Thursday, July 12, 2012

प्रशंसा लोक का स्वप्निल यथार्थ

 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
 प्रशंसा प्रिय होना मनुष्य का सहज स्वभाव है, इसीलिए वह प्रशंसा करना और प्रशंसित होना चाहता है। अच्छे कार्यों और गुणों की प्रशंसा साहित्य और लोक में सदैव से होती रही है। प्रशंसा, उत्साहवर्धन कराती है, परंतु कभी-कभी अनावश्यक प्रशंसा से मनुष्य का सिर भी फिर जाता है और वह जितना होता नहीं मान लेता है और वहीं से वह हास्य का पात्र या निन्दा की वस्तु बन जाता है। साहित्य में उदात्तता की प्रधानता ही उसका मूल्य निर्धारित करती है, बशर्ते उसके लोक कल्याण की भावना सन्नहित हो, परंतु पर्याप्त लोक रंजन भी हो। बिना लोकरंजन के वह बोझिल और अग्राह्य हो जाएगा। दर्शन और अध्यात्म की तरह वह चिंतन विशिष्टों का होकर रह जाएगा। सामान्य शिष्ट भी अपशिष्ट होकर रह जाएंगे। इसी कारण द्वैत-अद्वैत की चिंतन परंपरा जनचेतना का विषय कभी नहीं बन सकी। प्रबंधों के लिए भले ही समन्वय आवश्यक हो, लेकिन मुक्तकों में छूट की गुंजाइश है। भय से उपजे भाव ने प्रार्थनाएं कीं, यह श्रुति परंपरा का प्राथमिक आख्यान है। ‘कस्मै देवाय हविषा विद्येम’ के भाव में डर पैदा करने वाले की प्रशंसा से भयमुक्ति की संभावना बता देता है। ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ के अनुसार एक ही हरि की अनंत कथाएं विचारकों और कवियों ने कही है। वाल्मीकि के राम से लेकर भवभूति, तुलसी, केशव, रघुराज सिंह, राम हर्षण, भगवान सिंह के अपने अपने राम हैं। अपने सम्प्रदाय में सभी चर्चित और अप्रतिम  भी। प्रशंसा की अति और कहने के ढंग की विचित्रता को ही अतिशयोक्ति और उक्ति वैचित्रय कहा जाता है। लोक साहित्य में भी इसकी अबाध-परम्परा है।
     हिन्दी साहित्य के आदिकाल से लेकर आधुनिक काल के प्रारंभ तक विरुदावलियों एवं प्रशंसात्मक कविताओं की भरमार है। वीरगाथाओं में नायक की जोड़ का कोई होता ही नहीं था। ‘रासो से लेकर भूषण तक’ की अतिशयोक्तियों का कोई जबाव नहीं। सूफियों की नायिकाओं का क्या कहना-बेणी (जूड़ा) के बाल जब खुलते हैं तब सरग से पाताल तक अंधेरा छा जाता है। ‘ओनई घटा परी जग छांहा’ का काल्पनिक सौंदर्य सचमुच नेत्रों की कोर चौड़ी कर देता है, आश्चर्य भरी मुस्कराहट अधरों पर सहज रूप से आ जाती है। विरह में जल-भरने से कौए और भौंरे काले हो गए, परबर पक गए। गेहंू का हृदय फट गया। तुलसी के राम और सीता का सौंदर्य तो दैवीय है, व्यतिरेक उपमान-रूपक तो कहीं ठहरते नहीं। कल्पना करें-‘नील सरोवर श्याम, अरुण-तरुण-वारिज-नयन’ और ‘नीलावुंज श्यामल कोमलांग’ रूपधारी व्यक्ति आपके सामने आ जाए, उसे देखकर मुगध होंगे कि क्षुब्ध। आजकल बहुरूपिये जब स्वांग बनाकर सड़कों पर दिखते हैं तब कौन सा सौंदर्य बोध उत्पन्न होता है। विरहिणी जब सांस लेती है, छोड़ती है, तो छ: सात हाथ आगे-पीछे होती है ऐसा लगता है कि वह हिंडाले पर बैठी श्वास-प्रश्वास से झूल रही है। कल्पना की इंतिहा तो तब हो जाती है जब ‘चन्द्र के भरम, मोद होत है कमोदिन को, ससि शंक, पंकजिनी फूल न सकति है’ ऐसी स्थिति शिशिर के सूर्य की, ‘सेनापति’ की कविता में होती है।  समूचा रीतिकाल, कुछ अपवादों को छोड़कर इसी ऊहा, अजूबा और अति से भरा हुआ है।
    लोक काव्य की कल्पनाएं भी उत्कृष्ट साहित्य से कम प्रभावित नहीं  हुई। कहावतों लोकोक्तियों में जहां समाज का यथार्थ है, वहीं उनके कूटों, पहेलियों और बुझौवल में कल्पना की ऊंची उड़ान भी है। ‘सरग नसेनी’, ‘धूसर की रसरी’, और ‘आकाश में धोती का सूखना’ कल्पना शक्ति की व्यंजना है। कबीर, तुलसी, सूर, इसीलिए बड़े कवि हो सके कि उनके काव्यों में लोक तत्वों की भरमार है। उपर्युक्त सौंदर्य वर्णनों में कम-अधिक की विवेचना अपनी पसंद पर निर्भर है। सीता का सौंदर्य तुलसी की आंखों का सौंदर्य है। सीता शब्द से सौंदर्य का कोई बोध नहीं होता, लेकिन ‘मन्द-उदरी’(मन्दोदरी) शब्द तो सौंदर्य का प्रतिमान है। जायसी के नायिका की कमर बर्र(ततैया) के मध्य भाग की तरह है।  परंतु मंदोदरी के सौंदर्य, विवेक और रावण से अविच्छिन्न प्रेम की मिसाल सिर्फ महसूस की जा सकती है,। कवियों के पहुंच से भी बाहर रहा आया उसका एकनिष्ठ प्रेम। कोमल से कोमलांगी शब्द बना है। सुकुमारियां कोमलकाय होती हैं, चिकनी-तनु, नाजुक, तन्वी, तन्वंगी, नाजनीन, मृदुल, लोचदार, सौम्य, सुकुमार भी होती हंै।
     बीते दिनों गांव गया था। हमारे क्षेत्र के योग्यतम शिक्षक, गुरु, रिश्ते में मेरे बाबा अब स्वर्गीय के शिक्षक पुत्र ने उनके संकलित किए अतिरंजित सात अजूबे दिखाए। लोक में सुकुमारितास की आश्चर्यजनक पहेली है। मन ने इन्हें पढ़कर महसूस किया कि तेरे जैसा कहीं, कोई, देखा, न सुना। इन्हें पाठकों के साथ शेयर (बांटना) करना चाहता है। पाठक भी सबसे सुकुमार नायिका खोजें- देखें कौन हातिमताई, ख्वाजा नसरुद्दीन, तेनालीराम या बीरबल बनकर सर्वोत्तम हल निकालता है। एक ने कहा- एक दिन भात के मांड को कपड़े से छानकर पीने वाली सुकुमारी का वर्ष भर पेट दर्द करता रहा। वह पंडितों से पूछती है कि वर्ष भर अन्न खाने वाले कैसे जीते होंगे- कपड़ा क छाना मैं पियौं मांड़, बरिस दिना मोर पेट पिरान। ऐ पंडित! मैं पूछौं तोंसे अन्न खाय नर जीवैं कैसे। दूसरी बोली-‘मकड़ी के जाल के पहिरेंउ चीर, छिल्ल गइ मोर सगल शरीर/ ए पंडित! मैं पूछौं तोंसे, वस्त्र पहिन नर जीवैं कैसे।’ मकड़ी के जाले का   वस्त्र पहनने से शरीर छिलने वाली सुकुमारी इस बात से चिंतित है कि वस्त्र पहनने वाले कैसे जीते होेंगे। तीसरी कहां कम थी- ‘दही जमायों मैं बड़मोर, दही क फांस गड़ा मोर पोर। ए पंडित मैं पूछौं तोसे, दही खाय नर जीवैं कैसे?’ चौथी बोल पड़ी- म्यांना चढ़ि चल्यौं नहाइ, बरिस दिन मोर कूल पिरान। ए पंडित मैं पूछौं तोंसे, रह चलुआ नर जीवैं कैसे। पांचवीं ने कहा-‘एक खोंखइले से उड़ी पांखी, ओका उड़त देखि मोर आंखि/ वोंहि पांखी क लाग बतास, उड़ि गयो मैं कोस पचास।’ छठी हंसकर बोली-‘एक परोसिन कूटिस धान, ओकर शब्द परा मोरे कान/ओ बटखरा ऐसा छरा, हमरे हाथ म छाला परा।’ सातवीं कहां कमजोर थी बोली-‘पान क पत्ता खायन, बरिस दिन मोर डाढ़ पिरान। ए पंडित ! मैं पूछौं तोसें, बीड़ा खाय नर जीवै कैसे ।  लोकायन में इसका उत्तर अपेक्षित है कि इन सात सुकुमारियों में सबसे नाजुक-नाजनीन कौन है? एक से बढ़कर एक सुकुमारिता सुनकर दांतों तले अंगुली स्वयंमेव दब जाती है इनके पांव जमीन में पड़ते ही मैले हो जाने की संभावना है।
                                  - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
                                          सम्पर्क सूत्र - 09407041430.

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