Wednesday, June 27, 2012

धरती माता की तपस्या का सुफल


चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
 ग्रीष्म का तापमान पिछले कुछ वर्षों से लगातार बढ़ रहा है। इस साल पारा सैंतालीस पार पहुंच गया। यूं भी पारे के तापमान और धरती के प्यारे-मनुष्य के तापमान के पीछे उसी के कर्मफल हैं। ये तापमान शहरों के हैं, शहरी लोग हाय-हाय कर रहे हैं। पसीना उनके शरीर से बह रहा है। वे कहीं, किसी से मिलकर सिर्फ गर्मी का रोना रो रहे हैं। खस की टट्टियों  और कूलर की ठंडी हवा होने के बावजूद उनका रोना जारी है। गांव खुश है कि अच्छी गर्मी पड़ रही है, उसके पास न खस है न कूलर, पसीना बह रहा है, फिर भी खुश है, क्योंकि उसका मानना है कि अच्छी गर्मी ही अच्छी बरसात लाएगी। शहरी गर्मी, वर्षा, सर्दी सबसे परेशान होता है। तापमान शहरों का ही बताया जाता है गांव पारा नहीं जानता। बीस प्रतिशत शहरियों के तापमान से अखबार, रेडियो, टीवी छाये हैं। अस्सी प्रतिशत लोग ग्रीष्म की तपन आश्वस्त भाव से ले रहे हैं। शहर की सड़कों पर दोपहर में सन्नाटा है, गांव जाग रहा है। बच्चे आम-पेड़ के नीचे फलों की रखवाली करते हुए बगीचे में कभी कबड्डी और सुटुर्रा खेलते थे, अब क्रिकेट का आईपीएल खेल रहे हैं। मां-बहनें अमचूर-अमहरी-छूना के चक्कर में खुशी-खुशी दोपहर ओसारी या देहरी पर वर्ष भर का इंतजाम कर रही हैं। ऋतुएं प्रतिवर्ष आती हैं, आयेंगी उनका स्वागत उनके अनुकूल होता रहा है, होता रहेगा। गांवों में तेंदूपत्ता तोड़ने, कहीं महुआ के फल पीटने, बीज निकालने के काम हैं। किसान खेतिहर, मजूर कोई खाली नहीं है। पहले खेतों में खन्नी-मेड़ के काम, खादी गोबर-राख फेंकने के काम थे, अब मनरेगा में मसकल्ला मारने और बिना कुछ किए मजूरी पाने के हक में उतान हैं, गन्त हैं।
 ग्रीष्म की भयावहता हमेशा से रही है। कवियों ने इसका अतिरंजित, किंबहुना, यथार्थ चित्रण किया है। सेनापति ने वृष राशि के सूर्य को धरती पर अपनी हजारों किरणों से लपटों का जाल फेंकते हुए देखा है। आग बरस रही है, संसार जल रहा है, (कवियों का संसार उनके आस-पास ही होता है।) ठंडी छाया की तलाश में पंथी और पंछी भटक रहे हैं। थोड़ी दोपहर बीतते ही उमस बढ़ जाती है और पत्तों का डोलना भी बन्द हो जाता है। कवि कहता है कि मुझे लगता है कि हवा भी किसी ठंडी जगह में बैठकर एक घरी घाम बीतने के इंतजार में हैं, इसीलिए पत्ते नहीं डोल रहे, उसम बढ़ी है। इस समय इस यथार्थ दृश्य की अनदेखी करना गर्मी को कमतर आंकना है। शहर में लू चलती है, गांव में लुआरि बहती है। घाम भी ‘चरेर’ और ‘कोमर’ होता है जो सहने की सीमा निश्चित करता है, गांव कंक्रीट के मकानों से अभी मुक्त हैं। कच्चे मकानों में प्राय: गरीब के भी पटौंहा होता है। जिसमें सभी बच्चे-वृद्ध कथरी बिछाकर एसी का सुख भोगते हैं। एक लोकोक्ति वहां का सूत्र वाक्य है- ‘नारि, पटौंहा, कूप-जल, अरु बरगद की छांह। गर्मी  में ठंडात है, ठंडी में गरमाय।’  मां के पेट में छुपके बच्चे गुड़ी-मुड़ी (गोड़-मूड़ पानी सिर-पैर) अंग्रेजी के आठ अंक बन कर ठंडी की रात में एक खोल या पिछौरी में काट देते थे। गर्मी की तपन को भी ठेंगा दिखाते हैं। मां के पेट से ठंडी जगह बच्चों के लिए कहीं नहीं। कोठरी जिसकी छत मिट्टी की हो, कु एं का जल और बरगद की छाया सम्पूर्ण लू और सर्दी को चुनौती देते हैं। अब न तो बच्चों को मां का वह स्पर्श मिलता है। बच्चे के लिए अलग बिस्तर होने लगा। तीस-चालीस वर्ष पहले बच्चे बारह-चौदह बरस तक मां के साथ, दादा-दादी के साथ सोते थे। बरगद के दिन जरूर लौटे हैं इस लू के दिनों में उसकी पूजा होती है। शायद इसलिए कि ग्रीष्म को खुली चुनौती लहलहाते पत्तों के साथ सिर्फ वही देता है।
    ग्रीष्म, इंतजाम की ऋतु है। वर्ष भर की व्यवस्था की योजना का महीना जेठ है। जेठ का अर्थ ज्येष्ठ अर्थात (प्रथम) बड़ा है। बारह महीनों में सबसे बड़ा, ऐसा लगता है कि वर्ष की गिनती के क्रम में जेठ पहला महीना होता था। आज भी गांवों में जेठ-अषाढ़ से ही गिनती प्रारंभ करते हैं। बड़ा है तो तपेगा ही? सभी बड़े छोटों को तपाते ही हैं। ताप और गर्मी का पुराना संबंध है। साधक लोग तपस्या करते थे, पंचाग्नि जलाते थे। शरीर की चमड़ी को सुखाकर संवेदन रहित करते थे, तब तपस्या फलीभूत होती थी। धरती की साधना की ऋतु है, ग्रीष्म। पेड़-पौधों की परीक्षा, पंथी-पक्षी की परीक्षा, जड़-चेतन की परीक्षा, साधना की उस मुद्रा में सिर और कान में अगांैछा बांधे लोग सूरज के ताप से दो-दो हाथ करते हैं। धूल पर नंगे पांव चलकर पार होना, किसी अग्नि पर चलने से कम नहीं है। अग्नि परीक्षा पूरा गांव महीने भर देता है परंतु उसका रिकार्ड किसी सरकारी फाइल में नहीं है।
     इन दिनों गरीबों के भी पेट की आग शांत है। शाम को ही गगरी में महुआ के सूखे फूल धो-साफ कर कंडे-उपरी की आग में चूल्हे पर चढ़ा दिये गये हैं। स्वाद के लिए चना अथवा छीला हुआ आम डाल देते हैं। सुबह तक महुआ पककर छुहारे की तरह हो जाता है। चने और आम के अतिरिक्त दही के साथ डोभरी खाने का आनंद स्वर्गिक हैं। डोभरी खाने का आनंद ग्रीष्म में ही है। खाने के बाद की नींद और बहते पसीने सा सुख कहीं नहीं। शहरी पसीने की चिपचिपाहट उसमें नहीं। गर्मी के इस सुख का वर्णन एक बिरहा में देखें-बड़े सकारे लाई-महुआ, दुपहर रोटी-दार/ दिन बूड़त का   बनी महेरी, सजन! मोर गरजि नहिं आइ। संतुष्टि के इस सुख पर तो सारी कायनात के ऐश्वर्य न्यौछावर हो जाएं। गर्मी के दिनों में खेतों में बहने वाले पसीने का फल ही है, दोनों की मिठास! जब से किसान का पसीना खेतों में बहना बंद हो गया है, अन्न से मिठास चली गई है, भले ही दाने सुन्दर और चमकदार हों।
  महाकवि बिहारी ने ठीक ही कहा है कि ‘उमस कहल’ और प्रचंड गर्मी की मार से सारा संसार तपोवन की तरह लगता है जहां सूर्य, मोर, हिरण और बाघ एक साथ बैठे हैं ‘कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ/ जगत तपोवन सों कियो, दीरघ दाघ निदाघ।’ लू के थपेड़े अपनी पूरी ताकत से हवा को धमका रहे हैं। प्रकृति देख-सुन-सह रही है। मजदूर की गैंती कुंद हो गई खन्ती खोदते-खोदते, और नपिया ने आकर चार सइका खन्ती को तीन बताकर नाच गया, उसे शोषण की किस परिभाषा से निरखेंगे। अमोल बटरोही की एक कविता का उनमान देखें-‘गैंती गोठाइ जाइ, भुंइ जाक मारि जाय, हम खनी जब जेठ कइ दुपहरी लजाइ जाय/ नपिया जो आइ जाइ, लट्ठा लगाइ जाइ, चारि सइका खंती तीन सइका बताइ जाइ/ तऊ संतोस करी, राम जपी घरी घरी/’ संतुष्टि का यह भाव वरेण्य है।
                                - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
                                        सम्पर्क सूत्र - 09407041430.

No comments:

Post a Comment