Thursday, December 1, 2011

मिट्टी का भी घर होता है


रिश्तों का निरंतर संवेदन शून्य होते जाना आज के इस तथाकथित उत्तरआधुनिक युग की सबसे बड़ी त्रासदी है। हम किसी न किसी सम्प्रदाय में होने का झूठा गर्व पाले आत्ममुग्धता की सीमाएं पार कर जाते हैं, बिना इस बात का ध्यान दिये कि दूसरे सम्प्रदाय के लोग भी अपने ऊपर उसी तरह गर्व करते होंगे, परिणामत: श्रेष्ठता का दम्भ संघर्षों के अनेक रास्ते खोल देता है, और हम मनुष्यता की सारी हदें पार कर देते हैं। जिस मनुष्यता पर हमें गर्व होना चाहिए वह हाशिये पर चली जाती है। विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में एक अपनी भारतीय सभ्यता भी है। संसार की प्राय: सभी सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ है। पानी मनुष्य की पहली आवश्यकता थी, पता नहीं पानी-दाना के पहले दाना-पानी कैसे जुड़ गया, शायद खाना खाने के बाद पानी पीने की अनिवार्यता के कारण ऐसा हुआ हो, परंतु आयुर्वेद की एक धारा खाने के पहले पानी पीने की बात कहती है। नदियों से रिश्तों की बातें भारतीय मनीषा की चिरंतन निधि है। तालाब और कुएं के पानी को भी सिर पर डालते हुए वह ‘गंगा च जमुना चैव’ की परिकल्पना करता है। पहाड़, नदी-नद, खेत-खलिहान तक के हमने नाम लेकर पुकारे। पशु पक्षियों को भी नामजद संज्ञा दी अपने परिवार में उन्हें शामिल किया। उनके लिए रात-रात भर जागे, उनसे न सिर्फ लाभ लिया, उनकी विदाई बेला में हम रुदाल बन ‘दिल हूम-हूम करे’ गाते हुए रोए भी। हम लड़की की विदाई और अपनों की मृत्यु में भी, उसके बचपन को स्मरण और संग-साथ के कार्यों-भूमिकाआें की याद करते हुए गीतमय रुदन करते हैं। करुणा का यही प्रवाह हमारी मानवीय धरोहर है। यह हमारी संवेदना का फलक है।
संवेदनहीन इस विश्व अर्थव्यवस्था की अंधी दौड़ में हमने जीवन मूल्य खो दिये। थोड़े में गुजारा करने और सुखी रहने की अपनी दीर्घकालीन परम्परा भूलकर दलाल-स्ट्रीट के सामने खड़े होकर सेंसेक्स के गिरने और चढ़ने को अपनी जीवन शैली मानकर अपनी मूल सम्पत्ति से भी हाथ धो बैठे। ‘जामे कुटुम्ब समाय’ और ‘साधु न भूखा जाए’ दोनों पद्धतियों से अलग हो गए। संसार के किसी अन्य देश की जीवन शैली ऐसी नहीं थी। हमने अपनी माटी से इतना प्रेम किया कि उससे दूर जाने की कल्पना तक नहीं की। समुद्र के पार जाने और किसी अन्य देश में रहने को हमने विजातीय और विधर्मी होने की आशंका तक देखा। शहर में रहते हुए हमें गांव याद आता रहा। प्रदेश के बाहर जाते ही अपना प्रदेश अधिक प्रिय और देश के बाहर जाते ही, अपना देश, अपनी बोली, अपनी संस्कृति बहुत प्रिय लगती है। बाहर जाकर ही अपनत्व का बोध होता है। जैसे-जैसे हम अपनी जन्मभूमि से दूर होते जाते हैं, वह बहुत याद आती है हमें बुलाती है। पाकिस्तान बनने के बाद हमारे कितने ही शायर पाकिस्तान चले गए ,लेकिन जब वे वहां से अपनी मातृभूमि लौटे तो जमीन से लिपट-लिपट कर इस तरह रोए, गोया मूर्त रूप मां है। मारीशस के पूर्व राष्टÑपति सर शिव सागर राम गुलाम जब अपने पुरखों की जन्मभूमि पर भारत आए तो वे अपने गांव की मिट्टी अपने साथ ले गए।  देश-प्रेम और संवेदना का यह पाठ किसी कक्षा की पाठ्यपुस्तक में नहीं पढ़ाया जाता। जिन्दगी की किताबों के पाठ्यक्रम पढ़ाए नहीं जाते, ये अपने आसपास स्वत: बिखरे-पसरे देखने को मिलते हैं जिनको देख सुनकर जीवन में उतारना ही मनुष्य की असली शिक्षा है। मात्र अपना और अपने परिवार का पेट पालना पर्याप्त मनुष्य के लक्षण नहीं है। पशु भी शाम को अपने खूंटे पर और पक्षी अपने घोसलों पर लौट आते हैं। मनुष्य को भी अपने बिस्तर पर निढाल नींद आती है।
परिवार की परिभाषा में बाबा-दादी, काकी-काका,भाई-भौजाई, भतीजी-भतीजे, पोती-पोते आते हैं। अब परिवार की परिभाषा सिमटकर पति-पत्नी और बच्चों तक सीमित हो गई है। परिवार में बाबा-दादी के रिश्ते शहरों में बोझ बन गए हैं। शहरों के लड़के रिश्तों से अनजान हैं, वे दादा-दादी के इतर भी कोई रिश्ते हैं, नहीं जानते। गांवों में अभी भी रिश्ते जीवित हैं। ननिआउर, कुकुआउर, मौसियाउर के रिश्ते पढ़ाई के इस युग में अप्रासंगिक हो गए हैं। बच्चों के कॅरियर के सवाल को लेकर मां-बाप इतने जागरुक हैं कि विद्यालय में होने वाली लम्बी छुट्टियां, घूमने के लिए नहीं ट्यूशन के लिए, कोचिंग के लिए होती हैं। हम लोगों की छुट्टियां ननिहाल के उन्मुक्त माहौल में होती थीं, जहां मां भी नहीं डांट पाती थीं, नानी की तो आंखों के तारे होते थे हम। मामा तो इतना दुलारते थे कि हर गलती माफ। अपने यहां तो प्रचलित है कि मामा यदि भानजे को हाथ की हल्की थपकी से भी पीट देगा तो मामा का हाथ ताउम्र कांपेगा। मामा तो दो माताओं का समूह है। मौसेरे भाइयों की दोस्ती की मिसाल है, लोकोक्ति ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’समानधर्मी एकता के लिए इससे बड़ा कोई रिश्ता नहीं है। चार छ: गांवों के बीच लगने वाले मेलों के दिनों में रिश्तों से घर भरा रहता था। मेले, लोगों के मिलने के सबसे बड़े तीर्थ हुआ करते थे। साल भर तक उन आने वाले दिनों की प्रतीक्षा रहती। शादियां तय होती। तीर्थ यात्रा के दिन तय होते। सारी खरीद फरोक्त इन्हीं मेलों में होती। मेले खत्म हो गए। शहरों के बाजारों ने उन्हें लील लिया। अब शहरों के बाजारों को माल्स-कल्चर लीलने की तैयारी में है। गुणवत्ता और उत्कृष्टता के नाम पर छोटे दुकानदार और खुदरा   व्यापारी आत्महत्या की तरफ बढ़ते किसान से सामंजस्य बनाकर संतति को सुख देंगे? हमारी बनाई सरकार को हमारे जीवित बने रहने देने का कितना खयाल है।
   शायद गरीबी में भावात्मक रिश्ते अधिक मजबूत होते हैं। गांवों में उन दिनों कुछ ही लोगों के यहां रजाई-गद्दा होता था। अन्य कथरी या खोल (दो परत गाढ़े की चादर) ओढ़कर रात बिताते थे। बारह तेरह बरस की उमर तक के लड़के मां के पेट से छुपकर ही सोते थे। मां की देह की सुगंध उनके जीवन में इतनी बसती थी कि वे मां से अलग रहने की कल्पना तक नहीं करते थे। परिवार और मां बेटे के रिश्ते की यह आधारभूमि थी। लड़के पैदा होने के साथ ही खिलाने-पिलाने के अलावा अब मां से चिपटकर सोने की परम्परा समाप्त हो गई है। मां की देहगंध से अनजान बालक के मनोविज्ञान को समझने का वक्त किसके पास है। गांव के पास अभी भी रिश्ते हैं, उनके दु:ख-दर्द को समझने वाले पड़ोसी हैं, कुटुम्ब हैं। तमाम वैमनस्यों के बाद भी साथ ही जीने मरने की चाह भी है, विवशता भी, लेकिन शहरी लोगों के पास न परिवार है न बच्चे हैं, न पड़ोस है, वे सिर्फ एक इकाई हैं जिनके पास दहाई का कोई आंकड़ा नहीं है यदि है भी तो मात्र दिखावे के लिए है, इसलिए कि पत्थरों के इन मकानों में मानवीय संवेदनाएं भी पथरा गई हैं। यह दर्द सिर्फ मेरा नहीं, हम सभी का है, दुष्यंत कहते हैं- कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए ; वो घरौंदा सही, मिट्टी का भी घर होता है।
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