Thursday, April 5, 2012

संवेदनाओं के बजंर होने का दौर

चिन्तामणि मिश्र
पिछले माह के अंतिम मंगलवार को अखबार देख कर मन बहुत बेचैन रहा। सारा दिन तनाव और अवसाद में गुजरा। अखबार में छपा चित्र नेशनल हाईवे में दिनदहाड़े घटी दुर्घटना में मारे गए दो छात्रों में से एक छात्र के शव का था, जिसे दो पुलिस वाले घटनास्थल से टांगे हुए घसीट कर हटा रहे थे। हमारी पुलिस अशोभनीय और गैरजिम्मेदाराना काम कर रही थी, जिसे घटनास्थल पर जुटी भारी भीड़ भी देख रही थी, किन्तु किसी की भी संवेदना ने इसके लिए उनको धिक्कारा नहीं। इधर धर्म और हर समुदाय में मृतक को सम्मान देने का चलन है। हमारी परम्परा और हमारी संस्कृति किसी के भी शव को हाथ जोड़ कर सम्मान देने की है। उस दिन ड्यूटी कर रहे पुलिस के जवानों ने मानवता को किरिच-किरिच कर ऐसा तोड़ा कि उसकी टूटन आज भी बरकरार है। छात्रों के शव पर चादर डाल कर स्ट्रेचर पर रख कर घटनास्थल से हटाया जा सकता था। शहर के सरकारी अस्पताल में चादरों और स्ट्रेचरों का अकाल नहीं है। लेकिन यह तभी हो सकता है, जब मन में संवेदना की नदीं मरी न हो। हमने तो संवेदना और मनुष्यता का पिंडदान करके श्राद्ध कर डाला है। हमारी तटस्थता तभी दरकती है, जब हमारा कोई इसका शिकार होता है। पुलिस के आला अधिकारियों ने भी इसे देखा होगा किन्तु किसी ने भविष्य में इसे न दुहराने के लिए निर्देश तक नहीं दिए। मेरे शहर में मानव अधिकारों की गुहार लगाते हुए कई संगठन काम कर रहे हैं। इनके काम सराहनीय हैं, किन्तु इस प्रसंग में इनकी चुप्पी चुभती है।
   पिछले माह देश की राजधानी दिल्ली में पुलिस वाले एक घायल महिला को घसीटते हुए अदालत ले गए थे। अदालत ने ऐसी अमानवीयता के लिए लताड़ लगाई । मानवता की कपालक्रिया हमारे यहां पुलिस वर्दी के ही लोग नही करतें, बल्कि हम सब करते हैं।Þ सड़क दुर्घटना में घायल और मृतक के जेबरात, नकदी ,पर्स,मोबाइल गायब कर दिए जाते हैं। ऐसी अमानवीयता से दुर्र्घटना के शिकार की पहचान संकट में पड़ जाती है। पड़ोसी राज्य से देवी दर्शन के लिए आये पति और पत्नी सड़क दुर्घटना में मारे गए। उनका बैग,जेवर,नगदी और पहचान पत्र उठाईगीरों ने गायब कर दिया। इनकी पहचान के लिए कोई सूत्र नहीं था, पुलिस ने लावारिस और पहचान-विहीन मान कर दफना दिया। डेढ़ माह बाद जब परिवार वाले तलाश करते हुए देवी की नगरी में पहुचे और पुलिस से सम्पर्क किया तो कपड़ों और मृतकों के फोटो से पहचान स्थापित हो पाई।
   गाडरवारा जिला के बारहाबड़ा के सरकारी स्कूल में दसवीं की परीक्षा के दौरान पन्द्ररह और बीस मार्च को नकल सामग्री की खोज में शिक्षिकाओं ने छात्राओं के कपड़े उतरवा कर तलाशी ली। बस अमानवीय कारनामें को पूरा करने के लिए छात्राओं के अधोवस्त्रों को भी उतरवा लिया गया । छात्राएं ऐसा न करने के लिए गिड़गिड़ाती रही किन्तु शिक्षिकाएं नहीं मानी। छात्राओं को दिगम्बर करने की बेशर्मी छात्रों और पुरुष कर्मचारियों के सामने की गई। इस तरह की घटनाएं विराट प्रश्नचिन्ह खड़ा करती हैं, कि क्या हम वास्तव में लोकतांत्रिक देश के निवासी हैं? क्या हमारा सभ्यता और मानवीयता से अभी भी कोई सरोकार बाकी है? इसमें कोई संदेह नहीं कि समाज और देश को शंतिपूर्ण ढंग से चलाने के लिए कायदे कानून का पालन सभी को करना होता है, किन्तु लोगों के सम्मान उनकी निजता और मर्यादा की कीमत पर लोकतांत्रिक व्यवस्था में कतई नहीं हो सकती। नकल न होने देना और इसके लिए तलाशी लेने का अधिकार अगर कानून शिक्षिकाओं को देता भी है तो छात्राओं की निजता और उनकी मर्यादा को भंग करके नहीं देता है। शिक्षिकाएं एकान्त कमरे में तलाशी ले सकती थीं। ऐसा न करने के पीछे कोई तर्कसंगत कारण नहीं है, यह कुकृत्य उन्होंने अपने  घमंड को सहलाने तथा अपनी संड़ाध मारती सोच के प्रदर्शन के लिए किया। जाहिर है कि हमारी शिक्षा का कर्मकांड लोगों को सभ्य और संवेदनशील बनाने में असफल है। विडम्बना तो यह है कि आधुनिकता और विकास के शोर के बीच मानवीयता तथा संवेदना का जिस तरह क्षरण होता जा रहा है उसकी हमारे देश और समाज को कोई फिक्र नहीं है। यह समय के साथ सभ्य होने के दावे के बीच पलता एक ऐसा विद्रूप है, जो आखिरकार समाज को ही खोखला करेगा। दूसरो को कमतर और खुद को श्रेष्ठ मानने की ग्रंथि ही सामान्य मानवीय गुणों से वंचित कर रही है। यही मानसिकता व्यक्ति को संवेदनहीन बनाती है और व्यक्ति क्रूर व्यवहार करने लगता है।
 शासन-व्यवस्था के स्तर पर संवेदना को सुखाने और सामाजिकता को वनवास देने की बात समझ में तो आती है, क्योंकि ऐसा करना राजधर्म है और सत्ता का अपना स्वार्थ है, किन्तु समाज संवेदना शून्य होने लगे तो बात गम्भीर हो जाती है। तीन-चार दशक पहले तक लोग दूसरोें के दुख को अपना दुख समझते थे। बस्ती में भाईचारा और मुहल्लादारी की राह में अमीरी-गरीबी, धर्म, जाति, बाधा नहीं थी। आज भीड़ में भी आदमी अनजाना,अकेला, बे-गाना है। यह बदलाव अचानक नहीं आया है। इसके लिए उपभोगितावादी सोच जिम्मेवार है और जिम्मेवार है पारिवारिक टूटन का सिलसिला। हमारे समाज में संयुक्त परिवार थे। संयुक्त परिवारों में रह कर संवेदना, करुणा, जबाबदेही, पर-दुख-कातरता का पाठ परिवार के बुर्जुगों से पढ़ लेते थे। अब एकल   परिवारों का चलन है जहां नैतिकता की शिक्षा देने की कोई गुंजाइश नहीं है। वहां भय, स्वार्थ, असुरक्षा, कलह, तनाव, बेगानापन की दीक्षा मिल रही है।
आज देश में धर्म का प्रसार चारो ओर दिख रहा है। धर्मस्थलों,धार्मिक आयोजनों, प्रवचनों, सत्संगों में बेतहाशा भीड़ देख कर आभास होता है कि लोग अपने पुरखों से भी ज्यादा धार्मिक हो गए हैं। लेकिन आज संवेदना और सामुदायिकता की जगह स्वार्थ का कब्जा है। कोई भी धर्म ऐसी शिक्षा तो नहीं देता है। लेकिन ऐसा बसलिए हो रहा है, क्योंकि लोग धर्म-भीरू हो गए हैं। इसी का नतीजा है कि पड़ोस में मौत हो जाने पर बगल का पड़ोसी जन्मदिन की पार्टी स्थगित नहीं करता। दीवार के उस पार लाश होती है और दीवार के इस पार धूमधाम से धमाल हो रहा होता है। दुख में भी पड़ोसी का पड़ोसी से नाता नहीं रह गया है। ऐसे समय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता दिमाग में तूफान की तरह तोड़फोड़ मचाती है- यदि तुम्हारे घर के/ एक कमरे में लाश पड़ी हो/तो क्या तुम/दूसरे कमरे में गा सकते हो?/यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में/ लाशें सड़ रही हों/ तो क्या तुम/ दूसरे कमरे में ंप्रार्थना कर सकते हो/ यदि हां, तो मुझे तुम से कुछ नही कहना है।
                                        - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                             सम्पर्क - 09425174450.

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