Thursday, December 22, 2011

लोक के वेद हैं शिशु-गीत

  प्रत्येक बोली का अपना लोक है। उसके अपने जातीय संस्कार हैं, गीत हैं। पड़ोसी बोली का प्रभाव हवा-पानी की तरह रसमय है। फिर भी अपनी बोली की ठसक सम्पूर्ण अस्मिता के साथ जीवन्त हैं। वेदों को अपौरुषेय कहा गया है, लोक में गाए जाने वाले गीतों के रचयिता भी अनाम हैं और ये गीत तबसे हैं, जबसे लोक की सृष्टि हुई। अपना आनंद, उल्लास और दु:ख पशु भी अनेक संकेतों एवं ध्वनियों से व्यक्त कर देते हैं, पक्षी तो हमेशा से गायन के क्षेत्र में मनुष्य के सहभागी रहे हैं। मनुष्य ने भी उनसे गीत सीखे हैं, उनके रुदन से अनुष्टुप रचे हैं। आदि काल से बच्चों के रोने में ,हंसने में उससे गीतों की कल्पनाएं की हैं। उनके खेलने-खाने के गीत गाए हैं। उन गीतों के अर्थ भले ही काव्य स्तरीय न हों, लेकिन उनकी लयात्मकता में आनंद हैं, जिसे देखने सुनने को देवता भी लालायित रहे हैं। कृष्ण की रास लीला के ‘गीत पंचाध्यायी’ और ‘गीत गोविन्द’ रचते हैं। लोक में गीतों का प्रारंभ विभिन्न प्रकार के खेल-गीतों में मिलता है। कृष्ण काव्य समूचा लीला काव्य है। जो लीला पुरुषोत्तम है, उसके हर कृत्य लीला (खेल) मय ही होंगे, कदापि इसी खेल प्रवृत्ति के कारण ही कृष्ण दशावतारों में लोक के सबसे गरीब हैं। कृष्ण की बाल क्रीड़ाओं में साहित्य में नए रस का वत्सल भाव दिया, जिस भाव के लिए देव-संसार तरसता रहा, उसे लोक ने सहज ही प्राप्त कर लिया। बघेली लोक संसार भी ऐसे ही वत्सल लोक खेलों से अटा पड़ा है। बच्चे दूध पीने में आनाकानी करते हैं। जिस तरह बछड़े गाय को पीते हैं- उसी तरह बच्चे (लाला) भी पीना चाहेंगे, बचपन में चाहते रहे हैं-
आउ आउ गउआ तुं हुुंकुरत आउ/ लाला क हमरे तुं दूध पिआउ/लाला हमार हमा अनमोल/ रीझत हं सुनि मीठ मीठ बोल। रूठे बालक को मनाना सदा से कठिन रहा है। बाल हठ से बड़े-बड़े बादशाह हारे हैं। मां यशोदा भी हारी हैं। सूझ-बूझ से ही उनको मनाया जा सका है। चन्दा मामा रहा है, मनाने में सिर्फ वही भान्जे को मना सका है, धरती के अन्य रिश्ते चन्दा के सामने फीके हैं। चन्दा मामा के लिए बघेली में जोन्हा भाई है, मां हो कि मामा, उसको व्याकरण से क्या लेना देना। मां-दादी-नानी दूध पिलाने के लिए बुला रही है- धाई आउ, धुपाई आउ/ सातउ खोरबा लइकै आउ/ दहिउ क मोरबा लइकै आउ/ लाला के मुहे म घुटुक्क।  खाली दूध से मेरा लाल मानने वाला नहीं, उसके लिए दही भी लाना। लाला को चन्दा मामा के बाद सबसे प्रिय चिरई-चुनगुन है। वह इन्हें पकड़ने के लिए दौड़ता है, पर पकड़ नहीं पाता। पक्षी भी जानते हैं कि हमें पकड़ कर पिंजड़े में डाल दिया जाएगा, पालतू बना लेंगे। कोई भी प्राणी पालतू नहीं होना चाहता, लेकिन मनुष्य की स्वार्थी और भेद बुद्धि ने चराचर को पालतू बनाने की संकल्पना पाल रखी है। मीठे बोल, बोलकर अपने लाला के लिए चिरइयों से चिरौरी करता है- आउ रे चिरइया, वन मुरली बजाउ/ सांझ-सकारे हमरे लाला क खेलाउं/ चिरई के माध्यम से उसे लोरी सुना रहा है, अंत में थपकी देकर हइरो-हइरो-हइरो गाकर सुलाने का प्रयास करता है।
उसका लाला सुखी रहे, फले-फूले यह कल्पना मनुष्य मात्र की है। उसको हंसाने, खिलाने के लिए कितने गीत रचे गए हैं, यह किसी भी शास्त्रीय साहित्य में नहीं है, यह सिर्फ लोक की अमूल्य निधि है, वह लाला के आनंद के लिए एक नहीं अनेक कहानियों की रचना करता है। यह सत्य है कहानी, कहने से बनी है और यह लोक की शैली है, जो कालांतर में शहर चली गई अपने कहन से उसने लोक को दरकिनार कर दिया। इसीलिए वे कहानियां जिनमें लोकतत्व नहीं है, कालजयी नहीं हो सकीं। अपने लाल को मनाने के लिए उसके पास अनेक बिम्ब विधान हैं, नदिया के ईरे-तीरे चरै बोकरी/ नदिया क पानी पिअउ बोकरी/ नदिया सुखाइ गइ/ मरै बोकरी/ लोक में नदियां सुखाने की बातें नहीं थीं, लेकिन लाला को खुश करने के लिए बिना पानी के मारना था। वे नाराज हैं, बासी भात है, गरीबी लोक की सम्पत्ति है, फिर भी वह खुश है, नाराज लाला को खुश करने में लगा है- गलगल नेबुआ/ जुन्ना क भात/ चकमड़ दोनमा/ घिउ हबइ तात/ खाइ मोर लाल/ जुड़ाइ मोर जिउ/  चकमड़ के दोनमा की कल्पना इसलिए कठिन नहीं कि लोक में इमली के पत्तों की पतरी भी बनती है। मनाने की बचपन की क्रिया विवाह संस्कार से कलेवा तक निरंतर चलती रहती है। रूठने और मनाने की परंपरा मे कहीं-कभी गांठ नहीं थी। अरबा म रोटी/बरोठवा म चिउ/ खाइ मोर लाला/ जुड़ाइ मोर जिउ/ । ‘जुड़ाइ’ का समानार्थी यदि तृप्ति रखा जाए तो, वह अर्थ नहीं दे पाएगा। ‘जुड़ाइ’ में आंख-मन-पेट एक साथ सब शामिल हैं। किसी ने कहीं लाल को चिढ़ा दिया, तुं-तकारी मार दिया तो उसकी खबर ऐसी लेंगे कि फिर किसी को वह चिढ़ा न सकेगा। जे हमरे लाला क मारी तुकारी/ओके जीभी म कूंचब अंगारी/ जे हमारे लाला से बोली मिठबोल/ ओके दुआरे बंधाइ देब घोड़।
  लोक में गाए जाने वाले ये गीत लोक ऋचाएं हैं। वैदिक ऋषियों ने प्रकृति के विराटत्व को देखकर कस्मै देवाय हविषा विधेम  के कारण अनेक स्वरूपों में प्रकृति का महिमा गान किया। लोक ने सिर्फ  शिशु को लेकर हजारों-लाखों गीत गाए। यह लोक की संवेदना थी कि उसने हर कार्य के आरंभ में वेद की ऋचाओं का स्मरण रखा, प्रत्युत विकल्प में उसके पास अनेक शिशु ऋचाएं थीं, जिन्हें उसने शिशु गीत कहा, वरना ये किसी वेद   से कमतर नहीं हैं। लोक के संस्कार गीतों को संदर्भर्हीन बेसुरे तर्जों पर सिनेमा और रेडियो के तथाकथित लोकगायकों ने जो बेस्वाद दुर्गन्धमय खिचड़ी पकाई है, उससे संस्कारगीतों पर खतरा बढ़ा है, और जो अपसंस्कृति परोसी जा रही है, उससे सम्पूर्ण लोक-साहित्य को दरिद्र ओर संस्कारहीन बनाया जा रहा है, उससे सावधान रहने की जरूरत है।
   आश्यर्च इस बात का अवश्य है, लेकिन गनीमत है कि वे उनकी जद मेंं नहीं हैं, जिन्हें हम शहरी कहते हैं, हां यह बात अवश्य है कि शिशु-गीत गाने वाले लोग गिनती भर शेष हैं, जिन्हें सहेजना होगा। संकलित करना होगा। छोटे-छोटे बच्चों के गीत अब विकास की गति में लुप्त हो रहे हैं। इन गीतों के भंडार दादा-दादी, नाना-नानी के पास धरोहर थे, जिनसे बच्चों का नाता, पापा-मम्मी की संस्कृति में टूट सा गया है। ये दुलार-गीत हैं, ये प्यार के समानार्थी नहीं हैं, इनमें लास्य रस है, जिव्हा के तार से लार से टपका हुआ रस, जिस दुलार पर शिव-पार्वर्ती, गणेश-कातिर्केय को गोद में लिए निछावर हैं।
                   ***.चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र    - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                         

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