Monday, June 4, 2012

आपन जात कबीर की

भी-कभी सोचता हूं कि आज के दौर में कबीर होते तो क्या होता? कबीर जीवन भर सत्ताओं की आंखों में भटकटैया की तरह गड़ते रहे। राजसत्ता के भी, धर्मसत्ता के भी। एक ओर इब्राहीम लोदी की सल्तनत को फटकारते रहे, दूसरी ओर काशी के पन्डों और पोंगापंथियों की खोज खबर लेते रहे। इब्राहीम लोदी की सल्तनत की क्रूरता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि लखनऊ के एक सूफी विद्वान को खौलते कड़ाह में इसलिए डलवा दिया क्योंकि उसने इस्लाम की कट्टरता और दकियानूसीपन पर खुलेआम टिप्पणी कर दी थी। इधर काशी की गलियों में कबीरदास मुल्ला और पण्डों को फटकराते हुए अपनी मंडली के साथ गाते रहे कि ‘कांकर-पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय। ता चढ़ि मुल्ला बाग दे बहिरा हुआ खुदाय’। या फिर ‘पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार। ताते या चाकी भली पीस खाय संसार’। यह कबीर का आत्मबल और ‘लोक’ के बीच उनकी मास अपील का चमत्कार था कि दिल्ली के क्रूर सुल्तान इब्राहीम लोदी की हिम्मत नहीं हुई कि कबीर का बाल भी बांका कर सके। न ही बनारस की धर्मसत्ता में इतना साहस था कि वे कबीर को काशी से निष्कासित कर दें। बर्बर और दमनकारी कहे जाने वाले मध्ययुग में भी इतनी सहिष्णुता शेष बची थी कि खरी-खरी कहने वाले कबीर और उनकी मंडली न सिर्फ जिन्दा व सही सलामत बची रही अपितु उनके पंथ का इतना विस्तार हुआ कि देश के कई राजे रजवाड़े उनके चेले हो गए। अपने रीवा राज्य के महाराज वीर सिंह जूदेव कबीर के बड़े अनुयायी थे। तब बांधवगद्दी का विस्तार रतनपुर (बिलासपुर) तक था। कबीर पंथ का प्रभाव आज भी छत्तीसगढ़ और पुराने रीवा राज्य में दिखता है।
बहरहाल आज हम जिस दौर में जी रहे हैं, उस दौर में कबीर का गुजर-बसर कैसे होता कल्पना करिए। देवबंद उनका सर कलम करने के लिए अलग फतवा जारी करता और विहिप-बजरंग दल त्रिशूल-बाना-भाला लिए ढूंढते फिरते। महान चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को अंतकाल में उनके मादर-ए-वतन में दो गज जमीन भी नसीब नहीं हुई कि उनके पार्थिव शरीर को सुपुर्द-ए-खाक किया जा सके। कट्टरपंथियों ने उस हुसैन को देश निकाला दिया था, जिसने डॉक्टर राममनोहर लोहिया के कहने पर हैदराबाद में ब्रदीविशाल पित्ती के घर में 12 वर्ष एकांत बिताकर रामायण का सजीव चित्रांकन किया था। हुसैन की वो कृतियां आज भारतीय कला संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। शैतान की आयतें (सैटनिक-वर्सेस) लिखने वाले सलमान रुश्दी के आने की खबर मात्र से हलचल मच जाती है। सरकारें कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक देती हैं। समकालीन समाज की विद्रूपताओं, औरतों के शोषण और दमन को उपन्यासों में उद्घाटित करने वाली तस्लीमा नसरीन को देश निकाला (बांगलादेश) मिलता है। और वह दृश्य आज भी ताजा हो जाता है जब हैदराबाद के एक साहित्यिक समारोह में इस महिला के साथ इस्लाम के धरम-धुरंधरों ने अपनी मर्दानगी दिखाई। ‘साहबानों’ के हक के खिलाफ हमारी राजसत्ता संविधान में संशोधन कर देती। और इस्लामिक कट्टरपंथियों को नसीहत देने का माद्दा रखने वाले डॉ. राही मासूम रजा जब महाभारत ‘सीरियल’ के डायलाग्स लिख रहे होते हैं तब हिन्दू कट्टरपंथी उन्हें धमकाते हैं कि एक मुसलमान हमारे धर्मग्रंथ पर अपनी कलम क्यों चल रहा है।देश में सहिष्णुता गर्त में मिल गई। पाखण्ड के खिलाफ अपना  घर जारते हुए कोई मसाल थामने को तैयार नहीं। कबीर ने कहा था ‘जो घर जारे आपना चले हमारे साथ’ पाखण्ड के खिलाफ मोर्चा लेना आसान नहीं। आज देश में राजसत्ता के समानांतर धर्मसत्ता है। कबीर लोकमंगल-लोकचेतना के लिए अपना घर जारने को तत्पर थे, आज के धरम-धुरंधर अपना घर भर रहे हैं। महलनुमा आश्रमों में अरबों की दौलत इकट्ठी है। नित्यानंद-निर्मलबाबा जैसे स्वामियों के महलों के तलघर में नवाबों की तरह हरम हैं। यहां कीर्तन के साथ व्यभिचार होते हैं। हाल ही में एक बाबाजी मर गए। नाम था जय गुरुदेव। खुद को परमात्मा घोषित कर चुके बाबाजी चेलों को उपदेश देते थे कि वे कपड़ों की बजाय टाट के वस्त्र पहनें। कम खाएं, गम खाएं, खुश रहें व धरम के लिए कमाई का हिस्सा चढोत्री चढ़ाएं। अखबारों में पढ़ने से मालूम हुआ कि टाट वाले बाबा के बड़े ठाट थे। 12 हजार करोड़ की मिल्कियत निकली। बीएमडब्लू, रोल्सरायस, मर्सडीज जैसी महंगी गाड़ियों का बेड़ा था उनके-पास। सोने-चांदी के सिंहासन, पलंग, बर्तन-बाथरूम। धर्मभीरू जनता को दुहना कितना आसान है। एक निर्मल बाबा हैं कमाई का दसबंद मांगते हैं, फिर कृपा करते हैं। कृपा खरीदने वालों की संख्या इतनी हुई कि निर्मल बाबा का टर्न ओवर एक साल में ही सैकड़ों करोड़ का हो गया।रामदेव की मंडली और कई समाजसेवी नेता विदेशों में जमा कालेधन को वापस लेने की आवाज उठाते हैं। आज तक किसी कोने से आवाज नहीं उठी कि धरम के इन पाखंडियों की अरबों-खरबों की काली कमाई को देशहित में जब्त किया जाए। विदेशों में कालेधन की बात तो महज-जुबानी-जमा खर्च है, पर इन पाखंडियों की बेसुमार दौलत इनके ऐशोआराम तो आखों से दिखता है। बाबाओं के आश्रमों की जमापूंजी को जब्त करने की शुरुआत बाबा रामदेव से ही की जानी चाहिए। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र की रचना रामदेव की दुकान सजाने के लिए नहीं की थी। लोककल्याण के लिए की   थी। ये बाबा-स्वामी-महंत, आचार्य लोग अपने प्रवचनों में विदेशी कालाधन की बात इसलिए करते हैं ताकि उनके कालेधन की ओर कानून की नजर न जाए। यदि आज कबीर होते तो हाथ में जलती हुई लुकाठी लेकर देश की जनता-जनार्दन का आह्वान करते, उनका अगुआ बनते और देश को कुतर-कुतर कर खा रहे नेताओं व भोले लोगों की भावनाओं से खेलने व कृपा बेचने वाले पाखंडी बाबाओं के महलों व आश्रमों पर धावा बोल देते। राजसत्ता को उनकी दौलत जब्त कर आम आदमी की बरक्कत में खर्च करने के लिए मजबूर करते। काश.. आज के दौर में वाकई कोई कबीर बनकर सामने आता।                       - लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं।                     सम्पर्क - 09425813208.

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