Thursday, December 22, 2011

जागीरदार बनने का प्रपंच

  अन्ना हजारे के जनलोकपाल आंदोलन ने एक नई बहस संसद बनाम जनता छेड़ दी है। हालांकि इस आंदोलन का यह कभी मुद्दा नहीं था किंतु आंदोलन के पहले चरण में ही कांग्रेस ने यह कहना शुरु कर दिया कि अन्ना हजारे संसद को ब्लैकमेल कर रहे हैं। सांसदों के अधिकारों का अपहरण कर रहे हैं। संसद सवैधानिक संस्था है और अन्ना हजारे इसकी गरिमा गिराने के लिए जनता को भ्रमित करके उकसा रहे हैं। इसी तरह के आरोप लगभग हर दल के सांसदों ने लगाए। जाने या अनजाने जब यह प्रसंग उठ ही गया है तो यह उचित होगा कि इस पर राष्टÑीय बहस हो और जनता तथा जनप्रतिनिधियों को अपने लोकतंत्र की वास्तविक नियंत्रण रेखा की जानकारी हो जाए। इसे कभी चुनौती किसी ने नहीं दी कि संसद सर्वोच्च है। यह भी किसी ने दावा नहीं कहा कि कानून संसद में नहीं बल्कि सड़कों पर बनेगा। लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि सरकार और संसद बार-बार इसी बात को जो कही ही नहीं गई, दोहराते जा रहे हैं। देश हो या समाज, इनके सुचारु संचालन में सबकी अपनी-अपनी भूमिका होती है। अगर हम लोकतंत्र को अंगीकार कर चुके हैं, तो इस हकीकत से पलायन करने की किसी को इजाजत नहीं दी जा सकती कि लोकतंत्र में जनता और केवल जनता सर्वोच्च होती है। इस अधिकार पर विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका भी कांट-छांट नहीं कर सकती। इसी बिन्दु पर तानाशाही और लोकशाही में फर्क है। विशाल आबादी सीधी भागीदारी से कानून नहीं बना सकती। राजकाज भी नहीं चला सकती। इसीलिए जनता मिलकर अपना प्रतिनिधि नियुक्त करती है। सर्वविदित है कि प्रतिनिधि को ऐसे असीमित अधिकार कभी नहीं मिल सकते कि वह अपने नियुक्तिकर्ता के हितों तथा इच्छा के विपरीत कार्य करे।
     संसद और सांसदों की गरिमा संविधान की पोथी और भव्य भवन से नहीं बन सकती। वह बनती है संविधान की आत्मा का अनुसरण करने, जनता के प्रति प्रतिबद्धता और आदर्श जीवनशैली से। पहले जब कभी संसद में हंगामा होता था तो देश चौंक जाता था। अब हफ्तों संसद को सांसद जाम कर देते हैं और लोग उदासीन बने रहते हैं। जनता ने जिन प्रतिनिधियों को सर्वोच्च प्रजातांत्रिक सत्ता और संस्था में भेजा है, वे वहां संसदीय मर्यादाओं को तोड़ते हैं और मूल्यों को रौंदते हैं तब संसद और सांसदों की गरिमा को बनाये रखने का दायित्व किसका है? लोकतंत्र किसी सत्ता या सत्ताधारी का बंधुआ नहीं होता। वह समाज की जरूरत से पैदा हुआ है और समाज ही उसे निर्देशित करता है। जहां तक संसद को जनता की भावना से अवगत कराने और जन-इच्छा संसद तक पहुंचाने की बात है, तो जनता को ऐसा करने का अधिकार है।
 लोकतंत्र मुर्दा व्यवस्था नहीं है कि कुर्सी पर बैठ कर प्रेत-पूजन करो और लोग चुपचाप देखते रहें। लोकतंत्र विकसित और परिवर्तित होती रहने वाली व्यवस्था है। लोकतंत्र में हमेशा तंत्र को लोक के आधीन रहना होता है। एक बार जनता ने अगर अपना प्रतिनिधि चुन लिया है तो इसका यह आशय नहीं हो सकता कि पांच साल तक मनमानी करने और जनविरोधी कारनामों को करने की गारंटी मिल गई है। डॉ. राममनोहर लोहिया ने तो नारा ही दिया था- जिन्दा कौमें पांच साल का इंतजार नहीं कर सकती। संसद की शालीनता भंग करने और जन-इच्छाओं का अपहरण करने वाले प्रतिनिधियों का उपचार समय के पूर्व इनकी वापसी का प्रावधान ही पर्याप्त है कि संसद और सांसद जनता के नियंत्रण में हैं। अभी रिकॉल का अधिकार हमारे देश मे नहीं आ पाया है किंतु दुनिया के कई देशों में इसका प्रावधान है। ब्रिटेन में इसके आगमन की सुगबुगाहट होने लगी है। प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार विधायिका पर जनता का अंकुश लगाने और इस तरह जनतंत्र को मजबूत करने के लिए उपयोगी होगा।
  जिस संसद को जनता स्वतंत्रता का पावन मंदिर समझती है उसी में सवाल के बदले सांसद पैसा मांगते दिखे। सत्ता के पक्ष में पैसा लेकर वोट देने के लिए तैयार सांसदों के दर्शन हुए। संसद में अपराधी पृष्ठभूमि के प्रतिनिधि संसद में किस सम्मान में वृद्धि कर रहे हैं। सन 2001 में आंतकवादियों ने दिनदहाड़े संसद में हमला किया और देश के कई सुरक्षाकर्मी शहीद हुए, किंतु दस लम्बे साल बीत जाने के बाद भी संसद पर खूनी हमला करने के षड़यंत्रकारी गुरु को अभी तक फांसी नहीं मिली हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने फांसी पर लटकाने का फैसला कई साल पहले दे दिया था। हमारे सांसद और हमारी संसद को इस बेशर्म अंधेरगर्दी के चलते सम्मान बचाने की सुधि क्यों नहीं आती? जब अपराधी देश में कब्जे में है और देश की सबसे बड़ी अदालत ने सजाए-मौत का फैसला दे दिया है, तब सजा पर अमल न करने पर संसद सरकार को बाध्य करने की जगह मौन क्यों है? संसद दो लाइन का प्रस्ताव पारित करके महामहिम को अफजल गुरु की  दया-याचिका पर तुरंत फैसला करने का निर्देश दे सकती है। ऐसा प्रस्ताव पास करना गैरसंवैधानिक भी नहीं है। लेकिन आंतकवादी की बेहतरीन मेहमाननवाजी की जा रही है। सांसदों को समझना होगा कि ऐसे धतकरम से संसद की गरिमा मटियामेट होती है।
     देश ही नहीं अब तो सारी दुनिया जानती है कि कांग्रेस ने गैर सांसदों की एक कोर कमेटी बना रखी है जो नीतियां बनाती है। कानून का प्रारूप तैयार करती है और इसे सरकार संसद में प्रस्तुत करती है। इसे लेकर सांसदों को अपनी और संसद की अवमानना का बोध क्यों नहीं है? आखिर बाहरी लोग जिन्हें जनता ने नहीं चुना वे संसद के काम में खुलेआम   हस्तक्षेप कर रहे हैं। दावा किया जा रहा है कि कानून केवल जनप्रतिनिधि बना सकते हैं किसी सिविल सोसायटी को यह हक नहीं है। संसद को फिर यह भी बताना चाहिए कि बयालिस साल तक भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए मजबूत कानून क्यों नहीं बनाया? ऐसे में जनता को हक है कि वह पहल करे। चुनाव के बाद जनता अधिकारविहीन नहीं हो जाती। उसकी सार्वभौमिकता यथावत रहती है। जनता और देश की किस्मत से खेलना उसके ही प्रतिनिधियों ने अपना विशेषाधिकार समझ लिया है और इस विशेषाधिकार को जहां से चुनौती मिलती है उसे वह लोकतंत्र को मिलने वाली चुनौती बताते हैं।
  पक्ष और पिपक्ष मे रहकर राजनीति करने वाले महाप्रभुओं को समय की दीवाल पर लिखी इबारत जितनी जल्दी हो, पढ़ लेनी चाहिए कि जनता से बड़ा कोई महाबली नहीं होता। रागदरबारी का सनीचर कच्छा-बनियान पहन भांग पीसता था। बदन पर प्रधान का कुरता चढ़ते ही उसमें अकड़ आ गई। उसे प्रधान का कुरता वैद्यजी ने पहनाया था। इसे वह कभी नहीं भूला। इस गाथा का एक अर्थ यह भी है कि जनता ही वैद्यजी है। जागीरदार बनने का प्रपंच अब चलने नहीं वाला है।
      ***चिन्तामणि मिश्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
     

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