Tuesday, April 17, 2012

बाबुल मोरा नैहर छूटो जाएं

     चिन्तामणि मिश्र
 आमतौर पर शादी समारोहों  में शामिल होने से बचने का प्रयास करता हंू। विशेष रूप से लड़की की विदाई पर तो गायब होने का जुगाड़ कर लेता हूं। लेकिन इस बार कुछ नहीं कर सका और लड़की की विदाई का साक्षी बन कर बहुत व्यथित हुआ। मुझे अपने काम से वाराणसी जाना पड़ा। वहां मैं निकट के मित्र शिवम् के घर रुका। शिवम् ने बताया कि उनका परिवार पास के कस्बे चुनार गया है, परिवार की शादी में, शिवम् को भी जाना है। मित्र की मनुहार थी कि मैं भी चलूं, दूसरे दिन वापस लौट आयेंगे। मैंने सोचा अकेले पड़े-पड़े क्या करुंगा, सो शिवम् के साथ चुनार चल दिया। वहां शिवम की भतीजी की शादी थी। रात में शादी की रस्में पूरी हुई और सुबह कन्या की विदाई हो गई। मैंने देखा विदाई के समय घर की कुछ औरतें और कुछ पुरुष लड़की के पीछे चल रहे थे। गांव की शादी जैसा रोने-धोने और पछाड़ मारता दृश्य तो नहीं था, लेकिन उदासी तो थी ही। औरतें लड़की को फूलों से सजी कार में बैठा आई थी। शिवम् दूर खड़े थे। मैंने अनुभव किया कि वे रस्म अदायगी करने आये थे और अपने ही परिवार में हाजरी बजा रहे थे। जबकि मेरा गला भर आया था और आंखों में आंसू तैरने लगे थे। मंै सोच रहा था कि शिवम् को घर के बाहर तक लड़की को छोड़ कर आना चाहिए था, क्योंकि वे तो लड़की के चाचा थे। मेरा क्या है जो इस तरह भावुक हो गया।
   कल फेरों और आज विदाई में महसूस किया कि शादी में आये ज्यादातर लोग रस्म अदायगी कर रहे थे। वर-वधु और उनके माता-पिता के अलावा शायद ही कोई आत्मिक लगाव महसूस कर रहा हो। इसलिए लड़की को दरवाजे पर छोड़ का जाना और गला रुंध जाना, मुझे ही अटपटा लग रहा था। किसी महिला को ऐसा लगे तो फिर भी समझा जा सकता है कि उसे अपनी विदाई का क्षण याद आ गया हो, लेकिन मुझे ऐसा क्यों हुआ? लड़की, न बेटी थी, न बहन । समझ में आया कि अपने संस्कार हैं कि लड़की को घर की देहरी तक छोड़ कर आओ। वह अपने पीहर से ससुराल जा रही है और अब पराई हो गई है। उसका अपने बाबुल का घर छूट गया है। उसे अब नया घर बसाना है। अवध के आखरी नबाव वाजिद अली शाह की जग-प्रसिद्ध ठुमरी में भी ऐसा कुछ है- ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए,अंगना तो पर्वत भयो और देहरी भई विदेश।’ इस ठुमरी ने मुझे हमेशा रुलाया है। नैहर से पी के घर हम सभी को जाना पड़ता है। नीरज ने भी लिखा- ‘मुड़-मुड़ न देख,खड़ा जो बचपन लिए खिलौने,हर घर ही नैहर से पी के घर जाने की तैयारी है। ’ नीरज को मैं सूफी परम्परा का आधुनिक कवि मानता हंू। उनके कहने का निर्गुनिया रहस्य अलौकिक भाव के एकान्त में ला पटकता है। बाबुल का घर छोड़ कर ही लड़की दुलहन बनती है।
 संसार का उल्लास, हंसी-खुशी दुलहिनों की है। दुलहन ही तुलसी चौरा में दीपक जलाती है। आंगन और देहरी के साथ घर को जगमग कर देती है। आप कल्पना कीजिए किसी ऐसे घर की, जहां ? घर वालों और स्वयं घर को प्रतिक्षा हो एक ऐसी बहू की जो सब को अपने स्नेह के सूत्र में बांध ले। एक ऐसी बहू जो घर के एक-एक कण को अपनी सेवा से नया रूप दे दे। बहू के मांगलिक चरण घर की दहलीज को लांघ कर अन्दर बढ़े और पूरा घर उस सुन्दरी के नूपुरों की तरह झनकने लगे। जहां उदासी थी वहां जीवन के गीत खनक उठें। मंैने ऐसी ही एक दुलिहन को अपने मंदिर में दीपक जलाते देखा है। वह दुलहन जिस घर से आई है अब वह घर उसके भाईयों-भावजों का घर उसके लिए घर नहीं बल्कि एक पड़ाव बन कर रह गया है। उसकी ननदें जब भी धर गृहस्थी में थकती तो थोड़ा सा विश्राम करने भावज के घर चली आती थी। अब उसकी लड़की भी यही करती है, अपनी मां के घर आ जाती है। यह पड़ाव गिने-चुने दिनों का होता और उसके बाद उसे अपने घर की याद सताने लगती है। इसके विपरीत वह दुलहिन उस घर को जहां डोले से उतर कर अपना पहला कदम रखा था, छोड़ कर जाने का नाम ही नहीं लेती है। उसके लिए अपना ही घर ही यात्रा है और अपना घर ही पड़ाव है। उसने डोले से उतरते ही घर गृहस्थी को फूलों की मालाओं की तरह पहन लिया,अब उस माला को उतारने की उसे सुधि ही नहीं है। हालांकि उपभोगतावाद की सुनामी ने इस बुढ़ा गई दुलहन को अपनी बहुओं से एकान्तवास का पैकज मिल गया है किन्तु वह अपनी अर्थी अपनी सास की देहरी से ही ले जाने की जिद किए है।
 दुलहिन और दीपक का साथ बहुत पुराना है। घर में आंगन जब बहु से  उल्लास में भर जाता है तो उसका जीवन-दीपक स्नेह से लबालब हो जाता है। उसके कर्मों की बाती को थोड़ा उकसा देने पर चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है। दुलहिन जिस मानसिक जीवन दीप को जलाती है,उससे घर ही नहीं,अड़ोस-पड़ोस और मंदिर-चौरा भी जगमगाता है। लड़की के विदाई गीत सभी बोलिओं में हैं और रोते हुए महिलाएं गाती भी हैं तो जो भी उन्हें सुनता है,वह भी भावुक हो जाता है, रोता है। आत्मीय और निजी सम्बन्धों का दायरा सीमित कर दिया है। अब तो महिलाओं को विदाई गीत याद भी नहीं हैं। लेडीज संगीत आयोजित होने लगे हैं इनमें पैसा देकर गाने वाली बुला ली जाती हैं, या फिर टेप बजा लिया जाता है। मैं समझता हूं कि विवाह गीत टेप पर सुनने के लिए नहीं बने हैं,वे गाने   के लिए हैं। भले ही गाने वालिओं के गले सुरीले न हों। वे तो भावनाओं को जीने के लिए हैं। विवाह के पहले मांगलिक कारज से लेकर आखरी कारज तक के इन गीतों में हमारे संस्कार और उद्गार होते हैं।
     अब तो शादियां चन्द घन्टों में निपटने लगी हैं। होटलों, मंडपों में लड़के-लड़की के परिवार मध्यान्ह में मेहमान जैसे आते हैं। रस्म पूरी करके दूसरे दिन सबेरे अपने धर चल देते हैं। तिलक से लेकर फेरों तक केवल वैभव प्रदर्शन अब शादियों का स्थायी मूल भाव हो गया है। इस अवसर पर विनम्रता की नहीं धन के अंहकार की मुनादी होने लगी है। स्वरुचि भोज के नाम पर गिद्ध भोज ने खिलाने वाले को अतिथि-सत्कार की भावना से बांझ बना दिया है। हमने अपने रीति-रिवाज और परम्पराओं को देश निकाला दे दिया है। अब बनावट और दिखावा का इतना प्रसार हो गया है कि चारो तरफ सांस्कृतिक अराजकता का कब्जा है। अपनी संस्कृति तथा परम्पराओं को पक्के निर्लज्य होकर विदा कर रहे हैं। इन्हें जानने समझने का प्रयास बन्द कर दिया। पहले जिज्ञासा मरती है फिर रस सूखता है। इसके चलते कन्या की विदाई में भी हमारे भीतर की रस-गागर सूखी ही रह जाती है।
                                       - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                          सम्पर्क - 09425174450.

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