Friday, December 2, 2011

अदम गोंडवी : दो गज़लें


एक
ग़र चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे
क्या इनसे किसी कौम की तक़दीर बदल दोगे

जायस से वो हिन्दी की दरिया जो बह के आई
मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे ?

जो अक्स उभरता है रसख़ान की नज्मों में
क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे ?

तारीख़ बताती है तुम भी तो लुटेरे हो
क्या द्रविड़ों से छीनी जागीर बदल दोगे ?

दो

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये

हममें कोई हूण , कोई शक , कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात , अब उस बात को मत छेड़िये

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं ; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये

हैं कहाँ हिटलर , हलाकू , जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब ,क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये

छेड़िये इक जंग , मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त , मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये


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