Wednesday, February 1, 2012

मकानों में तब्दील होते घर


  चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र  
शहरों में घर नहीं, मकान होते हैं, और गांवों में मकान नहीं घर होते हैं वैसे शहरों और गांवों में जुगलबंदी चल रही है गांवों में भी मकान बन गए हैं परंतु शहरों में घरों की संख्या अल्प है। घर की संस्कृति होती है, मकान की कोई संस्कृति नहीं है। शहर के मकान में रहने वाले आदमी से लोग पूछते हैं कि आपके मकान में कितने लोग रहते हैं? क्या कोई कमरा खाली है? गांव वाले से पूछते हैं आपके घर में कौन कौन है? मकान को प्रकारान्तर में ‘धर्मशाला’ की व्यावसायिक परम्परा का नाम दिया जा सकता है। जिसमें ‘धर्म’ केवल शब्द मात्र है और ‘शाला’ गोशाला -पाठशाला के बरक्स है। जिसमें आते-जाते लोग रुकते हैं और चले जाते हैं।  कोई मोह ममता उस मकान से नहीं पालते, यह अलग बात है कुत्ता भी जहां बैठता है पूंछ से स्थान बैठने लायक बना लेता है। घर में परिवार होता है, सुखो-दुखों का साझा होता है, सबको सबकी चिन्ता होती है। अकेला कोई नहीं रोता, अकेले कोई सुख भी नहीं भोगता। मकान में पत्थर हैं, कंक्रीट हैं, जो पानी के छींटों को सोख लेता है। गांव के घर मिट्टी के होते हैं, मिट्टी पानी का  संस्पर्श पाकर गीली बने रहने का सुख पालती है, इत्मीनान से सुखाती है, संवेदना का स्पर्श उसे तर रखता है। मकानों में अक्सर और अधिसंख्य लोग अकेले रहते हैं। परिवार का दायरा गांव की तुलना में सिमटकर पति-पत्नी तक ही रह जाता है। अपने स्वार्थों की पूर्ति तक ही संबंध होते हैं। मकानों के कई तल्ले होते हैं, घरों के तल्ले नहीं होते। मकान में कमरे और घर में कोठरी और ओसारी होती है।
         मकान में ‘मुंडेर’ नहीं होती, घरों में मुंड़हर होता है। बहुत कम मकानों में आंगन होता है। घरों में अनिवार्यता के साथ आंगन रहता है। आंगन में लीपना,बुहारना, मांड़ना, उसका श्रृंगार करना है। पवित्रता और शुद्धता भाव सहजात रूप से आंगन में उतर आता है। ‘मुंड़हरे’ पर कौआ जब सुबह सुबह बोलकर उड़ जाता है, घर मेहमान आने की खुशी में मगन होता है। कौआ सर्वभक्षी है, उसे शुभ नहीं माना जाता परंतु आगमन की सूचना पर लोग उसके चोंच को सोने से मढ़ाने की कल्पना का आशीष देता है। प्रिय, सहचर और मितकंठ भी नहीं है। फिर भी लोक और कविता में उसका नकार नहीं है। जायसी की नागमती कौअ‍े और सिंहलादीप में बसे प्रियतम रतन सेन के पास संदेश भेजती है कहती है कि कहना हम जन्म से काले नहीं थे, तुम्हारी विरह में जल मरी हैं, उसके धुंए से हम काले हुए हैं। घर में मनुष के साथ पशु होते हैं, पक्षी होते हैं, कुत्ते होते हैं, बिल्ली होती हैं,पिंजरे और घोसले होते हैं, सबका हिस्सा होता है, खाने पीने में बराबर के भागीदार।  घर घरनी से होता है। मकान किससे होता है, पता नहीं। संगीत में घराने होते हैं, घरानों की अपनी बंदिश लय और संस्कृति होती है, घर, घरौंदे और कुश की याद दिलाते हैं। घर-गृहस्थी का युग्म होता है, मकान का कोई युग्म नहीं, नितांत अकेला। घर बसाए जाते हंै, मकान नहीं। मैं यह सब इसलिए लिख रहा हूं कि देश के पचहत्तर प्रतिशत लोग गांव में रहते हैं।  घरों में रहते हैं, आजादी के चौंसठ साल बाद भी अभी करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो घर विहीन हैं, जिनके सिर पर छत नहीं है, सिर पर पॉलिथिन की पन्नियां हैं, सड़क के किनारे आशियाना है। घुमन्तु जातियां हैं, जिनका कोई ठिकाना नहीं वे भी मादरे हिन्द की संतान हैं।
      ‘है अपना हिन्दुस्तान कहां? वह बसा हमारे गांवों में’ कवि की यह उक्ति शर्म के साथ देश की सरकार भी स्वीकार ली है। कितना बड़ा विरोधाभास है कि कवि प्रधान भारत में कृषकों की आत्महत्या का ग्राफ विश्व में सर्वाधिक है। 2004 में देश में नौ खरब पति थे। मनमोहनी सरकार के चार वर्ष में छप्पन और अब यह स्ांख्या सौ के आसपास होगी। ये खरबपति घोषित हैं, अघोषित खरबपतियों की संख्या हजारों और लाखों में हैं। एक-एक घोटालों से छनकर आ रही रपटें क्या कहती हैं। नेताओं और अधिकारियों की एक दूसरे से गठजोड़ और सरपरस्ती क्या-क्या गुल खिला रही है, सारा देश देख रहा है, सन् 2000 में सकल घरेलू उत्पाद में खरबपतियों की हिस्सेदारी दो फीसदी थी, अब 22 फीसदी है। पैंसठ फीसदी आबादी खेती पर निर्भर है। जिसका सकल घरेलू उत्पाद घटकर सत्रह फीसदी रह गया है। देश के सबसे बड़े अमीर और गरीब के बीच नब्बे लाख गुना का अन्तर है। यह अनुपात उस कृषि प्रधान देश का है, जिसके चौरासी करोड़ लोग बीस रुपये रोज पर गुजारा करते हैं, फिर भी हम लोकतांत्रिक समाजवादी देश कहने में अघाते नहीं हैं।
    ये शहरी आंकड़े हैं, आंकड़े डराते हैं। आपकी औकात को आईना दिखाते हैं। गांव आंकड़े नहीं जानता। उसकी घट बढ़ प्रकृति पर निर्भर है। गांव की पगडंडी और मेड़ पर चलते हुए किसान गत और आगत फसलों की तुलना करता है। कोई टुच्चई की बातें नहीं बतियाता। गांव की मेंढ़ली में बैठी देवीदाई से मनौती करता है- मां अच्छी फसल देना,  बिटिया का बिआह करना है। तुमको रोट-लेवाला चढ़ाऊंगा। मां सबकी है, गरीब-अमीर किसी मंदिर में कैद नहीं है। रामनवमीं के मेले में चुनरी चढ़ाने का वायदा तोड़ता नहीं। कुछ पैसे कमाने शहरों में जाता है। ऋतुएं बुलाती हैं, फसलें पुकारती हैं, बचे खुचे माल-मवेशी,   पशु-पक्षी, पेड़-पौधे याद आते हैं इसलिए कि आंगन में नाड़ा खेड़ली गड़ी है। परदेश में कुुंडलिनी जागरण की स्मृति खींच लाती है। शहरों के अस्पताल में पैदा होने वाले नाभिनाल की क्या गति होती है, सब जानते हैं, इसीलिए विदेश गए शहरी युवकों को  नाभिनाल नहीं खींचती अपने देश की ओर, क्योंकि वह किसी नाले या गटर में बहा दी गई है। शहरी, ग्रामीण के अलावा भी एक नहीं आदिवासियों के अनेक ऐसे गांव हैं, जिन्हें ओपरा विन्फ्रे से बचाना होगा, जाने वे कौन सा आइना हमको दिखा दें। चन्द्रकान्त देवताले की कांटी गांव के लोग कविता ऐसा ही कुछ कहती है- अलबत्ता आ जाए दीदी महाश्वेता। बैठ जाए जीमने/ और तोड़ टुकड़ा घास की रोटी का/ पूंछ ले काए से खांऊ इसे/ और कह दे अकस्मात बुढ़िया कोई/ आंसू टपकाकर भूख मिलाकर/ खा ले माई/ तो क्या यह दुबारा/ धरती फट जाने जैसा नहीं होगा।
                                                         - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                            सम्पर्क - 09407041430.

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