Friday, May 4, 2012

रिश्तों की बुनियाद पर लोकमंगल की कामना

चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
भारतीय काव्य-शास्त्रों में स्त्री के अद्भुत स्वरूप हैं। कभी वह शेर पर सवारी करती दिखती है तो कभी हंस पर भी विराजती है। कमल का फूल उसका आसन है। कठोरता और कोमलता का ऐसा चेहरा संगम अन्य किसी संस्कृति में देखने में नहीं मिलता। जब जब देवता, असुरों से हारते रहे वे अपनी मदद के लिए स्त्री-ऋषि या मनुष्य के पास ही जाते रहे। स्वयं अपने बल पर उन्होंने कभी कोई लड़ाई नहीं जीती। किसी की तपस्या भंग करनी हो तो स्त्री, किसी का वध करना हो तो स्त्री। स्त्री उनके लिये सबसे ताकतवर हथियार थी। जिस स्त्री की विनती कर अनेक युद्ध जीते गये हों, उसी को हाशिये पर भी रखा, उसके लिये सीमाएं तय की, रेखायेंं खींची। तमाम तरह की अग्नि परीक्षाओं के बाद भी उस पर विश्वास नहीं किया, निष्कासित किया। उससे डरकर ही उसे नियंत्रित करने के अनेक प्रयास किये, विवाह बंधन ही ऐसा ही एक प्रयास था। स्त्री उसकी मां थी, बहन थी, पुत्री थी, पत्नी थी। पुत्र ने मां को अनुशासन में रखने की मुख्य प्रतिज्ञा की। अनेक अनुशासनों के बावजूद पुरुष, हमेशा स्त्री के स्नेह, प्रेम और कृपा का आकांक्षी रहा। स्त्री को कभी-कभार स्वयंवर का अधिकार दिया परंतु एकाध शर्तें ऐसी रखीं कि स्वयंवर का अर्थ ही बेमानी हो गया। सीता के स्वयंवर में धनुष-भंग और द्रौपदी स्वयंवर में मत्स्य भेद की शर्तें पिताओं की थीं, कन्याओं की नहीं। फिर स्वयंवर कैसा? उक्त संदर्भों में एक ही बात श्रेष्ठ थी कि उसमें जाति बन्धन नहीं था। परन्तु महारथी कर्ण से तो उसकी जाति ही पूछी गई। स्वयंवर के आयोजन मात्र नाटक थे। अलबत्ता रुक्मिणी, सुभद्रा-ऊषा ने बिना माता पिता परिवार की इच्छा के स्वयंवर चुन लिया। इतिहास के अनेक उदाहरणों में संयोगिता की इच्छा निश्चित रूप से शब्द की सार्थकता निरुपित करती है।
आदिकाल से विवाह के तरीके बदलते रहे हैं। शास्त्र और इतिहास से हटकर लोक में विवाह की अपनी अलग धज है अलग ठाठ है। उसके साथ सभी जातियों का तालमेल है। मण्डप से लेकर विदा तक सभी जातियों के सहयोग और उनके लाये पदार्थों और सामग्रियों से ही विवाह सम्पन्न होता है। बढ़ई, लोहार, पंडित, पटहार, बसुहार, सोनार, चमार, नाई, बारी, कहार, धोबी, कुम्हार का समन्वय विवाह के अवसरों पर देखा जाता है। आपाधापी भरे इस मूल्यहीन युग में जिन्दगी के अर्थ बदल गये हैं। मूल्यहीनता, मूल्य निर्धारण करने लगी है। शहरों की तड़क-भड़क और शोर में विवाह का आनंद समाप्त होता जा रहा है। कानफोड़ू संगीत में विवाह की रस्में और गीत अंतिम सांसे ले रही हैं। साधन और सुविधा की कमी से गांव के लोग भी विवाह घर ढूंढ़ने लगे हैं। महीने और सप्ताह भर के आनन्द दिन और तीन-चार घन्टों में सिमट कर रह गये हैं। गांव अब अतीत हैं, उसको याद करना गड़े मुर्दे उखाड़ने जैसा है। फिर भी अतीत हमारी पहचान है, विशिष्टता है, उसको याद करना अपने पुरखों के प्रति कृतज्ञ होना है। शाम को विवाह वाले घर में औरतें इकट्ठा होकर मंगलगीत गाती थीं। इस गीत-गाने से एक दूसरे में नजदीकी बढ़ने के साथ गुणों की जानकारी होती थी। एक तरह से यह गीत-गाने की अघोषित प्रतिस्पर्धा होती थी।
    मंगलगीत, लोक के स्वर हैं, उनमें लोक की आत्मा है, कन्या या अन्य रिश्तों की भावना इन गीतों में मुखर होकर वातावरण को जीवन्त बना देती है। सुख और दुख के आंसुओं का अद्भुत संगम विवाह है। ‘लड़की पराया धन है’ यह सुनकर लड़की की आत्मा बाजू से ही प्रश्न करती है- ‘बाबा! कउने नगरिया जुआं खेले के हमरा हारि आये। बिटिया! अवध नगरिया जुआं खेलेन, के तोंहका हारि आयेन।’ बिटिया कहती है कि ‘कोठी-अटारी, भइया-भउजी, पूत-पतोह, गाय-भैंस क्यों नहीं हारे।’ बाबा जवाब देते हैं कि ‘ये सब हमारी लक्ष्मी हैं, तू पराया धन है।’ कितनी विवश रही है बिटिया? जिन्दगी के सबसे सुन्दर दिन जहां उसने बिताये उसे छोड़ना  है।
  नीम के डाल में पड़े हिंडोले में झूलते हुए वह कहती है- ‘बाबा! निमिया क पेड़ न  काटे, निमिया चिरैया बसेर। बिटिया, चिरैया के नार्इं। सबेरे चिरैया उड़ि जइहैं, रहि जहहैं निमिया अकेलि। सबेरे बिटिया जइहैं सासुर, रहि जइहैं माई अकेलि।’ उन्मुक्त वातावरण में पली बिटिया और पंछी तो एक ही हैं। बघेली में बिटिया को चिरई भी कहा जाता है। भले ही सोने-चांदी से भरे घर में लड़की ब्याह दी जाय परंतु विवाह तो बंधन है आदि काल से। लोक इसीलिये लड़की के दुख से दुखी हो उठता है- ‘सोनमा के पिंजरा में बंद भइले हाय राम, चिरई के जीयबा उदास।’ लड़की के जन्म लेने के दिन से ही मां-बाप नाते-रिश्ते में लड़के की खोज में मन ही मन लग जाते हैं। लोक मान्यता है कि लड़की शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह बढ़ती है। रात-दिन चिन्ता में मग्न लोकमन की प्रतिध्वनि गीतों में किस सब्जढंग से मुखरित हो जाती है। स्त्रियां सोहाग गाती हैं- ‘हर लड़की रानी और प्रत्येक वर राजा होता है - चिरई रे सोइगें, चुनगुन रे सोइगें, सोइगें शहरबा के लोग। एक नहिं सोवैं अजबा (दादा) ओ हई राम, जेनके घरे नातिन कुमारि। सभी चैन की नींद सो रहे हैं लेकिन जिनकी नातिन बिटिया, बहिनी कुमारी बैठी है, वे कैसे सो सकते हैं।’ संयोग से दूल्हे राजा उसी रास्ते निकले, उनकी कलगी सेहुड़ा  के बारी में उलझ गई, उनकी विनयशीलता और विवशता   देखें- ‘सांकरि खोरिया, घन सेंहुड़रिया बिच बिच बमुरे क डारि। ओंही तर निकरे हइ दुलहे दुलउआ, कलंगी उलझि गइ डारि।
विवाह की परम्परा अभी भी गांवों में शेष है अपसंस्कृति की हवा से गांव पूर्णतया मुक्त नहीं है, सुरसुरी पहुंची है। एक तिलकोत्सव के कार्यक्रम में शहर से लगे एक गांव में गया था। महिलाएं बन्ना गा रही थीं- ‘मानो मेरा अहसान के बन्ना ने हां कर दी’ सुनकर हंसी आ गई मैंने तुक मिलाया- ‘मानो हमारा अहसान के बन्नी ने हां कर दी।’ इन गीतों का क्या मतलब है यह मंगलगीत तो  नहीं हैं। एहसानमंदी जताने वाले भाव, गीत तो नहीं हो सकते। लोक इसे विकृति मानता है। द्वारचार, चढ़ाव, विवाह, पवपखन्नी, भंगरी, सिंदूरदान, लावा परछाई, कलेबा गारी शहरों से मुक्ति पा चुके हैं। अवसरों के इन गीतों को इस तरह विद्रूप कर दिया गया है कि हंसी आती है।  जिस कलेबा की गारी सुनने के लिए अयोध्या, जनकपुर तक उमड़ पड़ा था, वे गालियां अभी भी लोक में पूरी ठसक के साथ अवस्थित हैं। घूंघट के भीतर से सारी मर्यादा को चुनौती देती अछोर-बेपर्द गालियां सुनकर बाराती धन्य होते हैं। अब ये प्रेम भरी गालियां ‘जनरेशन गैप’ के कारण हाशिये पर आ गई हैं। आदिकाल से ही बहुत कम लोगों को मन का मीत मिला है। स्त्रियों ने फिर भी हर तरह से समझौते किये हैं। गांव ने हर प्रकार के कष्ट भोगकर भी अदालतों के दरवाजे नहीं खटखटाये। हां गीतों में अपनी पीड़ा व्यक्त की। कानूनों ने प्रताड़ना को अपराध बताकर रास्ते दिखाये हैं। सद्भाव और प्रेम किसी कानून के मुखापेक्षी नहीं होते।
                                               
 - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                        सम्पर्क - 09407041430.

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