Thursday, March 22, 2012

समलैंगिकता और कानून



   संतोष खरे
समलैंगिकों के अधिकारों की वकालत करने वाली संस्था नाज फाउन्डेशन ने आपसी सहमति से बने समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता देने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष जनहित याचिका प्रस्तुत की थी। उच्च न्यायालय ने पहले यह याचिका एवं इसकी पुनर्विचार याचिका निरस्त कर दी किन्तु जब याचिकाकर्ता इस निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे तो सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर पुनर्विचार करने को कहा। याचिकाकर्ता संस्था का तर्क था कि सरकार नैतिकता के आधार पर उनके समानता के मौलिक अधिकार का हनन कर रही है। जब कि केन्द्र सरकार का कहना था कि समलैंगिक सेक्स संबंध अनैतिक है और इन्हें कानूनी मान्यता दिये जाने से समाज में नैतिक मूल्यों का पतन होगा। सरकार का यह भी तर्क था कि इस संबंध में निर्णय लेने का अधिकार केवल संसद को है अत: न्यायालय को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। सुनवाई के पश्चात दिल्ली उच्च न्यायालय ने जुलाई 2009 में आपसी सहमति से बने ऐसे संबंधों को कानूनी मान्यता प्रदान कर दी। यदि यह निर्णय कायम रहा तो इसका परिणाम यह होगा कि भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 377 विलोपित कर दी जाएगी और समलैंगिक संबंध अपराध के दायरे से बाहर हो जाएंगे। इस निर्णय के विरुद्ध कई सामाजिक धार्मिक संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका प्रस्तुत की, जिसकी सुनवाई के दौरान न्यायालय ने केन्द्र सरकार को अपने दो न्यायविदों के माध्यम से परस्पर विरोधी मत व्यक्त करने पर नाराजगी व्यक्त की और फिर यह पूछा कि सरकार यह बताए कि देश में कितने समलैंगिक हैं? इस याचिका पर सुनवाई जारी है।
   धारा 377 के अनुसार जो व्यक्ति स्वेच्छा से दूसरे पुरुष, स्त्री या पशु के साथ ‘अप्राकृतिक इंद्रियभोग’ से तात्पर्य है, समान लिंग के व्यक्ति के द्वारा पारस्परिक सेक्स संबंध, पशुगमन अथवा मुख मैथुन। (इस संबंध में यह स्मरणीय है कि अमेरिका में मुख मैथुन को अपराध नहीं माना जाता।) याद करें वहां के तत्कालीन राष्टÑपति बिल क्लिंटन पर उनके आफिस की कर्मचारी मोनिका लेविंस्की के साथ ‘मुख मैथुन’ का आरोप लगाया गया था, किन्तु वहां इसे अपराध की श्रेणी में नहीं माना गयाऔर क्लिंटन इस आरोप के बावजूद अगला चुनाव जीत गए थे।) भारत में ऐसी कानूनी स्थिति नहीं है। यहांं इस संबंध में विभिन्न उच्च न्यायालयों के निर्णयों में मत भिन्नता है। गुजरात और सिंध के उच्च न्यायालय ने मुख मैथुन को इस धारा के अंतर्गत अपराध माना था जब कि मैसूर उच्च न्यायालय  ने जिसका निर्णय पाश्चात्य देश के न्यायालय के निर्णय पर आधारित था, इसे अपराध नहीं माना था। एक अन्य निर्णय में गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा था कि मुख मैथुन  के मामले में दण्ड उतना कठोर नहं दिया जाना चाहिए कि गुदा मैथुन सोडोमी के मामलों में दिया जाता है। इस धारा के अनुसार सीडोम अपराध मानने के लिए शिकायतकर्ता  की सहमति तुच्छ मानी जाती है।
    समलैंगिक संबंधों के पक्ष में जो तर्क दिये गए हंै उनमें से कुछ  यह हैं कि सन् 1860 के पूर्व समलैंगिकता अपराध नहीं था, यह तभी अपराध माना गया जब अंग्रेजों ने इसे दण्ड संहिता में शामिल किया। विश्व के 126 देश ऐसे संबंधों को कानूनी मान्यता प्रदान कर चुके हैं। मेडिकल साइंस के अनुसार ऐसे संबंध अप्राकृतिक नहीं। एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 23 प्रतिशत लोग मुख मैथुन, 16 प्रतिशत लोग गुदा मैथुन 8 प्रतिशत लोग समलैंगिक प्रेम करते हंै। इस संदर्भ में न्यायालय में यह तर्क भी दिये गए कि ‘किराए की कोख (सेरोगेट)’ परखनली शिशु तथा बिना विवाह के साथ रहने (लिव इन रिलेशनशिप) के युग में समलैंगिकता को ‘अप्राकृतिक’ नहीं मानना चाहिए। उनका कहना है कि समय के साथ कानून बदलने चाहिए। एक तर्क यह भी दिया गया कि पाश्चात्य देशों में पुरुषों के बीच कामुक संबंध एक सामान्य बात है। इस तरह के लोगों के  संगठन बने हुए हैं। सरकार की ओर से प्रमुख रूप से यही आपत्ति की गई कि यह अपराध भारतीय संस्कृति के विरुद्ध और बेहद अनैतिक है। वही इसके विपरीत एक महान्यायवादी ने सरकार की ओर से तर्क भी प्रस्तुत किया कि इसे अपराध के दायरे से बाहर रखना चाहिए। जिससे सरकार ने पहले असहमति व्यक्त की तथा बाद में असहमति के विपरीत शपथपत्र  प्रस्तुत किया।
उपरोक्त परिस्थितियों में सुनवाई के पश्चात सर्वोेच्च न्यायालय क्या निर्णय देगा यह तो भविष्य बताएगा। यदि सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय को कायम रखता है तो यह निर्णय भारतीय समाज को गहराई से प्रभावित करने वाला होगा। इस संदर्भ में यह तथ्य भी नहीं भुलाया जा सकता कि जब तक ऐसे संबंधों के बारे मे कोई एफआईआर नहीं लिखवाता और आपराधिक प्रकरण अदालत में नहीं चलता तब तक समाज या कानून को ऐसे संबंधों से कोई लेना देना नहीं।
    अब देखना यह है कि उपरोक्त परिस्थितियों में जबकि सरकार स्वयं इसे अपराध के दायरे से बाहर रखने पर सहमत है, सर्वोच्च न्यायालय इस संबंध में क्या निर्णय लेगा।
                    - लेखक सुपरिचित व्यंग्यकार एवं अधिचक्ता हैं ।
                       सम्पर्क-09425172638.

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