इन विदेशी स्टोरों के रहमोकरम पर अपनी जेबें कटवाएगा। अभी खाद, बिजली, सीमेन्ट, पैट्रोल, डीजल, रसोई गैस में उपभोक्ता के साथ दिन-दहाड़े ऐसी डकैती हो रही है जिसकी रपट किसी भी थाने में नहीं लिखी जाती और सरकार टुकुर-टुकुर तमाशा देख रही है।
विदेशी खुदरा स्टोर की मालिक कम्पनियों को उपभोक्ता के पक्ष में हड़काने तक का धतकरम करने की हिम्मत सरकारों में आएगी, इस पर किसी को भरोसा नहीं है। यह हकीकत है कि हमारे देश में दैनिक उपभोक्ता वस्तुओं की मूल्य वृद्धि में बिचौलिए-दलालों का भी बहुत बड़ा हाथ है। खेतों से सब्जी जिस कीमत पर बाहर आती है वह किचन तक आते-आते दस गुना तक महंगी हो जाती है। लेकिन भारतीय खुदरा व्यापार से बिचौलियों का खातमा कर पाना ना-मुमकिन होगा। हां यह जरूर होगा कि गन्दी परदनी- कुर्ता पहनने वाले बिचौलियों की जगह बहुराष्ट्रीय कम्पनियां टाई, बेल्ट, सूट, बूट वाले बिचौलिये रखेगी। करोड़ों रुपये लेकर फिल्मी सितारे और क्रिकेट के खिलाड़ी इन कम्पनियों का प्रचार करने के लिए ब्रान्ड एम्बेस्डर होंगे। अभी देशी खुदरा बाजार में आलू चिप्स साठ से सत्तर रुपए प्रति किलो बिक रहा है और यही आलू चिप्स बहुराष्ट्रीय कम्पनिया एक हजार रुपए प्रति किलो की दर से हमारे देश में बेच रही हैं।
हमारे देश में आर्थिक प्रगति कृषि और उद्योग के सहारे नहीं, सेवा क्षेत्र के भरोसे होती है। सर्वाधिक जनसंख्या को जो अपना जीवन-यापन सेवा क्षेत्र में ही तलाशना हो तो, खुदरा क्षेत्र को बड़ी कम्पनियों के हवाले करने का फैसला गरीबों को भिखारी बनाने का षड़यंत्र है। कठिनाई तो यह है कि इतनी बड़ी तादाद में इनको भीख भी कौन देगा? हमारे प्रधानमंत्री माने हुए अर्थशास्त्री हैं। लेकिन उनके अर्थशास्त्र में अमीर तो मुटिआते (मोटा होना) जा रहे हैं और गरीब सूख कर छुहारा जैसा हो रहा है। उधर भारतीय खुदरा कम्पनियां भी विदेशी कम्पनियों से साङोदारी करने का ताना-बाना बुन चुकी हैं। वे भी अपने विदेशी साथियों के साथ मुनाफा पीटने के लिए लार बहा रही हैं। यही कारण है कि घरेलू धन्ना सेठ खुदरा बाजार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने की जम कर पैरवी कर रहे हैं।
इस देश का किसान हो या फिर छोटे दस्तकार और छोटे व्यापारी- दुकानदार हों सभी को मनमोहनी-अफीम चटा-चटा कर विदेशी और देशी कम्पनियों को लूटने का मौका देने के लिए रास्ते से बाहर धकेला जा रहा है। संविधान में सब को समानता की गारंटी दर्ज है। लेकिन केन्द्र और प्रदेश सरकारों की मन-मर्जी पर यह संवैधानिक गारन्टी सीमित हो कर रह गई है।
सरकारें बहुंराष्ट्रीय कम्पनियों और बड़े उद्योगपतियों को जमीनें, पानी, बिजली, खदानें नाममात्र के भुगतान पर पचासों साल की अवधि के लिए दान कर रही हैं। इनको टैक्सों से भी छूट मिलती हैं। इतना ही नहीं सरकारी बैंक करोड़ों रुपए आसानी से दे रहे हैं। उधर छोटे और मझोले व्यापारियों- दुकानदारों और दस्तकारों को कोई सुविधा और कोई सहायता मिल पाना असम्भव है। समान अवसर और समानता का जनाजा वे ही लोग रोज निकाल रहे हैं जिन्हें संविधान ने संरक्षक बनाया है। हमारे देश में अब संविधान को हमारे शासकों ने सत्यनारायण कथा की पोथी बना दिया है कि संविधान और इसमें दर्ज मौलिक अधिकारों का घंटा-घड़ियाल बजाकर केवल नाम लेते रहो। देश में अमीरों की संख्या बढ़ने और पाताली गरीबी का मुख्य कारण यही धतकरम है। विदेशी कम्पनियां खुदरा स्टोर खोलंेगी और हमारी सरकारें ऐसे ही हथकन्डों से इनका लालन-पालन करेगी। इन तमाम हालातों में एक ही हल सामने आता है कि खुदरा बाजार को सहकारिता के रास्ते से चलाया जाकर उत्पादकों और उपभोक्ता को राहत दी जाए। भारतीय बिचौलियों का इस्तेमाल सहकारी उपभोक्ता समितियों में किया जा सकता है। अमूल्य मदर डेयरी, लिज्जत पापड़, कॉफी हाउस आदि कई क्षेत्रों में लम्बे समय से सफलतापूर्वक खुदरा व्यापार हो रहा है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र-09425174450. समान अवसर और समानता का जनाजा वे ही लोग रोज निकाल रहे हैं जिन्हें संविधान ने संरक्षक बनाया है। हमारे देश में अब संविधान को हमारे शासकों ने सत्यनारायण कथा की पोथी बना दिया है कि संविधान और इसमें दर्ज मौलिक अधिकारों का घंटा- घड़ियाल बजा कर केवल नाम लेते रहो। देश में अमीरों की संख्या बढ़ने और पाताली गरीबी का मुख्य कारण यही धतकरम है। 

Thursday, August 16, 2012

कहाँ से चले थे कहाँ आ गए हम

चंद्रिका प्रसाद चंद्र
दिल्ली में कुतुबमीनार है, शीशगंज गुरुद्वारा है, जामा मस्जिद है, हुमायूं का मकबरा है, राजघाट, विजयघाट, शांतिवन है और भी बहुत कुछ दिल्ली में है, था, शायद रहेगा भी। दिल्ली देश के लोगों की कामना है। दिल्ली में होने रहने के लिए सदियों से क्या कुछ नहीं किया गया। दिल्ली सपनों की कत्लगाह है, फिर भी दिल्ली के सपने हैं। दिल्ली में होने का मतलब इतिहास में दाखिल होना है।देश भर के लिए दिल्ली, जागती आंखों से सपने देखती है और सिर्फ अपने सपने पूरे करने के लिए करणीय-अकरणीय करके उसे जायज ठहरा लेती है। यह अलग बात है कि खजाना मुम्बई में है। दिल्ली स्वर्ग है, जहां अपने पुण्यों का फल भोगने देश के देवता आते हैं। चारों पुरुषार्थो के फल दिल्ली में पकते हैं।
दिल्ली में सिर्फ अपना देश भर नहीं,विश्व है। इसीलिए विश्व को दिखाने के लिए दिल्ली को भव्य होना पड़ा है। दिनकर ने इसे भारत का रेशमी नगर कहा था। इसमें देश का इतिहास एक बार नहीं अनेक बार दफन हुआ। दिल्ली कभी किसी की नहीं हुई यह बे-दिल दिल्ली है। इंद्रप्रस्थ से लेकर दिल्ली तक की अनेक कहानियां यहां की आबोहवा में दर्ज है। यहां यमुना बहती है। कृष्ण का परिचय गोकुल की कालिंदी से था, वे भी जब कभी इंद्रप्रस्थ गए किसी न किसी राजनीतिक प्रपंच के कारण। दिल्ली ने कभी क्रांति नहीं की, क्रांतिकारियों का नेतृत्व भर किया। क्रांतियों का अंतिम लक्ष्य दिल्ली था। शलभ श्रीराम सिंह नें "दिल्लियां" कविता लिखी है- "हाथी की नंगी पीठ पर/घुमाया गया दारा शिकोह को गली-गली/और दिल्ली चुप रही/लोहू की नदी में खड़ा/मुसकराता रहा नादिर शाह/और दिल्ली चुप रही/" और आगे लिखते हैं कि बंदा बैरागी के बेटे के ताजा कलेजे का खून उनके मुंह में डाला गया। बहादुरशाह जफर को गिरफ्तार किया गया। इसी दिल्ली में फिर भी दिल्ली चुप रही। दिल्ली तब भी चुप थी आज भी चुप है, अंत में वे कहते हैं-"दिल्लियां/चुप रहने के लिए होती है हमेशा। इतिहास का यह अन्वेषण वर्तमान पर भी पूरी धज से कायम है। इसी दिल्ली में एक अदद लाल किला भी है जहां पिछले पैंसठ वर्ष से पंद्रह अगस्त को राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता है।" देश में धार्मिक और जातीय त्यौहारों की संख्या बहुत अधिक है परंतु राष्ट्रीय त्यौहार सिर्फ तीन हैं। पंद्रह अगस्त को देश स्वाधीनता दिवस, छब्बीस जनवरी को गणतंत्र दिवस और दो अक्टूबर को गांधी जयंती के नाम से मनाता है। स्वाधीनता दिवस अंग्रेजों के शासन से मुक्ति पाने का दिन है। देश के अनगिनत शहीदों की शहादत को याद करने का दिन है।
आजादी के लिए बलिदान देने वालों के इतिहास का पुनर्पाठ करने का दिन है। आजादी के संघर्ष का इतिहास देश के नौनिहालों के पाठय़क्रम में शामिल ही नहीं किया, सिवाय कुछ नामों के । इतिहास से अनभिज्ञ पीढ़ी किनके सपनों का देश गढ़ेगी और यही पीढ़ी देश में शासन कर रही है। जिसे न शहीदों के सपनोंे की जानकारी है न उनके त्याग और बलिदान की कहानी मालूम है। इतिहास की भित्ति पर खड़ा देश ही भविष्य की उदात्त परम्परा डाल सकता है। जिस देश का कोई आदर्श अतीत नहीं होता,अराजक होता है। पांच सौ वर्ष पहले अमेरिका का अतीत क्या था। उसे किसी "मूल्य" के गिरने की चिन्ता ही नहीं वह सिर्फ "कीमत" जानता है जो बाजार शब्द है।
हमारी नीतियों पर अमेरिका उंगली उठा रहा है हमारी क्रेडिट रेटिंग विदेशी तय करें दिल्ली चुप है। हमें "अंडरएचीवर" कहा जा रहा है। जीवन मूल्य इतिहास की धरोहर है जिस पर वर्तमान के भव्य महल खड़े हो सकते हैं,लेकिन हमने पैंसठ सालों में धीरे-धीरे उनको भुला दिया। शहीदों को तो भुलाया ही, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी भुला दिया। जिनके दर्शन विचार और आचरण में कहीं भी विरोधाभास नहीं था, उन्हें ही दरकिनार कर दिया। आजादी मिलने के बाद बापू स्वयं को अकेला और अकिंचन मानने लगे थे। उन्होंने कहा था कि मेरी कोई नहीं सुनता। राष्ट्रपिता की उस चिंता को किसने महसूस किया।
नोआखली में बापू अकेले साम्प्रदायिक हिंसा की आग को बुझते रहे और नेता आजादी और कुर्सी के जश्न में डूबे थे। फिर भी उस समय के नेताओं के दिल में देश प्रेम था। भारत मां की एक मूर्ति अमूर्त थी, लेकिन समझइस देने वाले को न सुनने की परम्परा का बीज पड़ा। जिसका खामियाजा देश आज तक भोग रहा है। विस्थापन का नया ढंग, नया रंग आसाम के बंगलादेशी सीमा के लोग भोग रहें हैं। दिल्ली सैंतालीस में भी रंगीनी में डूबी थी, आज भी डूबी है। न देखती है न सुनती है।
धृतराष्ट्र अंधे हैं, गांधारी ने आंखों में पट्टी बांध ली है। पहले पाकिस्तान से हिन्दू शरणार्थी आए थे, अब बांग्लादेश से मुसलमान शरणार्थी भारत आ रहे हैं। सदियों से पुश्तैनी कश्मीरी पंडित कश्मीर से भागकर विस्थापन का दंश भोग रहे हैं और दिल्ली देख रही है। अपने ही वतन में अपनों का विस्थापन और हम "अतुल्य भारत" एवं शाइनिंग इंडिया के झूठे नारों में खुश हो रहे हैं। अनेक संदर्भो से अगस्त, क्रांति का महीना है। 8 अगस्त 42 को मुम्बई में कांग्रेस ने "भारत छोड़ो" आंदोलन का प्रस्ताव पास किया। महात्मा गांधी ने एक अत्यंत उत्तेजक भाषण जिन्दगी में पहली बाद दिया था जिसको इस देश की जनता ने अपने अपने ढंग से समझ था। बापू ने कहा था "मैं एक छोटा सा मंत्र आपको दे रहा हूं जिसे हृदय में रखें, उसका जाप करें, मनन करें-करो या मरो"। या तो हम भारत को आजाद करेंगे या आजादी की कोशिश में प्राण दे देंगे। हम अपनी आंखों से अपने देश को सदा गुलाम और परतंत्र बना रहना नहीं देखेंगे। प्रत्येक सच्चा कांग्रेसी, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, इस दृढ़ निश्चय से संघर्ष में शामिल होगा कि वह देश को बंधन और दासता में बने रहने को देखने के लिए जिन्दा नहीं रहेगा। ऐसी आपकी प्रतिज्ञा होनी चाहिए। "अनेक ने माना कि बापू ने अहिंसा से तौबा कर ली। इस आंदोलन का नेतृत्व देश की जनता ने किया क्योंकि सारे नेता जेल में थे। 42 से 47 तक का इतिहास ‘करो या मरो" का इतिहास है। अंग्रेजों के आने के पहले तक इस देश में साम्प्रदायिक संघर्ष नहीं थे। अंग्रेजों ने "मुस्लिम" और हरिजन कार्ड खेला। अम्बेडकर ने चाल समझ ली परंतु जिन्ना झंसे में आ गए। सुभाष और गांधी का विभाजन न होने देने का सपना टूट गया। घृणा और द्वेष की जो आग अंग्रेजों ने लगाई वह आज भी सुलग रही है। हम उन्हीं की भाषा में बोल रहे हैं, उनके अहसानमंद हैं।
हम स्वाधीन हैं, आत्मनिर्भर हैं, विश्व की छठी ताकत है। विकास की अनेक मंजिलें इन पैंसठ वर्षो में देश ने तय की हैं लेकिन हमारी नैतिकता और चरित्र का ग्राफ निरंतर गिरा है। गांधी के अंतिम हथियार अनशन और सत्याग्रह अस्त्र थे। वे भोथरे हो गए और दिल्ली तथा सारे देश ने मान लिया कि भ्रष्टाचार बड़े लोगों का श्रंगार है और कोई भी बोलने कहने वाले जूते की नाप के बाहर नहीं हैं। भ्रष्टाचार को सरकारी स्वीकृति मिली है। हमें अपने से ही पूछना पड़ रहा है, "धूमिल" कवि की तरह - "क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है। जिसे एक पहिया ढोता है। या कि इसका कुछ और भी अर्थ होता है।"
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।)

राष्ट्रीय होने का धर्म


                                               जयराम शुक्ल
खानवा के युद्ध में राणा सांगा के हमलों से पस्त बाबर ने अपने जासूसों को आदेश दिया कि यह पता लगाकर बताएं कि दुश्मन (राणा सांगा) की फौज की कमजोर "नस" क्या है? खोज-खबर के बाद जासूसों ने बाबर को बताया कि राजपूत सिपाही गोवंश की पूजा करते हैं, मर जाएंगे पर गोवध नहीं कर सकते। बाबर को विजय का रास्ता मिल गया। मुट्ठीभर सिपाहियों और बची खुची तोपों के साथ अगली सुबह युद्ध के मैदान में डट गया और हां अपनी सेना की ढाल के रूप में इस्तेमाल किया मवेशियों के रेहड़ का। सामने "गऊमाता" को देखकर राजपूतों के हथियार ढीले पड़ गए, उधर तोप गरजाती बाबर की सेना आगे बढ़ने लगी। हम गोवध के पाप से बच गए लेकिन "राष्ट्र" हार गए। धर्म की रक्षा हुई पर राष्ट्र पराजित हो गया।
एक सैलानी जापान घूमने गया। उसने एक युवक से पूछा-तुम्हारा धर्म क्या है? युवक ने जवाब दिया-बौद्ध। और तुम्हारे भगवान? जवाब हाजिर था-भगवान महात्मा बुद्ध। सैलानी ने फिर प्रतिप्रश्न किया-फर्ज करो कि भगवान बुद्ध जापान पर हमला कर दें तो! युवक ने जवाब दिया-तो क्या ...हम तलावार से उनका शीश काट लेंगे।
धर्म बड़ा है कि राष्ट्र, यह बहस अनादि काल से चली आ रही है।आज वैश्विक परिदृश्य में देखें तो वही देश समुन्नतशील, सम्पन्न और मजबूत है जिनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि है। धर्म की सत्ताएं राष्ट्र को नहीं संभाल सकती। खाड़ी देशों में क्यों जाएं-अपना पड़ोसी देश पाकिस्तान, धार्मिक कट्टरपंथ और धर्मभीरुता की वजह से ही दुनिया का घोषित विफल राष्ट्र है। यहां के सभी आतंकवादी संगठनों की ढाल धर्म है। राष्ट्र रहे या जाए, जेहाद कामयाब होना चाहिए। धर्म के नाम की सत्ता हमेशा ही राष्ट्रद्रोह का पथ प्रशस्त करती आयी है। अपने भारत में भी.. आज भारत की भी सबसे बड़ी समस्या कथित धार्मिक सत्ताओं का राष्ट्र से टकराव को लेकर है। हमारे स्वार्थी और मौकापरस्त राजनेता राष्ट्रीय हितों को ताक पर रखकर धर्म की रौ में बह जाते हैं। सत्ता की सरपरस्ती में बाबरी मस्जिद ध्वंस कर दी जाती है। गोधरा कांड हो जाता है। दिल्ली में सिखों का कत्लेआम होता है। धर्म की तहरीरों के आधार पर संविधान बदल दिया जाता है। समानता के मौलिक अधिकारों का दमन होता है। दुर्भाग्य से धार्मिक और साम्प्रदायिक कट्टरता आज भी उस भारत नाम के राष्ट्र के हृदय से मबाद की तरह रिस रही है, जिस भारत की एक मर्दानी नेता ने दुनिया के सामने यह साबित करके दिखा दिया था कि राष्ट्र के ऊपर धर्म की सत्ता बर्दास्त नहीं की जा सकती। हां..राष्ट्रद्रोही कट्टरपंथियों द्वारा बंकर में तब्दील कर दिए गए स्वर्ण मंदिर पर तोप के गोले दागने का माद्दा सिर्फ और सिर्फ इंदिरा गांधी में ही था। इंदिराजी को उसका परिणाम भी मालूम था और अन्तत: वहीं हुआ भी। लेकिन सिखों के कत्लेआम ने इंदिराजी के बलिदान की पवित्रता को नष्ट कर दिया।
देशभक्तों ने हमेशा ही राष्ट्र को धर्म से ऊपर रखा। गणोश शंकर विद्यार्थी जैसे प्रखर सेनानी हुए जो कानपुर के दंगे में मुस्लिम भाइयों की रक्षा करते शहीद हुए। उनकी शहादत पर महात्मा गांधी ने कहा था "काश ऐसी मौत मुङो नसीब होती"। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने सदैव राष्ट्र को धर्म से ऊपर रखा। जहां धर्म आड़े आया तो मुस्लिम लीग बन गई। देश के टुकड़े हो गए। विशाल राष्ट्र के दो बाजू अलग हो गए। यहां धर्म बंटवारे का आधार बन गया। देश की सीमाएं तभी तक सुरक्षित हैं, जब तक हमारे सैनिकों के हृदय में राष्ट्र की सर्वोच्चता स्थापित है। जिस दिन यह स्थानापन्न हुई उस दिन कोई अब्दुल हमीद दुश्मन देश से लड़ते हुए शहीद नहीं होगा। राष्ट्र हमारे राजनैतिक समाज की व्यवस्था है जबकि धर्म हमारे जीवन की मर्यादाओं व प्रवृत्ति के अनुशासन को तय करता है। धर्म निजता से जुड़ा हुआ मामला है, जबकि राष्ट्र स्वयं में बहुजन सुखाय, बहुजन हिताय का व्यापक परिप्रेक्ष्य समेटे हुए है। वह सच्चा धार्मिक मनुष्य हो ही नहीं सकता जिसकी दृष्टि में राष्ट्र सर्वोपरि न हो। राष्ट्र, धर्म से पालित और संरक्षित ऐसी आत्मा है जिसके न रहने पर धर्म भी मृतदेह की भांति अनुपयोगी हो जाएगा।
महाभारत धर्म की सर्वोच्चता के लिए नहीं अपितु राष्ट्र की सर्वोच्चता के लिए रचा गया था। उसमें भी एक सहज शिक्षा सन्निहित है। चाहे अपना कितना भी सगा, संबंधी या खून के रिश्ते वाला ही क्यों न हो यदि वह राष्ट्र के आड़े आता है तो वध्य है। धर्मात्मा द्रोणाचार्य भी थे, भीष्म भी और कर्ण भी। लेकिन वे एक अराजक और विधर्मी व्यवस्था के संरक्षक थे। कृष्ण जिस धर्म की संस्थापना के लिए शंखनाद करते हैं वह कर्म-काण्डीय धर्म नहीं अपितु राष्ट्र-धर्म है। कार्ल मार्क्‍स ने धर्म को अफीम कहा। उनके इस कथन को हमेशा ही संदर्भ से काटकर उद्धृत किया गया। मार्क्‍स का आशय यह था कि धर्म वह तत्व है जिसका इस्तेमाल किसी व्यापक लक्ष्य को प्राप्त करने की विपरीत दिशा में सहजता से किया जा सकता है। धर्म निजता से जुड़ा हुआ मामला है, जिसे अहं और अस्तित्व की श्रेष्ठता से जोड़कर, बहुधर्मी देश के समाज को कई खांचों में बांटा जा सकता है। आजादी के संघर्ष के आवेग को कम करने के लिए अंग्रेजों ने धर्म व सम्प्रदाय का सहारा लिया। जाति-पांति के मसलों को उघाड़ा। धर्म-जाति और सम्प्रदाय के विषयों ने अंग्रेजों को बांटो और राज करो की सहूलियत दी।
वही सिलसिला अब भी चल रहा है। जाति व सम्प्रदाय के आधार पर राजनीतिक फैसले लिए जाते हैं। धर्म और उसके धुरंधरों का विकृत रूप सामने है। आरक्षण और आरक्षण के भीतर आरक्षण की बातें होती हैं। संविधान की इबारतें बदल दी जाती हैं। सत्तातुर राजनीतिक दलों का अपना कोई ईमान-धरम नहीं। मौकापरस्ती और भावनाओं को भुनाने के हर वे उपक्रम होते हैं, जो सत्ता के सिंहासन तक का मार्ग प्रशस्त करें। इस प्रक्रिया में राष्ट्र की आहत आत्मा की आवाज कौन सुनेगा? भारत युवाओं का देश है। स्वतंत्रता दिवस को स्मरण करते हुए राष्ट्र की निगाहें उन्हीं पर हैं। वही भारतमाता के आंसुओं की नमी महसूस कर सकते हैं। धर्म-सम्प्रदाय, जाति- पांति, कुनबों से ऊपर हम पहले राष्ट्र की सर्वोच्चता को कायम रखें क्योंकि राष्ट्र है तो हम हैं, हमारा अस्तित्व है, बाकी सबकुछ इसके बाद।

Monday, August 13, 2012

बड़ा मुंसिफ है अमरीका


जयराम शुक्ल
जिन दिनों दो ध्रुवीय विश्व में शीत युद्ध चरमोत्कर्ष पर था, उन्हीं दिनों शान्ति के लिये नोबल पुरस्कार विजेताओं ने रोनाल्ड रीगन (तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति) और मिखाइल गोबरेचोव (तत्कालीन सोवियत के राष्ट्र प्रमुख) को पत्र लिखकर अपील की थी कि "दुनिया को बचाने का सिर्फ एक ही तरीका है और वह है गांधीवाद"।
खैर सोवियत संघ के बिखरते ही शीतयुद्ध प्रकारान्तर में "वार एगेन्स्ट टेररिज्म" में बदल गया। रीगन के उत्तराधिकारी सीनियर बुश ने दंभोक्ति कही थी लाल (कम्युनिस्ट) से तो निपट लिया अब हरे (मुस्लिम कट्टरपंथ) से निपटने की चुनौती है। बिल क्लिंटन के बाद आए जूनियर जार्ज बुश ने अपने पिता के एजेन्डे को बढ़ाया। ईराक, लीबिया, सीरिया और अब अफगानिस्तान एक के बाद एक निपट रहे हैं।
ईरान और उत्तर कोरिया उसके निशाने पर हैं। उत्तर कोरिया तो हर अमेरिकी धमकी पर एक मिसाइल धमाका करता है। बेनेजुएला भी क्यूबा की भांति अमेरिका के सामने सीना ताने खड़ा है। ह्यूगो शावेज का संयुक्त राष्ट्र संघ में वह प्रखर वक्तव्य आज भी लोगों के जेहन में है, जब जार्ज बुश के भाषण के बाद डायस से दहाड़ लगाई कि हाल ही में यहां से कोई राक्षस गया है क्योंकि बारूद की गंध अभी शेष है। तख्ता पलट के बाद भी मिस्र में अशांति है, खून-खराबे का दौर जारी है। सीरिया गृह युद्ध में झुलस रहा है पाकिस्तान तबाही के मुकाम तक पहुंच चुका है। इन हरेक देशों में अमेरिका या नाटो (नार्थ एटलांटिक ट्रीटी अर्गनाइजेशन) का दखल है। पाकिस्तान, नार्थ कोरिया और ईरान के पास एटम बम है और ये एटम बम आतंकवादियों के हाथ में न पड़ जाएं इसलिए अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ युद्ध छेड़े है। शीत युद्ध के समय दुनिया अमेरिका व सोवियत संघ के खेमों में बंटी थी।
दो ध्रुवीय टकराव की ये इन्तेहा थी कि अमेरिकी परस्त देशों ने 1980 के मास्को ओलिम्पिक का बहिष्कार किया था। गुट निरपेक्ष देशों के लिए यह पैमाना था। भारत ने तब मास्को ओलिम्पिक में भाग लिया था। अमेरिका परस्त होने के नाते पाकिस्तान बाहर था। बहरहाल सोवियत संघ के बिखराव और शीतयुद्ध के समापन के बाद यह उम्मीद जगी थी कि दुनिया तनाव मुक्त होगी, चैन अमन बहाल होगा लेकिन आतंकवाद का नया सिलसिला शुरू हो गया।
अस्सी के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत फौज के दखल के खिलाफ अमेरिका ने तालिबान और अलकायदा को तैयार किया। हथियारों के साथ प्रशिक्षण दिया। अफगानिस्तान तालिबान के कब्जे में आ गया।
अमेरिकी कूटनीति की नाजायज औलाद अलकायदा और तालिबान ने जब अमेरिका के हाथों खुद के इस्तेमाल होने से मना किया तो वे आतंकवादी संगठन घोषित कर दिए गए। फिर शुरू हुआ रक्तपात का नया दौर जिसकी परिणति अमेरिका के मर्मस्थल वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर और पेन्टागन (अमेरिकी रक्षा मुख्यालय) पर अलकायदा के हमले के रूप में हुई। शीतयुद्ध के खात्मे के साथ मिटी दो ध्रुवीय विभेदक रेखा को नए शिरे से खींच दिया गया है।
अमेरिका ने दुनिया को फलसफा पढ़ाया जो देश हमारे साथ नहीं, तो वह निश्चित ही आतंकवाद के साथ है। आज फिर आतंकवाद के सवाल पर दुनिया दो खेमे में बंटी है और खूंरेजी दौर जारी है। इन सबके चलते अमेरिका खुद एक दुश्चक्र में फंसता जा रहा है और वह है नव-नात्सीवाद का। हाल ही में वहां एक गुरूद्वारे में हुए हमले का मुख्य हमलावर नव-नात्सीवाद के प्रतीक के रूप में उभरा है। तालीबान और अलकायदा से लड़ते-लड़ते अमेरिकी खुद उनके चरित्र को आत्मसात करते जा रहे हैं।
अब सवाल यह है कि अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक युद्ध जीत लेता है तो क्या विश्व में शांति आ जाएगी..? साफ जवाब है..नहीं। वजह युद्ध और औजार ही अमेरिका का व्यापार और बाजार है, वह बाजार के लिए सब कुछ जायज मानता है। भयादोहन उसका सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक एजेन्डा है और वह जिस तरह भीषण आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है, उससे उबरने के लिए युद्ध के बाजार को सजाए रखना जरूरी होगा।
अमेरिकी सत्ताधीश बाजार के प्रति कितने प्रतिबद्ध हैं, इसका एक उदाहरण आज भी चटखारे के साथ दिया जाता है। अर्थजगत के पण्डितों ने बिल क्लिन्टन और मोनिका लेवस्की प्रकरण को बाजार के साथ जोड़ा था। याद करिए यह घटना उन्हीं दिनों की है, जब "वियाग्रा" लांच होने वाली थी।
आज अमेरिका "पोर्न इन्डस्ट्री" का बेताज बादशाह है। कोई स्पष्ट आंकड़े तो नहीं हैं पर अर्थशास्त्रियों के अनुमान पर यकीन करें तो पोर्न इन्डस्ट्रीज का आकार-व्यापार और टर्नओवर एविएशन, आटोमोबाइल और आर्म्स इन्डस्ट्रीज से कई गुना बड़ा है। अमेरिका अपने बाजार की सेहतमंदी के लिए नित नए रास्ते तलाशता रहता है और उसी को वह वैश्विक एजेन्डा बना देता है। खाड़ी देशों में उसे आतंकवाद व मानवाधिकार का हनन इसलिए दिखता है क्योंकि वहां तेल है। वेनेजुएला भी इसीलिए दुश्मन है। पाकिस्तान के घर में घुसकर निहत्थे ओसामा बिन लादेन को मार गिराने और अपने विरोधियों को गुआन्तनामों के नरक में भेज देने में कोई मानवाधिकार का हनन नहीं दिखता है पर मानवता के दुश्मन लिट्टे के प्रभाकरण के मामले में वह लंका को बड़ा गुनहगार मानता है। सक्षम होने के बावजूद क्या भारत इतनी हिम्मत कर सकता है कि करांची के आलीशान बंगले में ऐश कर रहे दाऊद इब्राहीम को वहीं जाकर निपटा दे। यदि वॉर अगेन्स्ट टेरोरिज्म में वह भारत को अपना बड़ा सहयोगी मानता है, तो इसके लिए उसे आगे बढ़कर साथ देना चाहिए।
अमेरिका, भारत और पाक को एक ही नजरिए के तराजू में तौलता आया है। ये दोनों मुल्क एक होकर रहें वह कभी नहीं चाहेगा। इधर एक नेता पाकिस्तान को आतंक की नर्सरी घोषित करता है तो दूसरा अमेरिकी कांग्रेस में अरबों डॉलर की खैरात देने की पैरवी करता है। मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी दशकों पहले कह गए हैं कि "बड़ा मुंसिफ है अमरीका, ब यौमे सबको बराबर प्यार देता है। किसी को लड़ने के लिए देता है मीसाइल। किसी को बचने के लिए राडार देता है"।
अब सवाल ये है कि दुनिया जाएगी कहां? क्या होगा दुनिया को बचाने के गांधीवादी तरीके का। इस गांधीवाद को तो हम अपने मुल्क में ही खारिज करते जा रहे हैं। गांधी का अमोघ अस्त्र, सविनय अवज्ञा सत्याग्रह तो वहां काम करेगा जहां की सत्ता में हृदय और संवेदनाएं साबुत बची होंगी। सत्ता का अमेरिकी मॉडल हृदयहीनता और भोथरी संवेदनाओं का है। हम इसी मॉडल के मुरीद हैं। इस मॉडल में गांधीवाद, सुराज, रामराज्य की गुंजाइश ही कहां। यहां गरीब, आदमी नहीं आंकड़ों की इकाई है। सो गांधीवाद में विश्व शांति का फार्मूला तलाशने वाले, नोबल शांति विजेताओं अपनी अपील का असर भूल जाओ, क्योंकि नई विश्व व्यवस्था में बाजार और व्यापार के लिए सब कुछ जायज है..युद्ध भी और आतंकवाद भी।

Tuesday, August 7, 2012

बृज से कुरुक्षेत्र तक ‘कृष्ण-लीला’

  चिन्तामणि मिश्र
श्री कृष्ण का जीवन और चरित्र दोनों बहुत अद्भुत तथा बहुरंगी हैं। बालपन में पूरी मस्ती के साथ की गई बाल-लीला, इन्द्र को चुनौती देते गोपाल कृष्ण, राधा और गोपियों के संग रास में नाचतें रासबिहारी श्रीकृष्ण कंस वध के बाद मथुरा से पलायन करते रणछोड़। कौरव सभा में विराट रूप के दर्शन कराते पाडंवों के शान्ति दूत श्रीकृष्ण,राष्टÑ की एकता के लिए महाभारत के महानायक सारथी श्रीकृष्ण, महायुद्ध के मैदान में कर्म-धर्म की गीता रचते श्रीकृष्ण, सखा की परिभाषा स्थापित करते पांचाली के श्रीकृष्ण और राधा को अपने संग समेटे राधारमण श्रीकृष्ण। इतना बहुयामी और इतना बहुरूपी चरित्र केवल श्रीकृष्ण का ही रहा, धरती में। श्रीकृष्ण के अलावा और किसी की नहीं रही ऐसी भूमिका। वे बैकुन्ठ से हमारी धरती में अवतरित हुए।
      कितना विचित्र है कि विष्णु अपने हर अवतार में अपनी कुछ कलाओं को बैकुन्ठ में ही छोड़ कर धरती में आए, किन्तु अचानक ऐसा घटित होता है कि उनकी सोलह कलाओं और दसों अवतारों का वैभव लूट कर एक घना श्यामल प्रकाश भादों की अंधेरी रात को घनघोर वर्षा में मथुरा के बन्दीगृह की दीपहीन अंधेरी कोठरी में राजपुत्री और सम्राट की बहन की कोख से प्रगट होता है और सारे समीकरण और सारी भूमिकाए उलट-पुलट हो जाती हैं। यह श्यामल सलोना शिशु कृष्ण नाम को ग्रहण करके फिर अनन्त नामों से आज तक करोड़ों-करोड़ लोगों का जीवन कृतार्थ कर रहा है, दुखों को दूर करने का मार्ग सुझा रहा है। उन्हें तृप्त कर रहा है। बाह पकड़ कर भवसागर पार करा रहा है। जीना सिखा रहा है। उसका नाम सुमिरन करने पर ऐसी रस वृष्टि होती है कि बुद्धि और प्यास हिरा जाती है। देव लोक और सभी देव चकित हो जाते हैं कि यह तो अवतरण नहीं है। पृथ्वी पर स्वर्ग नहीं उतरता। पृथ्वी तो स्वर्ग को नकार देती है,क्योंकि कृष्ण बृज को ऐसे स्वर्ग में रूपान्तरित कर देते हैं जो देवताओं के स्वर्ग से ज्यादा रस-रंग-रास उलीचता है। देवता कृष्ण और बृज के गोप-गोपियों को देख कर पछताते हैं कि हमारा अहंकार हमें धोखा दे गया । हमारा कृष्ण तो उनके वश में हो गया जो जानते ही नहीं कि कृष्ण परमब्रह्म हैं, परमेश्वर हैं, असाधारण हैं, विराट हैं। बृजवासी तो इनके संग घूमते फिरते हैं, नाचते हैं, गाते हैं, माखन चुराते हैं। इसमें भक्ति नहीं है। लकुटी में ,बांस की छेदों वाली बांसुरी में, मोरपंख के मुकुट में ऐश्वर्य कहां से आएगा? नहीं जानते देवता कि कृष्ण तो ऐसा खिंचाव हैं, जिसमें उलझ कर देह, देह नहीं रह जाती, भाव बन जाती है। गेह, गेह नहीं रह जाता,आंखें, आंखें नहीं रह जाती, रूप बन जाती हैं, प्यार, प्यार नहीं रह जाता, वह प्रियतम बन जाता है। खुद कृष्ण, कृष्ण नहीं रह जाते राधा बन जाते हैं। परायी मां, सगी मां बन जाती है और सगी मां परायी हो जाती है। बालू जमुना बन जाती है और जमुना कृष्ण की छवि के लिए तरसती बालू बन जाती है।
     लेकिन कृष्ण की बाल-लीला उनके अवतरण का लक्ष्य नहीं था, यह उनके द्वारा भविष्य में किए जाने वाले विराट कामों की प्रारम्भिक झलक और भूमिका थी। वे आए थे भारत के विखराव को समेट कर साल और संगठित राष्टÑ बनाने। हताश और निराश लोगों को सद्कर्म के लिए प्रेरणा देने।   कृष्ण जैसा पे्रमी और कृष्ण जैसा निर्मोही संसार में कोई दूसरा नहीं हुआ। बृज के लोगों, से बृज की रेणु, बृज के पहाड़-जंगल, बृज के पशुओं और बृजरानी राधा से प्रेम किया तो ऐसा कि प्रेम जीवन्त हो गया, सार्थक और सुगन्धित हो गया। अपने पालनकर्ता नन्द-यशोदा को ऐसा प्रेम दिया कि दोनों का स्नेह हिमालय होे गया और र्निमोह ऐसा कि फिर बृज और बृजवासियों की तरफ मुड़ कर नहीं देखा। यह थी निर्मोह की पराकाष्ठा  कि पल भर में माया-मोह और पे्रम के बन्धन तोड़ कर खुद को निसंग बना लिया। यह कृष्ण की ही क्षमता थी और यह थी कृष्ण की लीला। कृष्ण का जीवन हलचल भरा था, क्योंकि वे सामुदायिकता के लक्ष्य की ओर तत्कालीन समाज को ले जा रहे थे। वे भारत का उद्धार और इसका विकास संगठित राष्टÑ के रूप में चाहते थे। बड़ा विचित्र लगता है कि जो काम त्रेता में दशरथ-नन्दन राम ने शुरू किया था उस अधूरे काम को कृष्ण ने पूरा किया और सारे देश के विखराव को एक सूत्र में बांध कर शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की। कृष्ण इस केन्द्र के अधीश्वर बन सकत थे, किन्तु हमेशा की तरह कृष्ण फिर मोह से परे ही रहे। इस बिन्दु की अनदेखी नहीं की जा सकती कि भारत में अवतार की श्रृंखला तो शुरू हो चुकी थी, किन्तु कृष्ण का विलक्षण अवतार था। श्रीराम ने त्रेता युग में अवतार लिया किन्तु वे उच्च स्तर की मर्यादाओं को आत्मसात करके मनुष्य की भूमिका में भी निरंतर देव बनने का ही प्रयास करते रहे। द्वापर में कृष्ण ऐसे देव थे जो मनुष्य बनने की कोशिश करते रहे और इसमें उन्हें पूरी सफलता मिली। मनुष्य और मनुष्यता को सुखी बनाने और भारत को राष्टÑ में रूपान्तिरित करने में कृष्ण का पूरा जीवन साक्षी है। कृष्ण एकता के देवता है। महाभारत पूर्व से पश्चिम की यात्रा है जैसे रामायण उत्तर-दक्षिण की यात्रा है। लोहिया कहते थे कि मणिपुर से द्वारिका की एकता कृष्ण के ही प्रयासों से सम्भव हुई थी।  पूर्व-पश्चिम की राजनीति अलग थी। सामाजिक सरोकार अलग थे। राम उत्तर-दक्षिण की एकता के नायक और राजा बने किन्तु कृष्ण दूसरों को   राजा और सम्राट बनाते रहे। कृष्ण ने सभी को कुछ न कुछ दिया और बदले में शाप तथा आरोपों की पठोनी ही पाई।
    राष्टÑ की एकता के लिए कृष्ण को अपने ही लोगों से जूझना पड़ा। कौरव और पाण्डव उनके निकट आत्मीय थे, तो मथुरापति कंस सगे मामा थे, किन्तु कृष्ण की तुला में नाते और संग-सगाती राष्टÑ के समक्ष वजनहीन थे। उनके अपने कृष्ण से घटतौली नहीं करा सकते थे। कृष्ण के लिए राष्टÑ ज्यादा महान और मानवीय था। राष्टÑीय एकता के लिए वे हिंसा और अहिंसा के भंवर जाल में नहीं फंसे। कभी न्याय और अन्याय के तर्क-विर्तक का  चिन्तन नहीं किया। जहां जैसी जरूरत थी वहां उसी तरह हर बाधा को जड़ से मिटाया। राम का मुकाबला भील, राक्षस, किरात, वानर, किन्नर, भालू जातियों से था, इनको हराने के बाद या हराए बिना अपनी सभ्यता में ढाल लेने का था किन्तु कृष्ण के सामने चुनौती बड़ी थी। इसमें कई पेंच थे किन्तु कृष्ण ने असम्भव को सम्भव कर दिखाया।
       कृ ष्ण जैसा स्वार्थहीन न कभी हुआ है और कभी होना सम्भव है। भारत ही नहीं संसार के करोड़ों-अरबों लोग कृष्ण की गीता से अपने दायित्व की पहचान सदियों से करते आ रहे हैं। जो घनघोर नास्तिक हैं वे भी कुरुक्षेत्र से प्रवाहित गीता-गंगा और कृष्ण से प्रेरणा ले रहे हैं।
                                      - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                          सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

सावन और शिव का तादात्म्य

 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
 इस वर्ष, बिना आए ही सावन बीत गया। न पवन ने शोर किया न जियरा झूमा, न वन में मोर नाचा। सावन का अर्थ होता है प्रकृति का लहलहा उठना, नदी-तालाब का उफनाना। धारासार वर्षा से तृप्त आकाश की ओर निहार कर कृतज्ञता व्यक्त करना। लेकिन इस वर्ष की छुटपुट वर्षा ने सावन का दिल तोड़ दिया। मन-मयूर भीगकर नाच नहीं सका। संज्ञा रूप में तो आया, क्रिया बन कर नहीं। पक्षियों का आनंददायी कलरव नहीं सुनाई पड़ा। न झूले पड़े, न कजरी-हिन्दुली की तान सुनाई पड़ी। निराई करते गीत गाने की आलाप कब की बन्द हो चुकी है, इस साल धान ही नहीं बोई गई तो निराना क्या? कृषि निरावहिं चतुर किसाना  की चौपाई व्यर्थ हो गई। हरियाली के इस महीने ने बहुत निराश किया। अपना देश ईश्वर की कृपा और इच्छा से चलता है। अच्छी वर्षा हो गई- ईश्वर की कृपा है, नहीं बरसा-प्रभु की इच्छा। सच तो यह भी है कि हमने प्रकृति (ईश्वर) का दोहन इतना कर लिया कि उसका संतुलन बिगड़ गया। ऋतुओं का समय पर आने न आने के कारक हमी हैं। सदय भाव से सेवा करने और अदय भाव से दण्ड देने का अधिकार उसके पास सदैव सुरक्षित हैं। मन कैसे मान ले कि सावन आया था। लेकिन लोकमानस तो मन में भी सावन मान लेता है, उल्लासित हो उठता है, भले ही भिगोने वाला सावन आए न आए जिआ जब झूमें, सावन है।
     सावन, देवाधिदेव महादेव शिव का महीना है। प्रत्येक सोमवार, प्रत्येक तेरस, पूरा सावन मास, तीसरे साल पुरुषोत्तम मास (मलमास) क्यों? शायद इसलिए कि वे छल-छद्म से दूर भोलेनाथ हैं। गरीबों, अनाथों, अपाहिजों के अशरीरी देवता, मिट्टी से बनने वाले देवता। रुद्रपाठ से अभिषेक लोक की सबसे बड़ी पूजा है। किसी से कुछ न चाहने वाला, समुद्र के लिए जहर पीने वाला, पहाड़ पर बसने के बाद भी जमीन के लोगों की रक्षा करने वाले शिव को, लोक यदि अन्यों की तुलना में पूरा वर्ष ही दे दे, तो भी सम्पूर्ण कृतज्ञ न हो सकेगा। पूजा की सबसे कम सामग्री लेने वाला धतूर पुष्प, मदार, राख, कोई मंत्र नहीं, सिर्फ बम-बम पर ‘बम’ होना जिसका स्वभाव हो, ऐसे लोक देवता शिव का महीना है सावन। जब वर्षा नहीं होती तब शिवलिंग को पानी में डुबोने की परम्परा है। मान्यता है कि डूबने के लिए बनाई गई माटी की दीवार अक्सर टूट जाती है और जब शिवलिंग पानी में डूब जाते हैं तब वर्षा होती है। विष-पान की जलन को कम करने के लिए जल, दूध और मधु के अभिषेक की परम्परा है। शिव और शक्ति की एकमात्र ऐसे देवी-देवता हैं जिनकी पूजा-अराधना पूरे भारत में की जाती है। शिव के ज्योतिर्लिंग और सती के शक्तिपीठ सम्पूर्ण भारत में आस्था के प्रतीक के रूप में स्थापित हैं। शास्त्र और पुराणों के वे शिव हैं, रुद्र हैं, परंतु लोक में वे भूतनाथ और भोलेनाथ हैं। सती के शव को कंधे पर लटकाए, उनको जीवित मानते, विरल, प्रेमी शिव, सावन आते ही अपनी ससुराल कनखल (हरिद्वार) चले आते हैं। सती के आत्माद्वति देने के बाद कहते हैं कि दक्ष की पत्नी, सती की मां ने शिव से याचना की कि बेटियां सावन में मायके आती हंै, अब हमारा आंगन सती के बिना सूना रहेगा, मेरी इच्छा है कि आप सावन में एक माह ससुराल में रहें, कभी ससुराल में दामाद का सम्मान नहीं किया। मैं आंचल पसारकर भीख मांगती हूं शिव ने ‘एवमस्तु’ कहा। देश भर में कांवरिये विभिन्न ज्योर्तिलिंगों पर कांवर चढ़ाते हंै। जहां नदियां उत्तराभिमुख होती हैं वहां के जल को पवित्र मान गंगा के जल सा स्वीकार करते हुए जलाभिषेक करते हंै। सुल्तानगंज में गंगा उत्तरमुखी बहती हैं, गंगा का अपने उद्गम को निहारना, अन्य उत्तरमुखी बहती नदियों का भी मूल स्थान मान लिया जाता है। सुलतानगंज से एक सौ बीस किलोमीटर पैदल बिना जूता, चप्पल के कांवरियों का दल गंगा का जल लेकर देवघर (वैद्यनाथ) के शिवलिंग पर अर्पित कर सारी थकान मिटा लेता है।
     सावन बहकने, सीमाओं के बांध तोड़ने, काम और रति के उद्दीपन, रोमांच-रोमांस, मुग्ध और मुग्धा के एक रस होने का महीना है, परंतु इसकी अति न हो जाए इसलिए संयम के देव, शिव की आराधना आवश्यक है। श्रम सीकरों को जब वर्षा की बूंदें अभिषिक्त करती हैं तब मल्हार कजरी और सावन के गीत अनायास गूंज उठते हैं, मन सावन हो पावन हो जाता है। ग्रीष्म की तपन से मुक्ति दिलाने वाला सावन जिस वर्ष नहीं आता, किसान के बारह महीनों में एक के न आने से शेष सिर्फ शून्य बचता है, विचित्र गणित है इस एक महीने का? मलमास का एक महीना भी शिव का महीना है। शिव के महीने में जल का अभाव होता नहीं, जिसकी जटाओं में जल का त्रिविध स्त्रोत हो, उस माह में जलाभाव? कुछ समझ में नहीं आता। श्रद्धा का अभाव तो नहीं?  लेकिन वे तो अवश्यंभावी हैं, श्रद्धा-अश्रद्धा से तो कोई लेना-देना नहीं उनका। पहाड़ उनका घर है, बादल उनकी पर्वत श्रेणियों पर मिट जायेंगे बरबस बरसेंगे उनके दृष्टि-निक्षेप मात्र हो झर जाएंगे। जलाभिषेक के लिए जाते, भोलादानी को स्मरण करते-‘भोलन तोरे लम्बे देशवा हो। मोरे जात्री क निबल शरीर हो...।’ गाते हुए अपनी दशा का भी बखान करते थकते नहीं। शिव को जल और पार्वती को फुलेल इत्र चढ़ाने की प्रथा ‘त्वदीयं वस्तु तुभ्यमेव समर्पये’ की स्थिति से भिन्न नहीं, तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा। मात्र जल चढ़ाने से अनेक फलों को वह प्राप्त   कर लेता है। भक्ति का यही अतार्किक भाव ही लोक जीवन का आधार है।
    जाने किस प्रतिगामी परम्परा ने भगवान जगन्नाथ को सीमित दायरे में दर्शन और प्रसाद के निमित्त बांध जगतनाथ को सिर्फ हिन्दुओं का नाथ घोषित कर शब्द का अर्थ संकुचन कर दिया। परंतु शिव तो विश्वनाथ कहलाए। उनके यहां सबका प्रवेश है, श्मशान-राख तक स्वीकारते हैं, धतूर-बेल, निर्गन्ध फूल भी उनका स्पर्श या सुगंधित हो जाने की कल्पना समाज में है। उनका अशिव, दिगंबर रूप भी शिवत्व लिए है। तृप्ति और संतुष्टि के इस महीने में वह ललकार नहीं सुनाई पड़ी जिसकी व्याप्ति लोक में है। लगे हैं असाढ़, सावन चढ़ि आए ललकारि...की ललक अधूरी रही। गूंजती रही ‘बम भोलया’ कांवरिये शांति और भक्ति के प्रतीक रहे। अब भक्ति भी फैशन है, आक्रामक है, दिखावा है। भोलेनाथ के कांविरिये जब, हॉकी स्टिक, राड, त्रिशूल लेकर शिव की आराधना करेंगे तो रास्ते की शांति भंग होगी। आस्था प्रदर्शन की वस्तु नहीं, अपने में ही ईश्वर की अनूभूति है। सावन और शिव का तादातम्य परम्परा की विरासत है जिसे शाश्वत रखना लोक का काम है। जिसे वह संभाले बम भोलया गा रहा है। ‘दै टटिया निकरि चला हो, कौने माया म उलझे हैं प्रान हो...।’
                                - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
                                    सम्पर्क सूत्र - 09407041430.

Thursday, August 2, 2012

सत्ता के विरोध से आगे...

पुण्य प्रसून बाजपेयी
क्या वाकई देश एक ऐसे मुहाने पर आ खड़ा हुआ है जहां से आगे का रास्ता संविधान को तार तार करेगा। क्योंकि संविधान में दर्ज जनता के मैनिफेस्टो को खारिज कर ही राजनीतिक दल लोकतंत्र का राग अलाप सत्ता तक पहुंच सकते हैं । और राजनीतिक दलों का अपना मैनिफेस्टो संविधान की मूल आत्मा के खिलाफ जाता हुआ ऐसा कदम है जो धीरे धीरे राजनीतिक दलों के सत्ता तक पहुंचने के प्रयास को ही लोकतंत्र बना दे रहे हैं। जनता चाहे तो सरकार बदल दें। जनता को अगर किसी राजनीतिक दल में खोट दिखायी दे तो उसे सत्ता में ना आने दें। किसी सरकार या राजनीतिक दल के कामकाज अगर जनता के अनुकुल नहीं होते तो फिर उस सरकार की उम्र पांच बरस से ज्यादा हो ही नहीं सकते। यानी संविधान का मतलब अगर लोकतंत्र है और लोकतंत्र का मतलब अगर हर नागरिक के वोट का अधिकार है और वोट का मतलब अगर संसदीय राजनीति है। और संसदीय राजनीति का मतलब अगर संसद के जरीये बनाई जाने वाली नीतिया हैं। और नीतियों का मतलब अगर तत्काल में देश के पेट को भरना है। और पेट के भरने का मतलब पैसो वालों के जरीये विकास का ढांचा बनवाना है। और विकास के ढांचे का मतलब अगर मुनाफा बनाना है। और मुनाफे का मतलब अगर बहुराष्ट्रीय कारपोरेट को कमाने का लालच देकर निवेश कराना है। और विदेशी निवेश का मतलब अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपना कद बरकरार रखते हुये विकास दर और सेंसक्स से लेकर जीडीपी और उपभोक्ताओ के माल से भारत को लबालब भर देना है। तो फिर संविधान का मतलब क्या है।
मौजूदा परिस्थितियो में संविधान का मतलब शायद ऐसा लोकतंत्र है जो राजनीतिक सत्ताधारियो के सत्ता में बने रहने या सत्ता से उखडने में लगे विपक्षी राजनीतिक दलों के सत्ताधारी होने का खेल है । यह खेल संविधान का नाम लेकर संविधान की मूल भावना के खिलाफ खेले जाने वाला खेल है। संविधान चाहता है हिन्दी राष्ट्रीय और देश की भाषा बने । लेकिन संसद के भीतर ही अंग्रेजी की महत्ता ठसक के साथ स्थापित की जाती है। संविधान के मूल में है कि जाति बंधन खत्म हो। लेकिन सियासत की समूची राजनीति ही जाति को एतिहासिक महत्व देते हुये बरकरार रखने पर आमादा है। संविधान धर्म से इतर राष्ट्रीय भावना को जागृत करने की दिशा में महत्वकांक्षा पाले हुये है। लेकिन धर्म को राजनीति का आधार बनाकर उसके अनुकुल राष्ट्र बनाने की सियासत होती है। संविधान हाशिये पर पड़े तबको को मुख्यधारा से जोड़ने के लिये कदम उठाने को कहता है। लेकिन उठाये जाने वाले कदम ही सियासी तौर पर ऐसे बना दिये गये हैं कि हाशिये पर पड़ा तबका सत्ता की सुविधा में ही खुद को मुख्यधारा से जुड़ा मानने लगे। यानी संविधान के जरिये देश को बांधने के बजाये अगर सत्ता के अनुरुप संविधान को बांधने का प्रयास होने लगे तो क्या हो सकता है यह मौजूदा परिस्थितियों को देखकर समझा जा सकता है। यानी लोकतंत्र या संविधान की दुहाई देकर अगर राजनीतिक दलों की सत्ता को चुनौती देने के लिये अब कोई राजनीति करे तो एक साथ तीन सवाल खड़े हो सकते हैं। पहला , राजनीतिक दल कहेंगे संविधान के लिहाज से आप भी राजनीतिक दल बनाइये और चुनाव लडकर सत्ता में आ कर दिखाइये । दूसरा, राजनीतिक दल सारा दोष जनता की भूमिका पर डाल देंगे। तीसरा,लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ आपको मान लिया जायेगा और लोकतंत्र को साधने के लिये संसदीय राजनीति को ही सबसे बेहतर करार दिया जायेगा । अगर बारिकी से समझे तो इन तीनों परिस्थितियों से कहीं ना कहीं अन्ना आंदोलन गुजरा । संसद के भीतर से अन्ना आंदोलन को संविधान विरोधी माना गया। सड़क से अन्ना आंदोलन को चुनाव लड़ कर अपनी बात साबित करने की चुनौती दी गई । और राजनीतिक तौर पर सारे संसदीय दल इस बात को लेकर एकमत हो गये कि अन्ना आंदोलन के सवालों का जवाब आखिरकार उसी संसदीय राजनीतिक व्यवस्था से निकलेगा जिसका विरोध अन्ना आंदोलन कर रहा है।

यानी जनता के वह प्रयोग गौण हो गये जिसे पहली बार बहुसंख्यक आम जनता अमल में लाने की दिशा में कदम बढा रही थी। तो क्या यह माना जाये कि अब सवाल सत्ता, सरकार या संसदीय राजनीति को लेकर करना बेवकूफी होगी। क्योंकि मुद्दों को लकर इस रास्ते का मतलब उसी चुनावी चक्रव्यूह में जाना है जहां पहले से मौजूद राजनीतिक खिलाड़ी कहीं ज्यादा सक्षम और हुनरमंद है। और यह रास्ता लोकतंत्र या संविधान परस्त नहीं है, क्योंकि इसके तौर तरीके एक खास खांचे में सत्ता बना देते है या बिगाड़ देते हैं। और इसे प्रभावित बनाने वाली ताकतें बिना वोट दिये ही बहुंसंख्यक वोटरों को प्रभावित कर देती हैं। यह सवाल कोई अबुझ पहेली नहीं है। क्योंकि आजादी के बाद से लेकर 2009 तक लोकतंत्र का सबसे मजबूत पाया वोटिंग के तौर तरीके बताते है कि राष्ट्रीय तौर पर जिसकी पहचान भी नहीं है वह मजबूत होता गया और जो राष्ट्रीय पार्टी का तमगा लिये घुम रहे है वह कमजोर होते चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं लोकतंत्र जीने के तौर तरीके ऐसे है कि पचास फिसदी वोटरों की तो भागीदारी ही नहीं होती। और जिसकी सत्ता बनती है उसका अपना चुनावी मैनिफेस्टो इस हद कर संविधान विरोधी होता है कि वह हर उस मुद्दे पर देश को बाँट चुका होता है जिसे संविधान जोड़ने की मशक्कत करने के लिये बार बार दोहराता है। जातिगत सत्ता की मलाई, आरक्षण की सुविधा, सरकारों के विकास ना करने की एवज में पैकेज और देश में किसान-मजदूरों, आदिवासियों को दो जून की रोटी ना दे पाने की स्थिति बरकरार रखने के लिये कल्याणकारी योजनाओं की फेरहिस्त। असर इसी का है कि 2009 में 70 करोड के वोटरों के देश में सिर्फ 29 करोड़ वोट ही पड़ते है। और एक करोड़ से भी कम वोट पाने वाले देश चलाने में लग जाते हैं। कांग्रेस को ही सिर्फ साढे ग्यारह करोड़ वोट मिलते हैं। तो ममता, करुणानिधि और शरद पवार या मुलायम, मायावती को कितने वोट मिले होंगे यह आप खुद ही सोच सकते हैं। मुश्किल यह नहीं है सत्ता की कुंजी उनके पास है। मुश्किल यह है कि देश की कुंजी इन्होने लोकतंत्र को बचाने के नाम पर या संविधान की रक्षा के नाम पर हथियाई हुई है।

नया सवाल यही से शुरु होता है । क्या यह वक्त आ गया है कि अब लोकतंत्र और संविधान विरोधी आंदोलन की शुरुआत इस देश में हो जाये। कोई भी कहेगा कि लोकतंत्र या संविधान में कहां खराबी है। खराबी तो राजनीतिक सत्ता में है। सरकारों में है। व्यवस्था में है। बदलना है तो उन्हें बदलें । आंदोलन उन्हीं के खिलाफ हो । संविधान तो देश की मूल भावना और उस दौर के मुश्किलात से कैसे जुझा जा सकता है इसको लेकर ही संविधान निर्माताओं ने संविधान बनाया है। लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में क्या वाकई कोई दिल पर हाथ रखकर कह सकता है कि संविधान पढ़ते वक्त उसके जहन में देश की जो परिकल्पाना उटती है देश वैसा ही है। उसी रास्ते पर है । यकीनन संविधान बनाते वक्त बाबा साहेब आंबेडकर हो या राजेन्द्र प्रासद या जवाहरलाल नेहरु या फिर सरदार पटेल अगर इनके जहन में संविधान के मद्देनजर देश को एक धागे में पिरोने का सपना था तो उसवक्त देश की कुल आबादी 36 करोड़ थी। आज उस वक्त के दौ भारत यानी 72 करोड से ज्यादा लोगो के लिये तो सरकार के पास कोई योजाना, कोई नीति है ही नहीं । अगर कुछ है तो राजनीतिक पैकेज या कल्याणकारी ऐसी योजनाये जिससे इनकी आर्थिक परिस्थितियां जस की तस रहें। 1895 के जेल मैनुअल के मुताबिक हर कैदी को जितनी कैलोरी हर दिन भोजन में मिलनी चाहिये । यकीन जानिये अगर सिर्फ इस कैलोरी वाले भोजन को ही लागू कर दिया जाये तो सरकार को जेल भोजन के लिये खाद्द सुरक्षा विधेयक से बड़ा कानून बनाना होगा। हर बरस कम से कम साठ लाख करोड का बोझ सरकार पर पड़ेगा। क्या यह लोकतंत्र की परिभाषा में फिट बैठती है। क्या संविधान बनाने वालों ने कभी ऐसा सोचा भी होगा। जाहिर है नहीं। तो फिर अब की सत्ता और सरकार उसी लोकतंत्र या संविधान की दुहाई क्यों देती है। जाहिर है संविधान के खिलाफ आंदोलन का मतलब यहाँ तानाशाही या लोकतंत्र विरोधी धुरी बनाना नहीं है। बल्कि संविधान को विस्तार देने के लिये उसमें राजनीतिक सत्ता के लोकतांत्रिक चोंचले और संविधान की आड में संस्थानों की वह व्याख्या भी है, जो यह मानने को तैयार नहीं है देश को इस वक्त भी अंग्रेजी हुकुमत की तर्ज पर हांका जा रहा है। फर्क सिर्फ इतना ही चंद हथेलियों में सब कुछ है और यह हथेलियां संविधान का घेरा बनाकर बार बार डराती हैं कि अगर आपने विरोध किया तो आपको गैर कानूनी से लेकर देश द्रोही तक ठहराया जा सकता है क्योंकि देश में कानून का राज है और कानून की व्याख्या न्यायपालिका करती है। और उसे लागू राजनीतिक सत्ता करवाती है। जिसे सरकार कहते हैं। और यह सरकार जनता की नुमाइंदा है। जिसे बकायदा लोकतांत्रिक तरीके से चुना गया है। और इस चुनी हुई सरकार को संविधान से ही मान्यता मिली है तो आप उसे चुनौती कैसे दे सकते है। (ब्लॉग से साभार)

Wednesday, August 1, 2012

नए दौर के हमारे नायक बाजारवाद के ही उत्पाद हैं


चिन्तामणि मिश्र  
 फिल्मों से कई दशक पहले रिटायर हो गए राजेश खन्ना के निधन पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा पक्ष-विपक्ष के कई नेताओं ने शोक प्रगट किया। मीडिया ने जीवन-चरित्र के रंगीन पृष्ठ छापे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो उनकी शवयात्रा और मरघट से सीधा जीवन्त प्रसारण किया। राजेश खन्ना साठ के दशक में बॉलीवुड के सुपरस्टार थे, फिर नई पीढ़ी ने नए सुपर स्टार गढ़ लिए और राजेश खन्ना हाशिए पर चले गए। कांग्रेस ने उन्हें राजनीति में उतारा। 1991 में वे नईदिल्ली की एक लोकसभा सीट से भारी मतों से निर्वाचित भी हुए किन्तु सियासत के सिनेमाघर में यह उनकी पहली और अंतिम फिल्म साबित हुई। वास्तव में मृत्यु किसी की भी हो, हमेशा दुखदायी होती है। विशेष रूप से वे तमाम लोग जो मृतक से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े होते हैं उन्हें मौत झकझोर देती है। जाहिर है कि हमारे देश के शासक और राज-नेता भी राजेश खन्ना से भावनात्मक रूप से जुड़े रहे होगें, इसलिए उनकी मौत से उनका दुखी होना स्वाभाविक है। मनुष्यता और सामाजिकता के नाते राजेश खन्ना के निधन से हर कोई दुखी है, किन्तु हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों को उन आम लोगों के असमय निधन पर जो प्रशासनिक अव्यस्था के शिकार हुए हैं, गहरा या उथला ही सही दुख क्यों नहीं होता? हमारी बस्ती का एक नौजवान अनजानी औरत को लूट का शिकार बना कर भाग रहे लुटेरे से निहत्था भिड़ गया और लुटेरे ने इस साहसी युवक पर छूरे से इतने वार किए कि बहादुर युवक गैर के लिए मारा गया। उसने अपने बच्चों, अपनी बीबी अपने परिवार के भविष्य के लिए कुछ नहीं सोचा। हमारे प्रधानमंत्री, हमारे महामहिम के पास ऐसे बहादुरों के लिए संवेदना और शोक प्रगट करने के लिए समय और शब्द का अकाल है। ऐसी दुखदायी घटनाएं देश में कहीं न कहीं होती रहती हैं, किन्तु इस तरह की त्रासदी के शिकार गरीब और चिरकुट होते हैं, अस्तु राजनैतिक दल तथा शासक इनके लिए कभी दुखी नहीं होते।
पिछले सात साल से कई लाख किसान सरकार की आर्थिक-कुनीति के कारण आत्महत्या करने के लिए विवश हुए, लेकिन शासकों के गिरोह के एक भी सदस्य की संवेदना देश के अन्नदाताओं के लिए कुलबुलाई तक नहीं। रस्म-अदायगी के लिए कभी सार्वजनिक रूप से किसी ने मुंह नहीं खोला। पश्चिम बंगाल में रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित विश्वभारती में वार्डन ने एक छात्रा को स्वमूत्र पीने के लिए बाध्य किया किन्तु इस अमानवीय और घिनौनी हरकत के लिए पीड़ित छात्रा से प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के पास संवेदना प्रगट करने के लिए अवकाश नहीं है। वे दुखी होते हैं सेलेब्रेटी बिरादरी के लिए। विश्वभारती की यह छात्रा इस बिरादरी की नहीं थी। अपने देश में आम आदमी की गिनती ङींगुरों में होती हैं, वे जिन्दा रहें या फिर मर जाए, हमारे भाग्य विधाताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता। प्रधानमंत्री इस संस्था के विजीटर भी हैं किन्तु इस छात्रा व उसके परिवार को संवेदना का एक शब्द भी उनके पास नहीं है।
वास्तव में हमारा आज का समय राष्ट्र के लिए समर्पित इस्पाती नायकों की विहीनता का समय है। हमने अपने पुराने नायकों को विदा कर दिया है। इन्हें पाठ्य-पुस्तकों और इतिहास से भी धकेलने का काम शुरू है। अब हमारे नायक फिल्मों और क्रिकेट की पिच से पैदा किए जा रहे हैं। इन चाकलेटी नायकों को राष्ट्र-सेवा और हाशिए में धकेल दिए गए करोड़ों वंचितों से कोई मतलब नहीं हैं। कथित लोग काले धन के रूप में करोड़ों- करोड़ रुपयों को बटोर कर किसी मंदिर में हीरों से जड़ा सोने का मुकुट और करोड़ों रुपए की रकम का गुप्तदान तो करते हैं, किन्तु छत-विहीन, जलविही न, रोटी-विहीन, दवा-विहीन, वस्त्र-विहीन, शिक्षा-विहीन करोड़ों अभागों के लिए जो गरीबी से भी गरीब हैं, उन पर एक रुपए भी खर्च करने के लिए अपना दायित्व नहीं समझते। क्रिकेट की चकाचौध में सटोरियों, फिक्सरों द्वारा लिखी गई पटकथा के अनुसार पिच में खेल की नौटंकी करते है। अब ऐसी विरादरी राष्ट्रनायक बना कर पेश की जा रही है। विडम्बना ही है कि देश के तारणहार इन्हें संसद में नामजद करके देश-दुनिया को पक्की बेशर्मी से यह सन्देश दे रहे हैं कि अब देश में बुद्धिजीवियों, विद्वानों का घनघोर अकाल है। नाचने वाले, गाने वाले, गिल्ली-डंडा खेलने वालों से हमारी संसद धन्य हो रही है। उसका मान बढ़ रहा है। बात यही खतम नहीं होती, उन्हें सेना में आनरेरी कमीशन देकर यह ऐलान करने का प्रयास किया जाता है कि चिकित्सा, समाजसेवा, शिक्षा, अभियांत्रिकी, विज्ञान,पत्रकारिता, साहित्य में कमाल करने वालों को आनरेरी कमीशन देकर सेना की साख नहीं गिराई जाएगी। कैसी महान सोच है हमारी छाती पर बैठ कर ठुमरी अलाप रहे शासकों की कि-नाचोगे, गाओगे, खेलोगे तो बनोगे नबाब, पढोगे, लिखोगे तो दो कौड़ी के रहोगे जनाब।
भारत रत्न हमारा सर्वोच्च सम्मान है। इसकी कसौटी यह होनी चाहिए कि कोई ऐसी हस्ती जिसने अपने वक्त के सम्पूर्ण भारतीय समाज को इतनी गहराई से प्रभावित किया कि जिसकी सुगन्ध आने वाले लम्बे समय तक फैलती रहेगी। किन्तु ऐसा नहीं है, सत्ता के गलियारों में विचरण करती कठपुतलियां फैसले लेती हैं जो गलत लोगों को आगे बढ़ाती हैं, गलत फैसले लेती है। देश का रत्न जिसे हम कह सके वह कोई अच्छा खिलाड़ी हो यह नाकाफी है। पिछले दिनों क्रिकेट के बेहतरीन खिलाड़ी को भारत रत्न देने की जोरदार मुहिम चली जो अभी भी चल रही है। वे बहुत अच्छे खिलाड़ी हैं, किन्तु इतना ही काफी नहीं है। सामाजिक, सांस्कृतिक, इंसानियत आदि हर स्तर पर भी जिसने गहराई से प्रभाव छोड़ा है यह भी कसौटी में शामिल होना चाहिए। असल में पिछले तीन दशक से देश में एक ऐसा खाया-अघाया और सम्पन्न समाज वाला सामंती राजनेताओं का कबीला विकसित होता जा रहा है, जिसे देश के फटेहाल तथा मजबूर बना दिए गए लोगों से कोई लेना देना नहीं है। यह बाजारवाद की देन है।
बाजारवाद का इस समय भक्तिकाल चल रहा है। बाजार हमें अपने नायक और महानायक फिल्म व क्रिकेट से गढ़ कर दे रहा है और हम इनकी आरती उतारने के लिए थाल सजाए गदगद हो रहे हैं। काली कमाई और गैरजिम्मेवारी के साथ अंहकार के कीचड़ में डूबे यह लोग बाजार के ही उत्पाद हैं। इनको महिमा मंडित करने के लिए वक्त के सुलतान गले में ढोलक डाले सोहर गा रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।)