Thursday, January 12, 2012

कबिरा कुत्ता राम का मोतिया मेरा नाउं


 मनुष्य के आसपास रहने वाले प्राणियों में कुत्ता ही एक ऐसा जीव है, जो आदिकाल से उसके साथ रहा है। पुराकथाओं में भी उसकी भूमिका सबसे विश्वसनीय साथी की रही है। पाषाण युग में मनुष्य के शिकारी जीवन में शिकार की तलाश का वह अगिम दस्ता था। महाभारत काल में वह धर्मराज का साथ, किंबहुना धर्म का स्वरूप था। एकलव्य की एकान्त साधना का अन्वेषी कुत्ता था, जिसका भोंकना एकलव्य ने मुंह में बाण भरकर बंद कर दिया था और बाण के प्रहार के बावजूद कुत्ते के मुख से एक बूंद खून तक नहीं टपका था, हस्तलाघव का इतना संयत और अभ्यस्त प्रहार अर्जुन को भी नहीं आया। कुत्ता कसौटी बन गया। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होते हुए भी एकलव्य को राजकुमार से पीछे ही रहना पड़ा। धर्मराज युधिष्ठिर के साथ उसने स्वर्गारोहण किया। एक तरह से कहें तो जन्म से लेकर मृत्यु तक का एकमात्र साथी। पता नहीं उस समय कुत्तों की उम्र कितनी होती थी। कुत्ता पालने की परम्परा मनुष्य की प्रारंभिक अवस्था से ही रही जो अद्यावधि कायम है। पहले कुत्ते मालिक के आगे टोह लेते हुए चलते थे, या अनुसरण करते थे। उनको अदभुत घ्राण शक्ति प्राप्त है। अब तो वे पुलिस और सेना के प्रमुख अंग हैं, उनके ओहदे भी पुलिसिया हैं। उनका रखरखाव देखभाल प्रशिक्षण चौंकाता है। पहले वे आदमी के अधीन होते थे, अब कई व्यक्ति और पद उनके अधीन होते हैं। स्वामिभक्ति की वे मिसाल हैं। आदमी जिन अपराधियों तक नहीं पहुंंच पाता, उसका पता कुत्ते आसानी से लगा लेते हैं। ‘कुत्ता’ गाली भी है। कभी कबीर को अवमूल्यित करने के लिए पंडितों ने कबीर (एक विशिष्ट गाली जो होली के दौरान भाभियों को दी जाती है) कह कर अपमानित किया था, उसी तरह बेबाकी में बाबा नागार्जुन का भी नाम लेकर अपनी भड़ास निकालने का प्रचलन है- ‘अब तो कुत्तों ने भी कुत्ते पाले हैं’ से लेकर ‘कुत्तों ने ही कुत्ते पाले हैं’ की व्यंजना बाबा के नाम है।
लोक कवियों ने भी भक्ति के प्रवाह में ‘जो हम होइत राम जी क कूकुर’ लिखा है, और उनका खाना खाते हुए, टुकुर-टुकुर देखने की अभिलाषा की है, लगभग रसखान की तरह, बिना उस ऊंचाई तक पहुंचे। कबीर ने भी ‘कबिरा कूता राम का मोतिया मेरा नाउं/गले राम के जे बड़ी जित खींचो तित जाउं/’कहां है। भक्ति के प्रकार भले ही नौ हों, लेकिन स्वामिभक्ति से बड़ी कोई भक्ति नहीं। आज के कुत्ते बड़भागी हैं, जिन सुन्दरियों के देह स्पर्श के लिए देवराज इन्द्र को अनेक रूप बदलना पड़ा था वे ही इन्द्र कुत्ते का रूप धारण कर कामिनियों के देह का स्पर्श सहज रूप से ही प्राप्त कर लेते हैं। जितना दुलार आज के कुत्तों को मिलता है, उसे देख सुनकर स्वर्ग में बैठा धर्मराज का कुत्ता भी ईर्ष्या करता होगा। अपने-अपने परवरदिगारों की स्तुति में भोंकना कुत्तों का परम धर्म है। अपनी-अपनी खोरि में सभी कुत्ते ताकतवर होते हैं। दूसरों की खोरि में घुसते ही अपनी दुम दबा और थूथन नीचे कर लेते हैं।
रामायण काल में भी एक कुत्ते के न्याय का प्रसंग है जो आज भी प्रासंगिक है। राम के राज्य में सभी को न्याय प्राप्त था। कहते हैं कि एक कुत्ता सड़क के किनारे लेटा आराम कर रहा था। जटाजूटधारी कमण्डल लिए एक साधु उधर से निकले। उन्होंने किनारे बैठे उस कुत्ते को एक डंडा मार दिया। कुत्ता चीखते-चिल्लाते राम की अदालत में पहुंचा और फरियाद की कि ‘प्रभो! बिना किसी अपराध के मुझे साधु ने मारा, मुझे न्याय चाहिए।’साधु को बुलाकर पूछा गया, साधु ने मारने का अपराध स्वीकारते हुए कुत्तों पर तीन आरोप लगाए। पहला- ये रास्ते के किनारे ही बैठते हैं, स्वाभाविक रूप से पास से गुजरने पर डर लगता है कि कहीं काट न लें। दूसरा- ये किसी पेड़ पौधे झाड़ी पर एक टांग उठाकर अक्सर पेशाब कर देते हैं। तीसरा- ये संतों, साधुओं को देखकर भूंकते हैं और पीछा करते हैं, इसलिए मैंने इसे मारा, इसमें मेरा क्या दोष? राम ने कुत्ते से साधु के आरोप की सफाई मांगी। कुत्ते ने कहा - ‘प्रभो! यह संसार है, सारे जीव-जन्तु संत-असंत सभी इस रास्तों से संचरण करते हैं। मैं किनारे लेटा एक नजर उठाकर सभी को देखता हूं, जो सज्जन लोग हैं, चुपचाप चले जाते हैं, लेकिन जो दुष्ट हैं, मुझे मारते हैं। न मैं डराता हूं, न भोंकता हूं, परंतु मुझे मार खानी पड़ती है। राम ने साधु से पूछा- ‘क्या’ यह सच है। साधु ने कहा - ‘हां! यह सच कह रहा है।’ कुत्ते ने दूसरे आरोप की सफाई दी - ‘प्रभो! मैं कुत्ता हूं, धरती मेरी मां है, मैं उसी कोख-आंचल को सीधे गंदा नहीं करता, किसी वस्तु का सहारा लेकर धीरे से टट्टी-पेशाब करता हूं। इन साधुओं की तरह जहां-तहां सीधे खड़े या बैठकर मैं मां को गंदा नहीं करता। साधु उत्तर से संतुष्ट हुए और राम भी। तीसरे आरोप पर कुत्ते ने कहा- ‘यह सच है कि मैं जटाजूट धारी, नग्न, विभिन्न बानाधारी सन्यासियों को देखकर भूंकता हूं, गांव के बाहर तक उन्हें खदेड़ता हूं। जब इन्होंने घर-परिवार छोड़ दिया, वैराग्य ले लिया फिर क्यों गृहस्थों के पास आते हैं, इसलिए गांव की सीमा तक खदेड़ता हूं कि आप तप करें, यहां लौटकर न आयें। प्रभो! अब आप ही फै सला करें, अपराधी कौन है, मैं या ये स्वनामधन्य संत महात्मा! राम और साधु ने भी कुत्ते की बात में न्याय देखा। साधु ने गलती स्वीकारी, बोले-‘प्रभो! मुझे दण्ड दें।’ राम ने कहा मुझे दण्ड देने का अधिकार   नहीं है, जिसे आपने दुख पहुंचाया है, वही कुत्ता आपको दण्ड देगा। कुत्ते ने कहा- ‘प्रभो! इन्हें किसी मठ-मंदिर का महंत बना दिया जाए।’ राम चौंके- ‘यह दण्ड है या पुरस्कार! महन्तों को तो हर तरह का सुख प्राप्त रहता है। कुत्ते ने कहा- ‘मंै भी पिछले जन्म में महंत था, इस जन्म में कुत्ता हुआ। ये सन्त भी महंत होकर जीवन का सुख भोगें और मरने के बाद मेरी ही योनि में जन्म लेकर रास्ते के किनारे बैठकर डंडे खाएं। इन्हें यही दण्ड दें।’ राम राज्य की यह न्याय व्यवस्था समस्त जीव-जन्तुओं को दण्ड देने और पाने का अदभुत दृष्टान्त है। मनुष्य के अनुषंगी साथियों में जितना कुत्तों पर लिखा गया, किसी अन्य पर नहीं। सतयुग, त्रेता, द्वापर हुए या नहीं जानता, पढ़ा अवश्य पुराणों के युगनिर्धारण में। कलयुग के इस चरण को ‘कुत्ता युग’ कहा जाए यह अधिक समीचीन होगा, क्योंकि लगभग सभी श्रेष्ठतम स्वामिभक्ति के दिखावे में लगे हैं। धरती की अन्य प्रजातियां भले ही दिन प्रतिदिन समाप्त होने की ओर अग्रसर हैं, कितनी तो लुप्त हो गई जिनका सफाया हम अक्सर करते रहते हैं। कुत्ते निरंतर संख्या और शक्ति बल में आगे बढ़ रहे हैं।
***चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र   - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                            सम्पर्क- 094070 41430.

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