Thursday, April 5, 2012

सौ-सौ मतलब हैं बिन बोली बात के

 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
मौसम की प्रतीक्षा केवल मनुष्य को नहीं, धरती के जीव-जंतु को भी होती है। शायद इसिलिए मौसम का असर सब से पहले मनुष्येत्तर उपक्रमों में दिखता है। जीव-जंतु, वृक्ष आदि मौसम के आगमन और परिवर्तन की सूचना जाने किस सेटेलाइट से प्राप्त करते हैं कि उनके व्यवहार में अचानक परिवर्तन अक्सर देखा गया है। भूकंप , सुनामी की सूचना प्रकृति के उन जीवधारियों में अधिक देखी गई है जो धरती की सतह पर रहते हैं, उसके कंपन और धड़कन से भविष्य की आहट का अहसास करते हैं। और कुछ दैनदिन से हटकर हरकत करते हैं। मनुष्य पृथ्वी का सबसे सचेतन जीव है। मौसम की प्रतीक्षा वह हमेशा से करता रहा है।  अपने को मौसम के अनुकूल ढालता है, फिर  अगले मौसम आने की प्रतीक्षा करने लगता है। एक समान मौसम में रहना उसके स्वभाव में नहीं है। प्रकृति भी हमेशा एक समान कब रही है। परिवर्तन जीवन का विकास क्रम है। वर्षा की पहली बौछार ग्रीष्म की उमस से राहत देती है। वर्षा के चौमास से ऊबकर उस सर्दी की अपेक्षा होती है। शीत और ठार से भी मुक्ति की कामना भी उसका स्वभाव है। मनुष्य इन्हीं तत्वों से अपने में भी परिवर्तन की अनुगूंज महसूस करता है। और अपनी खुशी प्रकृति के इन्हीं माध्यमों से व्यक्त करता है। धरती के सभी जीवों में सबसे अस्थिर मनुष्य का ही है।
  भारतीय परिवेश में प्रत्येक परिवर्तन को मनुष्य ने उत्सवों से जोड़ा है। उसने नव वर्ष को बासन्ती नवरात्र से होली से, वर्षा हो हरियाली उत्सवों से, सर्दी को शारदीय नवरात्र और दीवाली से जोड़ते हुए अपनी बहुरंगी विविधता का दर्शन छिपा है। चैत्र महीना नवान्न का महीना है। गरीब-अमीर के खुश होने का साझा महीना। मजदूर-किसान वर्ष भर भले ही खेतों में काम करते हों, यह महीना उनके कर्मों का सुफल है। किसान का सच्चा निवास गांव है। जहां आज भी शुद्ध हवा है, लोगों में आपस में कुछ आस्था-विश्वास बचा है। अक्सर लोग पूछते हैं कि आखिर गांव में ऐसा क्या है जिन्हें आप सराहते थकते नहीं। गांव में परिवार है, रिश्ते हैं, एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल होने की सहन इच्छा है, संवेदना है और आज भी शहरों की अपेक्षा विश्वास है। कुछेक अपवाद हो सकते हैं फिर भी गांव बेहतर है। इन पर चर्चा इसलिए होनी चाहिए कि इनका प्रतिशत देश की कुल आबादी का तीन चौथाई है। चैत-बैशाख के कच्चे फलों का महीना है। फसल के दाने साहूकार ले जाएगा। आम महुआ के फल-फूल की रखवाली-तकबारी किसान करेगा। पकने और तैयार होने पर शहरी बनिए लोभ-लालच  देकर उसे सस्ते दाम में खरीद ले जाएंगे और दोगुने-तिगुने लाभ पर बेचेंगे। यहीं प्रकृत न्याय गांव भोग रहा है। यही नियति भी है उसकी फिर भी अपनी ओसारी में बैठकर तंबाकू-चूना का हिसाब वह नहीं लगाता। सामने से प्रत्येक निकलने वाले के लिए उसकी थैली का मुंह खुला है।
    गर्मी पड़ने लगी है। किसान के घर का पटौंहा किसी भी एसी को चुनौती देने में पूर्ण सक्षम है। न बिजली गुल होने का डर न लू लगने की चिंता। इस मौसम में भी प्रकृति के अनेक प्राणी सुखी हैं जबकि धरती का तापमान सामान्य से लगातार ऊपर बढ़ रहा है। गांव में एक लोकोक्ति है- धूपकाल में  तीन मोटान, सकहा, गदहा और गिरदान। सकहा दमा के मरीज हो कहते हैं। दमा के बारे में लोक मान्यता है कि दमा, दम के साथ ही जाता है। जब तक दम है तब तक दमा है। दमा में खांसी आती है, कफ पित्त, वात के संतुलन बिगड़ जाने से यह रोग होता है। गांजा-तंबाकू पीने वालों में यह रोग अक्सर होता है। सांस लेने में तकलीफ होती है। कफ सूखने के कारण खांसी आती है। लगातार खांसते-खांसते मरीज का दम उखड़ता है, नसें फूल जाती हैं, आंखें लाल हो जाती हैं। सर्दी के बीतते ही उसे राहत मिलती है।अब धूपकाल है। चार महीना की कमी वह इन्हीं गर्मी के महीनों में पूरी करता है, इसीलिए सकहा मोटा है।
डार्बिन ने कहा था- मनुष्य एक सामाजिक पशु है कदाचित इसीलिए मनुष्य ने अपने स्वभाव में स्वभाव में सभी पशुओं के लक्षण देखकर ही उनसे उपाधि धारण की। कभी मनुष्य शेर के समान हुआ तो कभी गीदड़, सुअर, कुत्ता, लोमड़ी, गधा, पशु, जानवर भी कहलाया परंतु किसी भी पशु ने मनुष्य के स्वभाव की नकल नहीं की। हां गाय जरूर मां कहलाई परंतु बैल पिता नहीं बन सका। पशुओं के सहजात स्वभाव में मनुष्य के सबसे करीब गधा है।  निरंतर भार ढोता है कभी किसी से कोई शिकायत नहीं, लादते जाएं जब तक खुद के नीचे रखे र्इंट फूट न जाएं तब तक उसे एतराज नहीं। कभी-कभी मनुष्य का स्वभाव याद आते ही दुलत्ती अवश्य झाड़ देता है।
 भारतीय पौराणिक सृष्टि में जब देवताओं ने अपनी-अपनी सवारी तय की, शीतला मां ने गधे को अपना वाहन चुना। शीतला मां नाम से तो शीतल हैं लेकिन लोक में इनका रूप उग्र है और विशेषत: बच्चों पर इनका प्रकोप होता है। इन्हें गांवों में शीतला महारानी कहते हैं। शहर इन्हें चेचक कहता है, लेकिन दवा देने और सुई लगाने से एतराज करता है। नीम के पेड़ पर मां का निवास माना जाता है इसलिए नीम के शीतल पत्तों की डाली से हवा की जाती है। सारे शरीर में छोटे-बड़े फफोलों की तरह निकले ये महरानी के रूप में कभी-कभी आंख भी ले लेती हैं। रोगी के अनजाने में पशु-बैढ़ी भी की जाती है। गधे के मूत्र का   शरीर में लेप करने से शीतला माता को शांति मिलती है। रविवार को पुष्य नक्षत्र में मिर्गी के मरीज के कान में गधे का मूत्र डालने और नक्ष्य देने से लाभ होता है। गधे के मालिक  का प्रभाव तो अयोध्या ने भोगा ही, पता नहीं किस सिरफिरे ने उसे निर्मली का विरुद दे दिया। हालांकि यह विरुद कपड़े धोने  के लिए दिया गया था। लेकिन उसने रामायण कथा ही धो दी। मनुष्य के स्वभाव के सबसे नजदीक होने के कारण ही लेखकों ने गधों पर कई एक उपन्यास कथाएं लिखी हैं। हर स्थिति में स्थितप्रज्ञ रहने वाला यह प्राणी इस मौसम में सबसे अधिक खुश रहता है। इसीलिए मोटा हो जाता है। वह बैशाखनंदन भी कहलाता है।
गिरगिट का देशज गिरदान है। सर्दी में वह भी दुबला गया था। रंग उड़ गया था। गर्मी के आते ही उसके भी रंग बदले। लाल हो गया। बाड़ी या पौधों पर सिर डुलाकर प्राणायाम करने लगा। सूर्य नमस्कार उसका पहला योग है। उसकी कथा भी पुराणों में वर्णित है। कौन जाने इन्द्रासन पाने के लोभ में मनुष्य ने इनसे ही रंग बदलने की प्रक्रिया अपनाई हो। नहुष को भले ही ऋषियों का शाप भोगना पड़ा हो परंतु आधुनिक गिरगिट जल्द ही सिंहासन पा जाते हैं। वर्तमान में इन्हीं का मौसम है। इनकी निष्ठा दल या विचार में नहीं, पद में ही होती है। इसीलिए हर हाल में ये गिरगिट सा रंग बदलते रहते हैं।
                                                 - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                        सम्पर्क - 09407041430.

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