Monday, December 12, 2011

ये सियासत की तवायफ का दुपट्टा है

अमूमन अब तक दिल्ली शीतलहर के आगोश में समा जाया करती थी पर इन दिनों यहां सर्दी का दूर-दूर तक छुआता नहीं। दिल्लीवासियों को एफडीआई और लोकपाल से ज्यादा चिंता मौसम के बिगड़े मिजाज को लेकर है। सर्दी ने देश की राजधानी से क्यों मुंह बिचका लिया इसका सही जवाब तो प्रोफेसर आरके पचौरी(नोबलिस्ट व इंटरनेशनल पैनल आन क्लाइमेटिक चेंज के चेयरमैन) ही दे सकते हैं पर दिल्ली के अब तक गरम रहने का दिलचस्प जवाब यहां के आटो ड्राइवर से लेकर खोमचेवाले तक के पास है। प्रेस क्लब आॅफ इंडिया में एक पत्रकार मित्र बता रहे थे कि दरअसल साल •ार अपनी दिल्ली ने एक के बाद एक, घपलों  घोटालों के ऐसे हीट स्ट्रोक झेले हैं कि चिल्ड होने में थोड़ा वक्त तो लगेगा ही। अन्ना का अनशन और लोकपाल का मुद्दा रह-रह कर वातावरण को गरम कर देता है।
 राजधानी दिल्ली में दो ऐसे ठिकाने हैं जहां से आप देश की राजनीतिक स्रायुतंत्र की पल्सरेट नाप सकते हंै। उसमें से एक है रायसीना रोड पर अंग्रेजों के जमाने से स्थित प्रेस क्लब आॅफ इंडिया। बीबीसी लंदन से लेकर डम डम डिगा डिगा जैसे अखबारों के पत्रकार शाम को यहां किसी न किसी बहाने जुटते ही हैं। पत्रकारों के क्लब के मजमे में राज्यस•ाा में नेता अरूण जेटली से लेकर जेएनयू और डीयू के प्रोफेसर्स •ाी बतौर मानद सदस्य शामिल होते हैं। उस दिन बहस का विषय था कि आखिर मनमोहन सिंह ने एफडीआई(फॉरेन डायरेक्ट इनवेस्टमेंट यानी कि सीधा विदेशी निवेश) को रोलबैक क्यों किया? दिल्ली कालेज आॅफ आर्टस एन्ड कॉमर्स के रिटायर्ड प्रिंसीपल एवं जानेमाने अर्थशास्त्री प्रोफेसर एससी शुक्ल बता रहे थे कि एफडीआई को लेकर यूपीए •ााजपा के •ारोसे थी क्योंकि इसका मूल प्रस्ताव तो एनडीए सरकार का ही था। कांग्रेस को उम्मीद थी कि कुछ संशोधनों के साथ •ााजपा दबे पांव समर्थन कर ही देगी पर ऐसा हो नहीं सका।  दरअसल आज की •ााजपा अटलजी के जमाने की •ााजपा तो रही नहीं। लालकृष्ण आडवाणी हैं तो मुरली मनोहर जोशी •ाी हैं। सुषमा स्वराज हैं तो यशवंत सिंन्हा और अनंत कुमार •ाी हैं। अरूण जेटली बोलेंगे तो वैकैय्या नायडू व जसवंत सिंह कैसे चुप रह सकते हैं। •ााजपा इन दिनों सही मायने डेमोक्रेशी का उप•ोग कर रही है। अब यहां निर्णय थोपे नहीं जा सकते। जो कुछ •ाी होगा बहुमत और सहमति से होगा। सो इसलिए •ााजपा से मामला जमा नहीं। स्थिति कुछ ऐसे बनी कि खुदा न खास्ता •ााजपा पहल करती तो एनडीए टूट जाता। यही स्थिति यूपीए की थी। ममता बनर्जी ने अल्टीमेटम दे ही रखा था, केरल की कांग्रेस सरकार और संगठन •ाी एफडीआई की खिलाफत में खड़े हो गए। कुलमिलाकर प्रणब मुखर्जी की यह मासूम स्वीकारोक्ति पूरे प्रकरण का उपसंहार है कि यदि एफडीआई लाते तो सरकार गिर जाती।
पर सवाल उठता है कि इतने सालों तक देश में राज करने वाली कांग्रेस का राजनीतिक आंकलन इतना लचर है? बीच बहस में एक अंग्रेजी अखबार के वरिष्ठ पत्रकार बोल पडेÞ, दरअसल यह मनमोहन सिंह का ओबामा को दिया गया वैसा ही वायदा था जैसा कि वे एटमी करार को लेकर जार्ज बुश से करके आए थे। उन्होंने जोड़ा, जो लोग कहते हैं कि मनमोहन सिंह 10 जनपथ से संचालित होते हैं वे अब अपनी जानकारी दुरूस्त कर लें, आजकल उनके रिमोट की बैट्री व्हाइट हाउस में चार्ज होती है। एक और पत्रकार साथी ने हस्तक्षेप किया, हो सकता है कि ओबामा ने डॉ. सिंह को वर्ल्ड बैंक का चेयरमैन बनवाने का करार किया हो। जब से कांग्रेस के एक धड़े ने प्रधानमंत्री के लिए एके एंटनी या मीरा कुमार की चर्चा शुरू की है तो डॉ सिंह को कॅरियर की चिंता होना स्वा•ााविक है। 
प्रेस क्लब के पत्रकारों की गपशप में मौजूदा हालात का अर्धसत्य वैसे ही झलकता है जैसे सेन्ट्रल हाल के सियासी जमक्कड़ों की लफ्फाजी में •ाी राज की बातें सामने आ जाती हैं। पार्लियामेंट में सेन्ट्रल हाल राज्यस•ाा और लोकस•ाा के बीचोंबीच स्थित है। दोनों सदनों का संयुक्त सत्र यहीं आहूत किया जाता है। ओबामा और उससे पहले जार्ज बुश ने सेन्ट्रल हाल में ही संसद को संबोधित किया था। अपने राष्टÑपति महोदय का अ•िा•ााषण •ाी यहीं होता है। सामान्य दिनों में सेन्ट्रल हाल राजनेताओं के क्लब के रूप में बदल जाता है। आमतौर पर यहां •ाूतपूर्व मंत्रियों व सांसदों की महफिलें जमती हैं। पीआईबी के अधिमान्य पत्रकारों को यहां वैसे ही छूट मिल जाती है जैसे कि अपनी विधानस•ाा में पत्रकारों को। सामान्य दिनों में सांसद अपने अतिथियों को •ाी यहां के जायके का आनंद दिला सकते हैं। सेन्ट्रल हाल से लगी पार्लियमेंट की ऐसी शानदार कैंटीन है जहां मदिरा के अलावा सबकुछ  खाने-पीने को मिलता है, वह •ाी दुनिया में सबसे सस्ते दरों में। यानी कि श्रीमानों को यहां डेढ रूपए में दाल तड़का और आठ रूपए में हैदराबादी बिरियानी हाजिर है। दस रुपए में फाइव स्टार दर्जे का लंच लिया जा सकता है। अपोजीशन से ताल्लुक रखने वाले मेरे एक सांसद मित्र ने चुटकी ली, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोन्टेक सिंह अहलूवालिया शायद यहीं लंच-डिनर लेते हैं त•ाी तो वे खुलेआम घोषणा करते हैं कि छब्बीस रुपए रोजाना खर्च करने की हैसियत रखने वाले को गरीब की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इन दिनों सेन्ट्रल हाल का जर्रा-जर्रा अन्ना हजारे के नाम से •ान•ानाता है। अन्ना उन सांसदों की आंखों   में •ाी •ाटकटैया की तरह गड़ते हैं जिनकी पार्टी ऊपरी तौर पर उनके आंदोलन का समर्थन करती हैं। उस दिन बहस चल रही थी कि आखिर लोकतांत्रिक संस्थाओं को एक बाहर का आदमी कैसे चुनौती दे सकता है। क्या अन्ना और उनकी मंडली चाहती है कि संविधान और कानून कायदे जंतर-मंतर के चौराहे पर लिखे जाएं? एक दूसरे •ाूतपूर्व सांसद ने बात आगे बढ़ाई, अन्ना के ईमानदार होने का यह मतलब नहीं कि उन्हें व उनकी मंडली को छोड़ पूरी दुनिया बेईमान है। संसद पर हमला बोलने के अपराधी अफजल गुरू की पैरवी करने वाले प्रशांत •ाूषण को लगता है कि वे और उनके पिताजी के अलावा देश मे कोई •ाी विधि-विधान नहीं जानता। क्या केजरीवाल एनजीओ को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने की बात इसलिए करते हैं ताकि विदेशी चंदे को मनमाफिक ठिकाने लगाया जा सके। हवाई टिकट घपले की आरोपी किरण बेदी कहीं इसलिए तो बदला नहीं निकाल रहीं कि उन्हें दिल्ली का कमिश्नर नहीं बनाया गया था? सेन्ट्रल हाल में ऐसे ढेर सारे सवालों के बीच एक नेता जी बोल पड़ते हैं कि हमारे नेताजी ठीक ही कहते हैं कि •ा्रष्टाचार राजनीतिक प्रक्रिया से ही दूर किया जा सकता है। शायद वे शरद यादव से ताल्लुक रखते थे। 
सेंट्रल हाल और प्रेस क्लब आॅफ इंडिया से कुछ फासले पर स्थित इंडिया गेट उस दिन रात ग्यारह बजे •ाी बच्चों की चहक से गूंज रहा था। फुग्गों से खेलते बच्चों के लिए क्या लोकपाल और क्या एफडीआई। क्या अन्ना हजारे क्या राहुल गांधी।  रोशनी से नहाए एक पेड़ के नीचे बैठे उन चार बेरोजगार युवकों में से कोई डॉ. शिवओम अंबर का प्रसिद्ध शेर जोर-जोर से सुना रहा था, ये सियासत की तवायफ का दुपट्टा है, ये किसी के आंसुओं से तर नहीं होता।

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