Monday, December 19, 2011

किसकी है खता, किसे दें हम सजा

 इस लेख में न तो कोई विचार हैं और न ही दर्शन, तथ्यों का विश्लेषण,आंकलन और सूचनाओं का संप्रेषण भी नहीं है इस लेख में। इसमें हैं कुछ सीधी सच्ची कथाएं जो हमारे गांव से शुरू होती हैं।  इनकी अनुगूंज आपके भी गांव-कस्बे या शहर में सुनाई पड़ सकती हैं। तो पहले इन्हें बांचिए...
                                           एक
कोई चालीस साल पहले की बात है। हमारे गांव के एक महानुभाव शहर की अदालत में बाबू हुआ करते थे। पढ़े-लिखे, सौम्य-सुशील, सुदर्शनीय और सज्जन। आस-पड़ोस के गांवों में बड़ी इज्जत थी उनकी। अदालत में दस-बीस रुपए बदस्तूर मिल जाया करता था। उनकी कुर्सी पर नजर गड़ाए एक दूसरे बाबू ने ऐसा तिकड़म रचा कि वे किसी मुवक्किल से बीस रुपए की रिश्वत लेते हुए ट्रेप हो गए। गांव में यह खबर जंगल में आग की  तरह फैली। नौकरी से मुअत्तिल होकर वे मुंह छिपाते हुए अंधेरी रात लौटे।  दूसरे दिन से लोग जब उनके घर के सामने से गुजरते तो ठिठक जाते और तजबीजते की बाबू जी क्या कर रहे हैं। उनका चेहरा अब कैसा होगा। स्कूल में उनके बच्चों को भी ऐसे ही घूरती नजर से देखा जाता। गांव में शादी-ब्याह, कथा वार्ता होता तो इस पर सलाह-मशविरा होता कि उन्हें न्योता जाए या नहीं। बहरहाल वक्त गुजरा, वे अदालत से बाइज्जत बरी हो गए। अदालत ने पाया कि उन्हें अदावत के चलते फंसाया गया था। सालों बाद अपमान और लांछन की अंधेरी कोठरी से जब वे बाहर निकले तो ..वो.. वो नहीं रह गए, जो पहले थे। अर्धविक्षिप्त से,पूरी दुनिया के प्रति कड़वाहट लिए हुए। गांव के लोग उनके रिश्वत लेते हुए पकड़े जाने के वाकया को भुला चुके थे।  उन्हें पुन: ससम्मान बुलाए जाने लगा, पर वे जाते कहीं नहीं थे। बाइज्जत बरी हो जाने के बाद भी रिश्वत लेने के आरोप का अपमान और लांछन सीने में जज्ब किए हुए वे तरक्की के साथ रिटायर्ड हुए और एक दिन इस दुनिया से चल बसे। अदालत ने उन्हें बाइज्जत बरी किया पर वे खुद की नजरों से मरते दम तक बरी नहीं हो पाए।
                                               दो
हमारे गांव में एक मास्टर साहब हुआ करते थे। आदर्श अध्यापक के जितने गुणों का बखान किया जाता है वे तमाम उनमें थे। छोटी सी काश्तकारी और मामूली से वेतन में सात संतानों का पालन-पोषण करते व उन्हें भी पढ़ाते -लिखाते।  उनकी ईमानदारी, सद्चरित्रता और अनुशासन की मिशाल गांव ही नहीं आस-पड़ोस में दी जाती थी। वक्त का पहिया अपनी गति से घूमता रहा। वे स्कूल से ससम्मान रिटायर्ड हुए। उनके चार बेटों में से तीन नौकरी पर लग गए।  बड़े बेटे को कॉपरेटिव में छोटी सी नौकरी मिली। इस छोटी सी नौकरी में भी काम बड़ा था। पीडीएस के राशन को गरीबों तक पहुंचाने का काम।  ऐसी संगत मिली कि गरीबों का राशन कालेबाजार में बिकने लगा। छोटी सी नौकरी में भी बड़ी रकम आने लगी। पहले हजारों में फिर लाखों में। गांव में खबर उड़ी कि मास्टर साहब के बेटे को कॉपरेटिव में कुबेर का खजाना मिल गया। कालेबाजार में राशन बेचने से अर्जित बेटे की काली कमाई का धन मास्टर साहब जमीन खरीदने में लगाने लगे। स्थितियां कुछ ऐसे बन गर्इं की गांव में हर मुसीबत का मारा रुपए के लिए अपनी जमीन की पुल्ली, खसरा लेकर मास्टर साहब की शरण में जाने लगा।  पॉच एकड़ के काश्तकार रहे मास्टर साहब कब पचास एकड़ के व्योहर बन गए किसी को पता ही नहीं चला।  एक दिन गांव से खबर मिली व्योहर बाबा नहीं रहे। मैंने पूछा कौन व्योहर बाबा तो बताया गया वही अपने ईमानदार, मूल्यों पर जीने वाले मास्टर साहब।
                                          तीन 
यह कहानी गांव के एक ऐसे स्वाभिमानी युवक की है जिसे एक दिन पुलिस पड़ोस में हुई एक चोरी के संदेह में पकड़ ले जाती है। तस्तीफ के बाद असली चोर माल सहित पकडेÞ जाते हैं और इसे छोड़ दिया जाता है। युवक खुद की नजरों में इतना जलील होता है कि थाने से छूटकर गांव लौटने की बजाय दूर  किसी शहर चला जाता है। वहीं मेहनत मजदूरी करता है और गांव में रह रहे वृद्ध माता-पिता और नवव्याहता पत्नी के लिए मनीआर्डर भेजता था। सालों-साल बाद हिम्मत जुटाकर वह गांव लौटता है। लेकिन उसे लगता है कि लोग बीस साल बाद भी उसे चोर नजर से ही देखते हैं। वह फिर गांव के लोगों के बीच घुलमिल नहीं पाता। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते गए उनका डिप्रेशन और चिड़चिड़ापन बढ़ता जाता है। हर वक्त डर सताता है कि कहीं उसके बच्चे भी तो उसे चोर नहीं मानते। एक दिन घर में पत्नी से हुई जरा सी बात में यह कहते हुए सल्फॉस की गोली गटक कर जान दे दी कि वह चोर नहीं है।
                                            चार
इस  तरोताजा कथा का समूचा घटनाक्रम पिछले एक दशक में घटित होता है। गांव का एक आवारा लड़का शहर में आता है पढ़ने के लिए। बदमाशों की संगति से छोटीमोटी राहजनी करने लगता है। मोहल्ले के गुंडे के रूप में उसकी ख्याति फैलती है तो एक नेताजी उसे अपनी छत्रछाया में ले लेते हैं। वह छोटे-मोटे ठेके भी लेने लगता है। सीखने और बड़ा बनने की ललक के चलते वह कब बड़ा ठेकेदार बन जाता है यह पता तब चलता है जब लोगों की नजर उसके पैलेसनुमा घर और मंहगी गाड़ियों के बेडेÞ पर पड़ती है। लोग जब तक उसकी कमाई का पता लगा पाते कि वह तहसील स्तर का नेता बन चुका होता   है। अब राजनीति का राजपथ उसके लिए खुल चुका है। उसे मालूम है कि हाईकमान से टिकटें कैसे झटकी जाती हैं। रुपए के रुआब से कैसे चुनाव जीते जाते हैं। अब वो मंचों में बड़े नेताओं के साथ प्रदेश के भविष्य की चिंता करते हुए देखे जा सकते हैं। जो पुलिस कभी डंडा लेकर दौड़ाती थी वह अब कॉर्निश बजाती है। अब ये हमारे देश की धरोहर हैं। अपनी पार्टी की अमूल्य निधि और समाज के नीति नियंता।
                                      उपसंहार
उपरोक्त चारों कथाओं पर गंभीरता से चिंतन मनन करिए और बताइए कि इस समाज में भ्रष्टाचार की प्राण प्रतिष्ठा करने वाले कौन हैं?  पहले उनकी गर्दन तलाशिए ताकि उस हिसाब से कानून का फंदा बनाया जा सके। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि वह गर्दन हमारी है, आपकी है। आपको यह भी तय करना होगा कि भ्रष्टाचार आचरण का विषय है या कि कानून का? इस किस्सागोईनुमा लेख के तथ्यों का विश्लेषण और आंकलन इस बार मैं आप पर छोड़ता हूं।    
                          - लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं।

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