Wednesday, January 25, 2012

उनकी कैद में हमारा गणतंत्र

        चिन्तामणि मिश्र
अपना बासठवां जन्म दिन मनाने गणतंत्र दिल्ली के जनपथ पर दर्शन देने की तैयारी कर रहा है। हमारे जनतंत्र को जनपथ इतना पसंद आया है कि पिछले इकसठ साल से वह इसी इलाके में कदम-ताल कर रहा है। वह अभी तक देश के करोड़ों गण से मिलने उनके आगंन, खेतों, छप्परों, फुटपाथों में नही पहुंचा है। हालांकि वह हमेशा हर जगह अपनी उपस्थिति का वायदा करता है, किन्तु अपने जन्म से ही वह जिन लागों की गाद में जा बैठा है वे ही लोग उसे झूठे वायदे करने की आदत डालने में कामयाब हो गए हैं। गणतत्रं से वंचित लोग तिरंगा हाथ में थामेअपने गणतंत्र का स्वागत करने  उससे अपना सुख-दुख बतिआने की प्रतिक्षा करते-करते  बूढ़े हो गए और नई पीढ़ी इन बूढ़ों से बार-बार पूछती हैं कि कहां है हमारा गणतंत्र ?
       हमें गणतंत्र के  आने की झूठी तसल्ली दे कर हमारी हलाकान जिन्दगी को और हलाकान क्यों कर रहे हो ? अब इन दोनों पीढ़ियों को कोसे और कौन समझाए कि हमारे गणतंत्र का जो लोग पालन-पोषण कर रहें हैं वे कभी नहीं चाहते कि गणतंत्र आम आदमी की सोहबत में रहने लगे, क्योंकि ऐसा होने पर गणतंत्र कुलीनों का नहीं बल्कि आम आदमी का गणतंत्र बन जायेगा और फिर उनके वैभव, अहंकार, बेहिसाब अमीरी, मसलपावर, घमंड, परिवारवाद, स्वार्थ, लालच निरंकुशता के द्वारा सत्ता पर पकड़ के लोप होने की सम्भावना प्रबल हो जायेगी। इसीलिए यह लोग हर साल छब्बीस जनवरी को सुबह एक दिन के लिए गणतंत्र को जनपथ पर सार्वजनिक दर्शन के लिए अपनी कैद से बाहर निकालते हैं और दूर से गणतंत्र के आम आदमी को दर्शन करा कर रात होते ही अगले साल तक के लिए लुटियन की पहाड़ी में बने सौ साल पुराने अंधेरे तहखाने में फिर सुरक्षित कैद कर देते हैं।
हमारा जनतंत्र सब के पास जाना चाहता है किन्तु उसे जाने नहीं दिया जाता। जब-जब गणतंत्र ऐसा करने का प्रयास करता है तो उसके संरक्षक बने सियासत के सुलतान उसके रास्ते में अजीब-अजीब दलीलों के स्पीड बे्रकर खडेÞ करके आम आदमी तक जाने में बाधा पहुचाने में सफल हो जाते हैं। एक बाधा और भी है कि हमारे गण्तंत्र को जिसे संविधान से रोशनी मिलती है, वह संविधान पूर्ण नहीं है, क्योंकि संविधान सभा का चरित्र लोकतांत्रिक नहीं था। संविधान बनाने का दायित्व निर्वाचित संसद को सौंपा जाता तो बेहतर संवैधानिक हथियार देश को मिलता। इस संविधान के अर्न्तगत चुनी हुई सरकारों ने अपनी जरूरतों के अनुरूप संवैधानिक मूल्यों को नकारते हुए कई परिवर्तन कर लिये। कालाधन, चुनाव में धनबल, बाहुबल का तांडव, नौकरशाही का असमाजिक चरित्र और दबदबा,  भ्रष्टाचार, संविधान की व्यवस्थाओं के विपरीत होते हुए भी पनप रहें हैं। सरकारी जुआं-घर के रूप में शेयर बाजार, वायदा बाजार में सरकार करोड़ों रुपए की कमाई जुआड़ियों को करवा रही है। जबकि करोड़ों लोग बीस रूपए रोज भी नहीं कमा पा रहे हैं। हमारे संविधान को तैयार करने और अंगीकार करने में तीन साल पांच माह और ग्यारह दिन लग गए। इस संविधान में हमें दुनिया भर के संविधानों की झलक तो मिलती है, किन्तु अपनी विधि की झलक नहीं मिलती। संविधान में हमारा परिचय केवल एक वाक्य में है- भारत अर्थात् इंडिया राज्यों का संघ होगा। हमने भारत को भी इंडिया से व्याख्या करने की जरूरत समझी। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में जो पीढ़ी राज कर रही थी, वह अपनी अंग्रेजी शिक्षादीक्षा के कारण यूरोपीय विचारों से इतनी चौंधिआई हुई थी कि उसके बाहर कुछ देख पाना उसके लिए सम्भव नहीं था।
 जो लोग हमारा संविधान बनाने बैठे थे वे स्वतंत्रता आन्दोलन की इस मूल दृष्टि से ही पीठ फेर कर बैठे थे कि भारत में जीवन के मूलभूत सिद्धांत स्वदेशी, सत्य, अंहिसा, अपरिग्रह, और भारतीयता है। हमारे संविधान में गण तो कहीं है ही नहीं। गण मूलत: एक समूहवादी पद है। भारत में हमेशा समाज को विभिन्न समूहों के रूप में देखा गया है। यहां समाज की अंतिम इकाई परिवार है व्यक्ति नहीं। हमारा संविधान राज्य और एकल नागरिकों के बीच अधिकारों और कर्तव्यों का दस्तावेज है। हमारे यहां संम्प्रभुता जैसी कोई धारणा नहीं थी। यूरोप में जिस तरह राज्य को संप्रभु माना गया है, हमारे यहा नहीं माना गया। हमारे यहां राज्य को विधि के नहीं दंड का अधिकार रहा है।
 असल में हमारा संविधान पूंजीवादी गणतंत्र का पैरोकार है। इसी के चलते सन 1991 में हमारी अर्थनीति में जो गहरे परिर्वतन हुए उन्होंने राज्य को आम आदमी के प्रति अधिक संवेदना-शून्य और क्रूर बना दिया । हमारे इसी संविधान को हाथ में लेकर जनता के खजाने से सरकारें दिवालिया होने जा रहे उद्योगों को अरबों रुपए के पैकेज उदारता से दान कर देती है। टैक्स माफ कर दिये जाते हैं, किन्तु किसान से उसके खेत नाममात्र के मुआवजे में छीन कर उद्योगों को देकर अन्नदाता किसान को भूमिहीन मजदूर बनाकर बीपीएल कार्ड थमा दिया जाता है। आजादी के बाद देश में सर्वाधिक किसानों की आत्महत्या का रिकार्ड हमीं ने बनाया है। हमारा गणतत्र मुठ्ठी भर लोगों को घनकुबेर बनाने का अवसर सुलभ कराता है और शेष लोगों को नमक-रोटी तक सीमित रखता है। गणतंत्र का बुनियादी ध्येय समानता है और हमारे यहां इसी का अभाव है। समानता और स्वतंत्रता   जुड़वा संताने हैं। लेकिन, बासठ साल हो जाने पर भी उदारीकरण की आत्मघाती नीतियों ने गणतंत्र को विकसित ही नहीं होने दिया। हमारे लोकतंत्र में लोक बेबस होता जा रहा है। उसके प्रतिनिधि बिकते जा रहे हैं, भ्रष्ट होते जा रहे है। यह कैसा गणतंत्र है, जिसमें देश की सरकारें गण की इच्छाओं के खिलाफ जा कर फैसले  कर रही हंै। जनता को मूर्ख समझने और उसे धमकाने में लगी हैं। जन इच्छा को रौंदने में विपक्ष भी पीछे नहीं है। अभी मजबूत लोकपाल के प्रसंग में सत्ता और विपक्ष दोनों ने जन इच्छा को कुतुबमीनार पर टांग कर बता दिया कि जनता नहीं हमारा गिरोह ही देश का भाग्यविधाता है।
  असल में पेशेवर राजनीतिज्ञ गणतंत्र की सबसे बड़ी समस्या हैं। यह वर्ग पराजीवी है। जब तक देश में पेशेवर राजनीतिज्ञ रहेंगे तब तक देश में गणतंत्र दिल्ली के तहखाना में कैद ही रहेगा। राजकाज से जिनकी जीविका ही नहीं चलती बल्कि अवैध कमाई का रास्ता खुलता है, उन्हें भ्रष्ट और स्वार्थी होने में हिचकिचाहट नहीं होती। सत्ता में ही बने रहना इनका एकमात्र लक्ष्य हो जाता है। संवैधानिक तानाशाही और अंखड भ्रष्टाचार की जहरीली छाया में गणतंत्र का कोमल विरवा कुम्हला रहा है। यह अच्छी बात है कि अपनी नर्क से भी बदतर जिदंगी के बावजूद आम आदमी निराश नहीं है और उसे विश्वास है कि वह अपने गणतंत्र को कैद से आजाद करा लेगा।                            

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