Wednesday, February 29, 2012

इंसाफ की आस, टूटती सांस


     चिन्तामणि मिश्र
मित्र ने आठ साल पहले अपने किरायेदार से अपना मकान खाली करवाने के लिए अदालत में मुकदमा दायर किया था किन्तु आज तक उन्हें अपना मकान तो नहीं केवल पेशियां ही हाथ लगी हैं। कई बार दुखी हो कर कहने लगते हैं कि लगता है कि मेरे मरने के बाद भी मुकदमा और इसकी पेशियां जिन्दा रहेंगीं। इस तरह की पीड़ा देश के लाखों लोगों की इै। दादा मुकदमा शुरू करता है और उसका फैसला पोते को सुनना पड़ता है। आज न्याय पेशी में उलझा हुआ है। गैर जरूरी स्थगनों के अन्तहीन सिलसिलों के कारण अथवा साक्षियों की बहानेबाजी के चलते पेशियां बढ़ती जाती हैं। चुनाव याचिकाओं का निपटारा समय पर नहीं होता और नए चुनाव आ जाते हैं। धीरे-धीरे और अटक-अटक कर रेंगती लंबी न्याय प्रक्रिया के चलते लाखों विचाराधीन कैदी न्याय की प्रतिक्षा में शापित जेलों में बन्द हैं। इन्हें अकारण कानूनी स्पीड बे्रकरों से जूझना पड़ रहा है। देश भर में हजारों लोग केवल शक के आधार पर सलाखों के पीछे धकेल दिए जाते हैं और यह लोग लंबी न्याय प्रक्रिया के कारण सालों जेलों में नर्क भोगते हैं।
   विधिशास्त्र का सर्वविदित सूत्र वाक्य है कि न्याय में देरी न्याय को नकारना है। इससे भ्रष्टाचार का जन्म होता है। मामलों की शीघ्र सुनवाई और उनका त्वरित निस्तारण संविधान के अनुच्छेद-21 के अर्न्तगत मुलजिम का मूल अधिकार है। मगर हमारे देश में आम आदमी के लिए आज भी न्याय की डगर बहुत लंबी, भयावह तथा रपटीली हैं, अदालतों में मुकदमों के अम्बार लगे हैं। सर्वोच्य न्यायालय में छियासठ हजार, उच्च न्यायालयों में बावन लाख और निचली अदालतों में तीन करोड़ मामले लंबित हैं। इसके अलावा प्रदेशों के राजस्व मंडलों तथा विभिन्न राजस्व अदालतों में करोड़ों मामलों को अपनी बारी का इन्तजार हैं, उपभोक्ता संरक्षण मामलों में भी लंबी क्यू लगी हैं।  उच्चतम न्यायालय से ले कर देश के इक्कीस उच्च न्यायालयों में जजों के पद खाली पड़े हैं। विधि आयोग अनुशंसा कर चुका है कि प्रति दस लाख की आबादी पर पचास जजों की व्यवस्था की जानी चाहिए किन्तु जजों के खाली पद ही नहीं भरे जा रहे हैं, तब नए पदों के निर्माण की फिक्र करने का प्रश्न ही टाल दिया जाता है।
न्याय प्रदान करने में देरी का इकलौता कारण मुकदमों की भीड़ ही नहीं है, बल्कि कानूनों की भरमार भी है। नित्य नए कानून बनना और बदलना, उपयोगिता खो चुके कालातीत हो चुके कानूनों का प्रचलन, साक्ष्य प्रक्रिया के जटिल तकनीकी नियम, स्थगन सुविधा लम्बी बहस का विशेषाधिकार, समय सीमा का अभाव न्याय को बिलम्बकारी और जटिल तथा खर्चीला बना रहा है। जनतंत्र का मूल सिद्धान्त है कि सबके लिए कानून समान और न्याय सुलभ होना चाहिए लेकिन न्याय प्रक्रिया की जटिलता और खर्चीली होने से गरीब आदमी अदालत में दस्तक नहीं दे सकता है। अगर वह अदालत का दरवाजा खटखटाने का साहस करता भी है, तो समय पर राहत ही नहीं मिलती। आम आदमी यह देख सुन कर हैरान तथा आश्चर्यचकित रहता है कि कुछ मामलों की सुनवाई याचिका पेश होने के ही कुछ दिनों में शुरू हो जाती है और कुछ सुनवाई के लिए घिसटते रहते हैं। न्यायालय में कामकाज की भाषा, वादी-प्रतिवादी और विचाराधीन व्यक्ति की मातृभाषा में न होने से आम आदमी अन्धे और बहरे की तरह अदालत के अांगन में खेत में खड़े बिजूका की तरह हो जाता है।
  मुकदमा लम्बा खीचने में अनेक तत्वों के निहित स्वार्थ होते हैं। मसलन दुर्घटना के मामले में पेशी दर पेशी, तीन,चार,पांच साल यों ही निकाल दिए जाते हैं, ताकि दुर्घटना का सही बयान करने वाले साक्षी इस दौरान मूल मामला ही भूल जाएं और कौन गलत था, कौन सही था यह तलाशा ही न जा सके। हर मामले में अनेकों बार अपील करने का प्रावधान भी न्याय प्रदान करने में फिजूल का बैरियर बना है। किसी अपराध में सामान्य दंड या जुर्माना एक साल की कैद या दस हजार रुपए का जुर्माना का प्रावधान हो तो यह मामला मजिस्ट्रेट और सेशन जज तक ही जाए। प्रतिपक्ष को सुनवाई के अधिकतम दो मौके दिए जाएं और वे भी दस या पन्द्रह दिन के अन्तराल के हों। मुकदमा लम्बा खीचने की अपराधी, वकील, पुलिस तंत्र के पास कोई तरकीब भिड़ाने का अवसर न हो। दंड प्रक्रिया संहिता में बदलाव करके गवाहियों की संख्या भी कम की जानी चाहिए। इसके लिए एक ताजा उदाहरण पर्याप्त है। मुबई पर आंतकवादी हमले में शामिल कसाब , जिसे एके-47 लेकर निशाना लगाने के लिए आगे बढ़ते सारा देश देख रहा था, उसके मुकदमें में पांच या दस गवाह पर्याप्त थे। लेकिन सौ-डेढ़ सौ गवाहियां पेश की गई, इसकी कोई जरूरत नही थी। दुनिया को हम क्या दिखाना चाहते हैं? हमारे देश के बेकसूर नागरिक मारे गए हैं। एक मरे या सौ मरे, बात एक ही है। उसे भारतीय दंड विधान की मानव वध की धारा में अपराधी घोषित कर मृत्युदंड दे देते, दुनिया को इससे क्या लेना-देना? अरबों रुपए उस पर खर्च हो रहा है और वह हमारे न्याय तंत्र की गली-गलियारों का इस्तेमाल करके सजा भुगतने से बचा है। हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार, डकैती के हजारों प्रकरण हैं, जिनमें गवाह एक ही बात दुहराते हैं। इतने गवाहों की जरूरत का कोई औचित्य ही नहीं है।
  निचली अदालतों में न्याय-दान की अवधि तो अद्भुत है। कोई नहीं   जानता कि कब निर्णय आयेगा और निर्णय आने के बाद भी इस पर कब अमल होना सम्भव हो पायेगा क्योंकि अपील नाम का सिहंद्वार खुला है। निचली अदालतों में भ्रष्टाचार की शिकायतें काफी समय से आम हैं। कुछ दिन पहले सर्वोच्य न्यायालय के मुख्य न्यायधीश ने नाराजी जाहिर करते हुए कहा था कि निचली अदालतों में संजीदगी न होने के कारण बहुत सारे लोगों को बेवजह अन्याय सहना पड़ता है। करीब तीन साल पहले छतीसगढ़ में हुई न्यायिक सेवा की परीक्षा में उम्मीदवारों की उत्तर पुस्तिका में धांधली की रपट से स्पष्ट है कि इसी परीक्षा के सफल उम्मीदवार न्यायिक दडांधिकारी के रूप में अदलतों में बैठे हैं। चयन परीक्षा को भी विश्वसनीय और पारदर्शी बनाने की जरूरत है।
  बहरहाल, देश की न्याय प्रणाली में बहुत सुधार की जरूरत है ताकि हर नागरिक को आसानी से और कम समय में न्याय मिल सके और न्याय व्यवस्था में लोगों का भरोसा कमजोर न हो। सस्ता औा सरल न्याय सुलभ हो यह केवल अदालतों तथा वकीलों भर का मसला नहीं है, बल्कि समाज और सरकार की दूसरी संस्थाओं को भी गम्भीरता से सोचना होगा। अभी तकनीक का बेहतर इस्तेमाल भी नहीं हो रहा है। ग्राम न्यायालय को भी कागजों से बाहर ला कर नीचे स्तर पर मुकदमों का त्वरित निपटारा सम्भव हो सकता है।
                                - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                    सम्पर्क - 09425174450.

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