Wednesday, December 21, 2011

अदम गोंडवी की मौत और कुछ सवाल, लिखने- पढने वालों की जमात से

डा. अलका सिंह्
‘अदम गोंडवी’ बडा अज़ीब लगा था यह नाम जब मैने पहली बार उनको दूरदर्शन पर एक कवि सम्मेलन में गज़ल पढते सुना था. अपनी माँ से जब पूछा कि ये क्या नाम हुआ अम्मा तब जैसे वो बिफर उठीं थीं एक तमाचा जडते हुए बोलीं ये ‘रामनाथ सिंह’ हैं. इनका तखल्लुस है ‘अदम’ और गोण्डा के रहने वाले हैं इसलिये ‘गोंडवी’ लिखते हैं. और तपाक से बोली यह एक जिन्दा शायर हैं सुनो ध्यान से उनको. यह उनसे मेरा पहला परिचय था. आज उनकी मृत्यु की खबर सुनकर, वो दृश्य, माँ और वो तमाचा जैसे मेरी मेरी आंखों के सामने एक बारगी घूम गये तब शायद मैं 10 वीं की छात्र थी. कवि सम्मेलन मेरी जान हुआ करती थी और अदम गोंडवी जैसे शायरों और कवियों को सुनने का जैसे मुझे जुनून था और यह जुनून बढाने में अदम, बसीम बरेलवी, बशीर बद्र, निदां फाज़ली, कृष्ण बिहारी नूर जैसे शायरों का बड़ा हाथ था किंतु इस पूरी जमात में अदम को पढना कई बार मुट्ठी भींचने को जैसे मजबूर कर देता है. पर आज जैसे खुद पर मुट्ठी तानने को मन हो रहा है. पुष्पेन्द्र फल्गुन की पोस्ट देखकर इस बार के लख्ननऊ प्रवास में उन्हें अस्पताल जाकर देखने की इच्छा थी. पर.......................
आज उनकी गज़लें कई बार पढ रही हूँ. पलट - पलट कर देख रही हूँ उनकी किताब इस दुख से कि आखिर क्यों अदम जैसे शायर अक्सर पैसे के अभाव में अस्पतालों में क्यों दम तोड देते हैं? क्यों एक ऐसा शायर जिसके शब्दों में लोगों को हिला देने की ताकत होती है उसी मुफलिसी का शिकार हो जाता है जिसको मिटा देने की तमन्ना लेकर वो उम्र भर लिखता है. क्यों ऐसा होता है कि हम उसी सरकार से गुहार करने लगते हैं जिसको आइना दिखाते–दिखाते अंतिम सांस लेने की कामना करता है वो शायर. और सरकारें लीवर और आंत की गम्भीर बीमारियों के लिये महज़ 50 हज़ार की सहायता देकर अपना पिण्ड छुड़ा लेती? और क्या बात है कि उसके जाने के बाद हम हाथ मलने के लिये मजबूर क्यों होते हैं? इन सभी सवालों के साथ मेरे पास कुछ सवाल आज के काथाकार, कवि और साहित्य कर्म से जुडे साथियों से और भी है किंतु सबसे पहले बात अदम की और उनकी बीमारी की --
अदम एक कृषक थे. उनका मुख्य पेशा भी कृषि ही था. यह बात सभी को मालूम है किंतु वह पूरवी उत्तर प्रदेश के एक ऐसे जिले के किसान थे जो जिला तमाम प्राकृतिक आपदाओं को पूरे साल झेलता है. बाढ, अंशिक क्रृषि सुखाड जैसी आपदायें वहां के लिये एक आम बात है. इस जिले के साथ इस पूरे क्षेत्र में बरसात के दिनो में महीनो पानी भरा रहता है तो ऐसे में पूरा इलाका कम उपज़, भूख, गरीबी, बेरोज़गारी तथा तमाम अन्य तरह के संकटों को झेलता है. इसलिये इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि वह एक ऐसे किसान थे जिनका गुजारा कृषि से कबीर की उन लाइनों की तरह ही चलता रहा होगा कि ‘मैं भी भूखा ना रहूँ साधु ना भूखा जाये’. अदम का व्यक्तित्व इस बात की गवाही भी देता था कि वह भारत के एक आम किसान हैं बात अगर उनके इलाके के स्वास्थ की स्थितियों पर की जाये तो वह इलाका स्वस्थ्य के लिहाज़ से भी उसी तरह रेखांकित किया जाता है जैसे कि कृषि के लिये. आप देखें कि जापानी इंसेफेलाइटिस, मलेरिया और पानी के संक्रमण से होने वाले कई रोगों से वहां के नागरिक रोज दो चार होते हैं. हर दिन सिर्फ मलेरिया से वहां कई मौतें होती हैं. पानी के संक्रमण से होने वाली तमाम बीमारियां वहां के लोगों को रोज अपना चारा बनाती हैं. बच्चों में जापानी इंसेफेलाइटिस से हो रही मौत की खबरें अभी खबरों की सुर्खियां है और अदम गोंड्वी ने जब लिखा कि-
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।।
तो यह वो अपने इलाके की ही बात कर रहे थे और दुनिया को ही नहीं अपने साथी कवियों को भी बता रहे थे कि उनके इलाके के आधे घरों की यही हालत है. वहां भूख है, गरीबी है, बीमारी है और बेरोजगारी है. वो सिर्फ हालात बयान नहीं कर रहे थे वो ये भी कह रहे थे कि
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
तो वह चमारों के घर के बहाने साथ के लोगों से यह भी कह रहे थे कि वो इस ताप को मह्सूस करते रहे है और यह ताप उन्हें वो करने से रोकता है जो सब करते है और चाहते हैं कि सब इस ताप को मह्सूस करें फिर साथ के लोग यह कैसे नहीं समझ पाये कि ऐसा फकीर कवि देश की धरोहर है ? क्यों नहीं समझ पाये कि ऐसा कवि देश के साथ कविता की और हमारी जमात की सम्पत्ति है ? क्यों नहीं समझ पाये कि उनकी भी जिम्मेदारी बनती है उस कवि के प्रति? क्यों नहीं सोच पाये कि ऐसी धरोहरों को बचाने के लिये जब जरूरत होगी तो पहले उनको आगे आना होगा सरकार से गुहार उसके बाद लगायी जायेगी? क्यों नहीं समझ पाये वो? ये सवाल हमें खुद से पूछने ही होंगे.
आप ध्यान दे कि अभी हाल ही में अदम जी की किताब भी जो आयी वो प्रतापगढ के एक बहुत ही छोटॆ से प्रकाशन अनुज प्रकाशन से आयी. किताब का विवरण देखें :
पुस्तक का नाम: ‘’धरती की सतह पर’’
लेखक
अदम गोण्डवी
प्रकाशक:
अनुज प्रकाशन, इन्द्रप्रस्थ मार्केट, बाबागज, प्रतापगढ़ उ.प्र.
मूल्य:
Rs-125
तो ऐसे में यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि उनकी इस तरह की गम्भीर बीमारी के समय आर्थिक मदद की अवश्यकता होगी. तो ऐसे में क्या होना चाहिये था ? क्या कोई जिम्मेदारी साथ के लोगों की नहीं बनती थी? क्यों ऐसा होता है कि हम सामर्थ्य होते हुए भी सरकार का मुँह ताकते हैं ? क्यों ? सोच रही हूँ जैसे वो हमसे ही कह रहे है कि -
चाँद है ज़ेरे क़दम. सूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया
जी हाँ किरदार! एक कवि का किरदार! जो लोगों की बात करता था जो जनता की बात करता था और जो आज के देश की तस्वीर हमे दिखाता था और कहता था -
काजू भुनी प्लेशट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्केह समाजवादी हैं तस्कसर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्नख मनाएं तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहां की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूं मैं होशोहवास में
.................................... अदम गोंडवी
दरअसल जब एक शायर लिखता है और जब जनता के लिये लिखता है तो वह आवाज देता है, आगाह करता है और पुकारता है अपने आस पास को, देश को और उन पढे लिखे बुद्धिजीविओं को कि देश के हालात पर सोचो विचार करो क्योंकि देश के हालात खराब हैं जनता बेहाल है और जब हम उसकी कविता पर दाद देते हैं तो वो आशा करता है कि उसके साथी सबसे अधिक जिम्मेदारी के साथ सुनेंगे उनकी बात और अमल करेंगे. सब कहेंगे कि उन्होने सुना उनको समझा उनके लिये भी तैयार थे. पर सवाल ये है कि क्या सही समय पर.? जब बात यहां तक पहुंच गयी थी कि –
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूं मैं होशोहवास में
तो मतलब साफ था कि बगावत के बाद के हालात के बाद पर सोचना ही होगा क्योंकि बगावत आसान काम नहीं होता. क्यों नहीं सोच पाये हम? क्यों चूक गये हम? ऐसा नहीं है कि उसने कवियों को पुकारा नहीं था उनको आवाज़ नहीं दी थी. आप देखें वो कई तरह से और कई बार आदीबों को आवाज़ दे चुके थे. और कह रहे थे -
अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के सिवा क्यों है फ़लक़ के चाँद-तारों में
एक तरह से चेताते हुए कहते हैं कि -
याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास का.
एक और बानगी देखें –
भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाक़िफ़ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो
गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिशनगी को वोदका के आचमन तक ले चलो
ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.
और फिर बहुत बेबाकी से कह गये कि ---
जल रहा है देश यह बहला रही है कौम को ,
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये !
अदम इंकलाबी नस्ल के शायर थे. वो देश के हालात को बताने का हुनर रखते थे. इमान्दारी से आगाह करने का साह्स रखते थे उनको खोकर सहित्यकारों की जमात दुखी है किंतु इस जमात को खुद के अन्दर झांक कर देखना होगा. खुद से कई सवाल करने होंगे और भविष्य में ऐसा न हो इसके लिये तैयारी करनी होगी क्योंकि यह पहली बार नहीं है कि हमने कोई कवि इस तरह खोया हो. एक लम्बी कतार है. रागदरबारी अभी याद है लोगों को.
अंत में ढेरों सवाल खुद से करते हुए अदम को सम्झने की चेष्टा के साथ कुछ गज़लें
मुक्तिकामी चेतना अभ्यलर्थना इतिहास की
मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की
आप कहते है जिसे इस देश का स्वधर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की
यक्ष प्रश्नोंह में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्याउ हमारी प्यास की?
इस व्यतवस्था़ ने नई पीढ़ी को आख़िर क्या दिया
सेक्सय की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ा स की
याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की.
विकट बाढ़ की करुण कहानी
विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्या.स लिखा है।
बूढ़े बरगद के वल्क ल पर सदियों का इतिहास लिखा है।।
क्रूर नियति ने इसकी किस्मलत से कैसा खिलवाड़ किया है।
मन के पृष्ठोंे पर शाकुंतल अधरों पर संत्रास लिखा है।।
छाया मदिर महकती रहती गोया तुलसी की चौपाई
लेकिन स्व प्निल स्मृतियों में सीता का वनवास लिखा है।।
नागफनी जो उगा रहे हैं गमलों में गुलाब के बदले
शाखों पर उस शापित पीढ़ी का खंडित विश्वाेस लिखा है।।
लू के गर्म झकोरों से जब पछुआ तन को झुलसा जाती
इसने मेरे तन्हाोई के मरूथल में मधुमास लिखा है।।
अर्धतृप्ति उद्दाम वासना ये मानव जीवन का सच है
धरती के इस खंडकाव्या पर विरहदग्धच उच्छ्‌वास लिखा है।।
वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्थाह विश्वा से लेकर क्या करें
लोकरंजन हो जहां शंबूक-वध की आड़ में
उस व्यनवस्थाब का घृणित इतिहास लेकर क्या‍ करें
कितना प्रगतिमान रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्या करें
बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूँठ में भी सेक्सँ का एहसास लेकर क्या करें
गर्म रोटी की महक पागल बना देती है मुझे
पारलौकिक प्यामर का मधुमास लेकर क्या करें

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