Wednesday, June 27, 2012

ईमानदारी की हांडी में काली दाल


चिन्तामणि मिश्र
 टी म अन्ना ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर कोयला ब्लाकों के आवंटन में भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है और एक हजार पृष्ठों के दस्तावेजी प्रमाण उन्हें भेज कर जवाब मांगा है। यह कारनामा उस समय का बताया जाता है, जब प्रधानमंत्री के पास कोयला मंत्रालय का भी प्रभार था। आरोप है कि आवंटन में बहुत भारी तादाद में रकम बनाई गई और सरकार को भारी हानि हुई। जाहिर है कि प्रधानमंत्री जैसे पद पर बैठे व्यक्ति पर भ्रष्टाचार का आरोप लगेगा तो वह चिल्लर जैसी टुच्ची रकम का तो होगा नहीं। प्रधानमंत्री ने इन आरोपों को दुर्भाग्यपूर्ण और गैर जिम्मेदाराना बताते हुए नकार दिया और कहा है कि उनका जीवन खुली हुई किताब की तरह है। यदि उनके खिलाफ आरोप सिद्ध होते हैं तो वे सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लेंगे। कितनी भोली किन्तु चटखारेदार सफाई है। सरकार  प्रधानमंत्री पर लगे ऐसे संगीन आरोपों की किसी स्वतंत्र जांच कमेटी से जब जांच ही नहीं कराना चाहती तो कैसे पता चलेगा कि आरोप झूठे हैं। जब कोई जांच ही नहीं होनी है तो आला-हजरत संन्यासी बनने के झंझट से भी बच गए। हालांकि प्रधानमंत्री को अपनी साख और कोयले की कोठरी से पाक-साफ निकलने का बेहतरीन मौका है, कि वे अपनी अग्नि-परीक्षा देकर विरोधियों को हमेशा के लिए मौन कर सकते थे। यदि उन्हें अपनी ईमानदारी पर इतना विश्वास है तो जांच कराने से परहेज क्यों? यह किसी के समझ में नहीं आ रहा है।
     इसे तो सारा देश जानता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह योग्य, मेहनती और व्यक्तिगत रूप से ईमानदार हैं। कहते हैं कि वे रोज सोलह घन्टे फाइलों के बीच रहते हैं। वे अर्थशास्त्र में विदेश से डॉक्ट्रेट किए हैं। भारत सरकार के नौकरशाह रह चुके हैं। वे पेंनशरों की जिन्दगी बिता रहे थे, किन्तु कांग्रेस ने नरसिंहराव के मंत्रिमंडल में उन्हें वित्त मंत्री बना दिया। फिर जब कांग्रेस की मिली-जुली सरकार बनी तो उन्हें प्रधानमंत्री के पद पर बैठा दिया गया। मेरे विचार से केवल इतनी ही विशेषताओं से उनकी ताजपोशी नहीं की गई। लगता है कि कांगे्रस उन्हें प्रधानमंत्री पद पर इसलिए लाई कि उनकी निजी तौर पर कोई महत्वाकांक्षा नहीं रही। वे नौकरशाह की अपनी लम्बी पारी में शक्ति केन्द्र के समक्ष यस सर कहने और इसी के अनुरूप फैसला लेने की आदत के आदी हो चुके थे और कांगे्रस को ऐसे ही मुखौटे की अपने लिए तलाश थी। ऐसा योग्य प्रधानमंत्री कांग्रेस को मिलना कठिन था, कि जिसके मंत्री अरबों-खरबों का घोटाला करते रहें और प्रधानमंत्री अपनी ईमानदारी की राम-नामी चादर ओढ़े गठबंधन सरकारों की मजबूरी का देश को प्रवचन देते रहें। देश आज तक वह नहीं समझ पाया कि ऐसे दलों को जिनके पास भारत जैसे विविधता वाले देश के प्रजातंत्र को चलाने का विजन ही नदारद है। उनका काकटेल बना कर सरकार गठित करने की क्या बाध्यता थी? क्या प्रधानमंत्री को किसी डॉक्टर ने सलाह दी थी कि वे अपनी सेहत के लिए ऐसा करें। केन्द्र में एक पार्टी का बहुमत अगर किसी को नहीं मिला था तो फिर से चुनाव हो जाने देते। कम से कम देश की ऐसी दुर्दशा तो न होती। इतिहास में उनकी सरकार को अभी तक की सरकारों में सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार के रूप में दर्ज तो न करता ।
          उनके मंत्री भ्रष्टाचार की दौड़ में हर लक्ष्मण रेखा को पार करते जा रहे हैं। रोज नए-नए कांड उजागर हो रहे हैं और प्रधानमंत्री टुकुर-टुकुर ताकते जा रहे हैं। जिम्मेवारी से बचने के लिए शब्द-जाल बहुत कमजोर होते हैं। प्रशासक में जो गुण होने चाहिए वे उनमें हैं, किन्तु लोकतंत्र के लिए एक शासक में जो सब से बड़ा गुण होना चाहिए वह उनमें है ही नहीं- वह है जनता से जुड़ाव। राज्यसभा का सदस्य बन कर संविधान की औपचारिकता पूरी की जा सकती है, किन्तु जनता से जीवन्त संवाद का सिलसिला नहीं चल सकता। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने से यह हौसला नहीं आ जाता है। केन्द्र सरकार इसका दुखद प्रमाण है। पूरा शासन नगरपालिका की तरह चल रहा है। चौतरफा ढिलाई, दायित्वहीनता और भगौड़ापन बढ़ गया है। प्रधानमंत्री का राजनीतिक भोलापन और उनकी उनकी निर्विकार मुख-मुद्रा श्रद्धा को तो जन्म दे सकती है, किन्तु उनकी ईमानदारी और भोलेपन को यह देश ओढ़े या बिछाए? सूझ-बूझ और साहस का अभाव नेतृत्व के लिए कालसर्प योग की तरह है। इसके चलते वे वैचारिक हालात का सामना करने से भी झिझकते हैं। किसी तरह बहाने बना कर, दूसरों से मदद की अपेक्षा करते हुए जो स्वर्ग मिला है उसको भोग लेना टाइमपास करना कहलाता है। यह विशेषता हर नौकरशाह में होती है।
      मनमोहन सिंह ने इस धारणा को भी शायद झुठलाने की ओर कदम बढ़ा दिए हैं कि शिखर पर बैठा हुआ व्यक्ति अगर ईमानदार हो तो सरकार भी ईमानदारी से चलती है  और अगर ऊपर भी बेईमान बैठा हो तो, फिर देश का भगवान ही मालिक होता है। अब यह कोई पहेली नहीं रह गई है कि हमारे देश का मालिक भगवान ही है। प्रधानमंत्री की हर मौके पर चुप्पी और कमजोरी से देश की अर्थव्यवस्था पाताल लोक जा चुकी है। उनका रवैया राजनेता जैसा है ही नहीं। राजनेता देश के प्रश्नों पर इतनी कमजोर न तो प्रतिक्रिया करता है और न साहस से दूर भागता है। ऐसा साफतौर पर सभी को लगता है कि वे   प्रधानमंत्री पद की नौकरी बजा रहे हैं। जनादेश लेकर आया हुआ प्रधानमंत्री टीम अन्ना के आरोपों पर अपनी ऐसी प्रतिक्रिया या सफाई नहीं देता। प्रधानमंत्री खुद को पाक-साफ बता कर और किसी भी जांच से पलायन करने की बात कह कर क्यों अपने लिए देश में प्रचलित कानून से बचना चाहते हैं? अभी देश में तो यही कानून है कि जिस पर आरोप लगाया जाता है उसको अपनी सफाई देने का मौका तो दिया जाता है किन्तु केवल उसके यह कह देने से कि वह बेकसूर है जांच और अभियोजन की प्रक्रिया बंद नहीं की जा सकती। हर आरोपी खुद को बेकसूर ही कहता है। हम नहीं जानते कि हमारे प्रधानमंत्री किसी घपले में दोषी हैं या टीम अन्ना द्वारा जड़े गए आरोप सच हैं। परन्तु देश यह जरूर जानना चाहता है कि जो आरोप उछाले गए हैं तो उनकी जांच कराने में हर्ज ही क्या है? यह भी तो हो सकता है कि कोयला ब्लाकों के आवटंन में प्रधानमंत्री ने कोई अवैध कमाई नहीं की हो सकती किन्तु उनके कार्यालय ने या फिर उनकी पार्टी के शक्ति केन्द्र ने रसगुल्लों की कड़ाही से कुछ शीरा निकाला भी तो हो सकता है।
                                            - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक है।                                          
                                                 सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

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