Sunday, December 25, 2011

अपने ‘मैं’ को ‘हम’ पर मत थोपिए

  किसी भी लोकतंत्रिक व्यवस्था में जब प्रतिपक्ष प्रतिद्वंदी में बदल जाए, विपक्ष विरोधी बन बैठे, निष्पक्षता का मतलब तटस्थता हो जाए और ‘मैं’ ‘हम’ को हांकने लगे तो समझिए वहां राजनीतिक अराजकता ने दस्तक दे दी है। देश में इन दिनों कुछ इसी तरह का माहौल बनाने की कोशिशें हो रही हैं। टीवी चैनलों की सतही और अधकचरी खबरें सच और झूठ को गडमड कर भ्रम का नया वितान तानने में जुटी हैं। अभी तक देश के संविधान, लोकतांत्रिक संस्थाओं पर अविश्वास व्यक्त करने वालों को नक्सली करार किया जाता था, पर अब तो कोई भी ऐसा कह सकता है और ऐसा कहने का आह्वान कर सकता है।
गनीमत है कि टीम अन्ना के बड़बोले मेम्बर अरविंद केजरीवाल का बाम्बे हाइकोर्ट के फैसले को लेकर कोई अब तक कोई वक्तव्य नहीं आया कि संसद की तरह  देश के न्यायालयों पर भी उनका विश्वास नहीं है, क्योंकि कोर्ट ने उनके हिसाब से फैसल नहीं दिया है। सांसदों, विधायकों और निर्वाचित प्रतिनिधियों के खिलाफ उनके काम और आचरण के आधार पर अविश्वास और नफरत की बात करने के लिए तो कोई भी स्वतंत्र है पर, लोकतांत्रिक संस्थाओं और समूची प्रणाली पर खुलेआम कोई ऐसी टिप्पणी करें, और हम सुनकर भी अनसुना कर दें ,ऐसी प्रवृत्ति का उभरना हमारे  हिसाब से ठीक नहीं है।
 पिछले 11 दिसंबर को टीम अन्ना ने जंतर-मंतर पर अपने जनलोकपाल पर बहस के लिए राजनीतिक दलों को बुलाया था। यूपीए के साथी दल छोड़कर प्राय: सभी राजनीतिक दल चौराहे की इस बहस में शामिल हुए। टीम अन्ना भले ही यह प्रचारित करे कि ये दल उनके जनलोकपाल के विचारों से सहमत हैं पर हकीकत कुछ और है। इनमें से किसी ने जनलोकपाल का पूरा समर्थन नहीं किया। टीवी के एंकरों की तरह हां या न की शैली में संचालन कर रहे अरविंद केजरीवाल के हाथों से माइक छीनते हुए सीपीआई के डी राजा ने कहा कि बहस की यह जगह नहीं। इस विषय पर जो भी बहस होगी वह संसद में होगी। राज्यसभा में भाजपा के नेता अरुण जेटली ने कहा कि बुनियादी मुद्दों पर सभी राजनीतिक दलों ने अपनी राय स्पष्ट कर दी है, विशिष्ट मुद्दों पर संसद में ही बहस होगी। सीपीआई के महासचिव एबी बर्धन ने साफ-साफ कहा कि टीम अन्ना के मुठ्ठी भर सदस्यों को यह नहीं सोचना चाहिए कि उन्हीं के पास सारी बुद्धि है और वही लोग पूरे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। जो लोग इनकी बातों से सहमत नहीं इसका मतलब यह नहीं कि वे लोग भ्रष्ट लोगों के समर्थक हैं। एक सौ बीस करोड़ के देश मे विद्वानों की कमी नहीं है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अन्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की भावनाओं के प्रतीक बनकर उभरे हैं। देश की जनता सचमुच भ्रष्टाचार से इतनी त्रस्त है कि कोई कालाचोर भी चौराहे पर खड़ा होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने लगे तो उसमें भी आशा की किरण नजर आने लगती है। लेकिन अन्ना की मंडली को इस बात का भ्रम हो गया है कि जुटने वाली भीड़ के एक मात्र मोक्षदाता वही हैं, शायद इसीलिए उनका ‘मैं’ ‘हम’ को हांकने की कोशिश करता है। अन्ना की मंडली को लगता है कि उन्होंने जो ड्राफ्ट तैयार किया है वही ब्रह्मवाक्य है और उसकी एक लाइन भी आगे पीछे करना महापाप और भ्रष्टाचारियों की साजिश है। ईमानदारी का इतना दंभ होना भी कदाचरण की श्रेणी में आता है। अपने ‘मैं’ के अहम की तुष्टि के लिए भ्रष्टाचार शब्द का दोहन भी एक तरह से भ्रष्टाचार ही है।
   हमारी चिंता का विषय भी ‘मैं’ की तानाशाही को लेकर है जो आज की राजनीति में उछाल मार रही है। यह ‘मैं’ राहुल गांधी का भी हो सकता है, मायावती, ममता, मुलायम, लालू और जयललिता का भी। यह ‘मैं’ भारत के संविधान की पहली पंक्ति  ‘हम भारत के लोग..’ के ‘हम’ की आत्मा पर आघात करता है। अब लोकपाल को लेकर जो फार्मूला राहुल गांधी ने संसद में पेश किया था कांग्रेस के लिए तो वही ब्रह्मवाक्य है। सोनिया गांधी ने राहुल के ‘मैं’ की प्रतिष्ठा के लिए आरपार की लड़ाई का ऐलान कर दिया। हमने तो कम से कम यह नहीं सुना कि कांग्रेस ने पार्टी के भीतर लोकपाल को लेकर कोई गंभीर बहस चलाई हो, जिसमें इकाई स्तर तक कार्यकर्ताओं को शामिल करते हुए उनसे राय ली गई हो। पार्टी के भीतर ही सही यह ‘मैं’ की तानाशाही नहीं है तो और क्या है। इसी कांग्रेस में  सुभाष बोस गांधीजी से असहमत हो जाते थे, उनके प्रत्याशी के खिलाफ चुनाव भी लड़ा और जीते। पर वे गांधी ही थे जिन्होंने उन्हें नेताजी का अलंकरण दिया। डाक्टर राजेंद्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार बल्लभभाई पटेल में असहमतियां होती थी। पर तब कांग्रेस में ‘हम’ का नेतृत्व हुआ करता था ‘मैं’ सिर्फ निजी विचार तक ही सीमित रहता था।
    आजादी के बाद सदन में प्रतिपक्ष प्रतिद्वंदी नहीं हुआ करता था। तर्कों के तीखे और निर्मम प्रहार करने वाले लोहिया का सदन में पंडित नेहरू को बेसब्री से इंतजार रहा करता था। अटलबिहारी वाजपेई इंदिरा गांधी की प्रशंसा को लेकर शब्दों की कंजूसी नहीं बरतते थे। इंदिराजी भी अटल को संयुक्तराष्टÑ में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजने में गर्व महसूस करती थीं। अब विपक्ष किस तरह विरोधी बन बैठा है, जार्ज फर्नाडीस और पी चिदंबरम का दृष्टांत सामने है। एनडीए सरकार में जार्ज को यूपीए के सदस्यों ने बोलने नहीं दिया तो अब चिदंबरम को बोलने से रोककर बदला चुकाया जा रहा   है। संसद में पूरे ढाई साल देश कर रक्षामंत्री अपनी बात रखने के लिए तरसता रहा। अब देश के गृहमंत्री मंत्री की जुबान विपक्ष के शोर में गुम है।    राजनीति में सहिष्णुता अंतिम सांसें ले रही है। केंद्रीय मंत्री होकर भी बेनी प्रसाद वर्मा किसी मुहल्ला छाप गुंडे की भांति एक बूढेÞ अन्ना हजारे को चुनौती देते हैं कि यूपी में घुसना तो देख लेंगे। अब सामने यूपी समेत पांच राज्यों के चुनाव हैं। मर्यादाओं के टूटने के कितने कीर्तिमान बनते हैं, देश यह देखने के लिए अभिशप्त है। अखबारों की ‘पेडन्यूज’ चुनाव की सुचिता पर कितना मैला घोलती हैं और खबरिया चैनल किस तरह कौव्वे से कान उड़ाते हैं यह अभी देखना बाकी है। और सबसे दिलचस्प तो यह होगा कि अन्ना की मंडली कांग्रेस को धूल चटाने किसकी पालकी पर सवार होकर निकलती है।

No comments:

Post a Comment