Thursday, November 3, 2011

लोक में शिव, राम और कृष्ण


लोक’ हमेशा से चर्चा में रहा है। वैदिक युग से लेकर आज तक। ऋषियों ने अधिकतर मंत्र लोक पर, लोक के लिए लिखी, लोकमंगल की कामना से। पुराणों में लोकमंगल को कल्पना का साकार अर्थ शिव ने दिया। सुर और असुरों ने समुद्र मंथन किया। मंथन से चौदह रत्न निकले। सही बंटवारे का प्रमाण न किसी पुराण में मिलता है न स्मृति में, न लोक में। श्रम की हिस्सेदारी देवताओं की तमाम चालाकियों के बावजूद बराबर होनी थी। सुर सम्राट देवराज ने मणि, रम्भा, गजराज(ऐरावत)कल्पद्रुम, कामधेनु, घोड़ा, धनुष, हथिया लिया, तो छोटे भाई विष्णु कौन कम थे, उन्होंने लक्ष्मी को अंगीकार कर लिया, शंख ले लिया। धनवन्तरि सुरों के वैद्यराज हो गए। वारूणी (शराब) असुरों को पिला दिया। और हालाहल, सभी भागने लगे उसे देखकर देवता चालाक थे। शिव भोलेनाथ थे, सीधे-सरल-विश्वासी। उनकी महिमा का गायन करने लगे कि ‘प्रभो! आप ही इस विष को पीकर संसार का  कल्याण कर सकते हैं अन्यथा यह विष सारे संसार में फैलकर सबको नष्ट कर देगा, रक्षा करें आशुतोष’। संसार के कल्याण के लिए यह पहला लोकमंगल कार्य था। सारे  शरीर में फैलकर विष, शिव को भी जला डालता, उन्होंने कंठ में ही रोक लिया। कंठ जलने लगा, सर्पों को गले लगाया, माथा जलने लगा, शशि जो मंथन से निकला था उसे माथे पर लगाकर विष को प्रभावहीन किया। अमृत के बंटवारे की कथा तो सारा लोक जानता है। श्रम के फल का यह विभाजन अपनी प्रासंगिकता के साथ कदाचित आज भी जीवन्त है।
   शिव अनार्यों, आर्यों दोनों में पूजित हुए और लोक में तो शिव से बड़ा कोई है ही नहीं, शायद इसलिए कि शिव के स्वार्थ की कोई कहानी भारतीय वांग्मय में नहीं है। वे परमार्थ के देवता थे। सबसे भोले-भाले, दैत्यों, असुरों की किसी भी प्रार्थना पर हरदम वरदान देने के लिए प्रस्तुत और वरदान देकर भागते हुए औघड़दानी शिवपुराणों में दिखते हैं। शिव का अर्थ ही कल्याण है। उनके विशेषण ही उनकी संज्ञा है, संभवत: इसीलिए भारतीय साहित्य में उनकी अव्याहतगति है। शिव जैसा पे्रमी विश्व के किसी साहित्य में नहीं है। सती की लाश कंधे पर लिए, उसे जीवित मानते हुए उससे बात करते हैं। गल-गल के अंग-प्रत्यंग गिर रहे हैं, वह बावला प्रेमी यह मान ही नहीं रहा है कि सती अब नहीं है। देवताओं के कुचक्रों का शिकार, शिव उनको ढूंढ़ता है, परन्तु वे सब छिपे हैं। उनमें शिव के सम्मुख आने का साहस नहीं है। शिव जैसा योगी भी कोई नहीं, अखण्ड और अचल समाधि को भंग करने के लिए देवताओं ने कन्दर्प की बलि दे दी। लोक मंगल के लिए हमेशा हर क्षण, उपस्थित। इसीलिए वे लोक के सर्वाधिकप्रिय महादेव, देवाधिदेव - ‘जरत सकल, सुरवृन्द, विषम् गरल जेहिं पान किए’। शिव पर कोई लोक निन्दा नहीं, कोई लोकापवाद नहीं है।
  लौकिक संस्कृत के आदिकाव्य ‘रामायण’ की रामकथा के अनेक स्वरूप हैं। सीता निष्कासन लोक में स्वीकार्य नहीं है। इस प्रसंग में लोक, सीता के पक्ष में खड़ा है। क्या राम लोकमंगल के लिए वन गए? वन में अस्थि समूह देख कर उन्होंने निश्चरहीन पृथ्वी करने की बात कही। किशोर राम, विश्वामित्र की रक्षा के लिए गए, निर्भय यज्ञ करने को कहा। ताड़का-सुबाहु को मारा। तब निश्चर उनकी दृष्टि में नहीं थे। राजतिलक की तैयारी, वनगमन, चित्रकूट तक उनके चिन्तन में लोक की कोई पीड़ा नहीं थी। सीताहरण के बाद वे लोक के सामने पूरी तरह आते हैं। केवट प्रसंग भी लोक से जुड़ा था। पेड़, पृथ्वी, लता पत्तों तक से सीता का पता पूछते हैं। हरिण-मृग भी  दक्षिण दिशा की ओर घूमकर सीता को ले जाने का संकेत देते हैं। वहीं उनका परिचय वानर, वृक्ष, पक्षी, साधु, सन्तों से होता है। सबको साथ लेकर निश्चरों का नाश करते हैं। वानर स्वार्थ से जुड़े, राक्षस विभीषण स्वार्थ से जुड़ा। राम का स्वार्थ तो था ही। नि:स्वार्थ भाव से राम का साथ देने वाले वृक्ष, पक्षी (जटायु-सम्पाती) और सेतु, निर्माण में लगी गिलहरी थी। नैयायिक कहते हैं कि यदि राम का राज्याभिषेक हो गया होता तो क्या रावण-वध होता। खैर, ये लेकिन-परन्तु की बातें हैं। राम का न तो बचपन लोक से जुड़ा था, न कैशोर्य। वे खेलते भी हैं तो चारों भाइयों के बीच ही। राक्षसों-निशाचरों को मारना उनके रास्ते में आड़े आने का काम था। सीता को लौटाने का सन्देश भेजना युद्ध का टालना था। यदि रावण सीता को वापस कर देता, तब उस प्रतिज्ञा का क्या होता जो भुज उठाकर उन्होंने की थी। सबके सामने सीता की अग्नि परीक्षा के बाद भी कुछ लोगों के कहने के कारण लोकापवाद से डरकर राम ने गर्भवती सीता को जिस तरह धोखे से निकाला उसे लोक ने कभी सही नहीं माना। लोक से राम हार गए। लोक में राम हार गए। अपराजित राम अपनी ही प्रजा(लोक) से पराजित हो जाते हैं।
   लोक की सीता बाल्मीक से कहती है- ‘तोहार कहा गुरु करबै!  परग दस चलबै हो। गुरुजी। राम निरमोंहियां क मुंहबा। बिताया नहि देखबै हो।  तुलसी के राम तो प्रकट हुए थे, लोक कहता है ‘खीर’ खाय पैदा सुत करती पति कर कछू न कामा। जहां शिव का स्वरूप लोक कल्याणकारी कहलाया वहीं राम मर्यादा पुरुषोत्तम, लोक मंगलकारी के रूप में स्थापित हुए।
 लोकरंजन की भूमिका में देवकी की कोख से कृष्ण पैदा हुए, गोकुल में पले। उनकी बाल-लीलाओं ने लोक मन मोहा। पहली बार लोक-साहित्य में वात्सल्य भाव को   रस की संज्ञा मिली। कृष्ण ने प्रभु का आभिजात्य और विशिष्टता छोड़, जीवन को, खेल की तरह लिया। सामान्यों की तरह जिए, उनका साथी भी खेल में दांव न देने पर हड़का कर कहने की हिम्मत रखता है कि या अधिकार जनावत याते अधिक तुम्हारे है कुछ गैया।  माखन-चोरी करता है, मुंह में माखन लगा है, दलील देता है कि उन सभी ग्वाल-बालों ने जबरन मेरे मुंह में लगा दिया है। रो-रो कर मां को अपने पक्ष में कर लेने की अद्भुत लीला लोक में प्रिय है। कृष्ण, लोक में सबसे करीब हैं। लोक के वे लीला पुरुषोत्तम है। सम्पूर्ण महाभारत उनके दायरे में हुआ, बिना अस्त्र चलाए, द्वारकाधीश कहलाए, एक दिन भी राजगद्दी पर नहीं बैैठे। कृष्ण का प्रत्येक कार्य मनुष्य की जीवन-चर्या से जुड़ा। ‘रामायण’ भारतीय दर्शन का स्वप्न और आदर्श लोक है तो महाभारत जीवन का यथार्थ, जो अतीत में था, वह आज भर नहीं, शाश्वत सत्य है। पुराणों में राम और कृष्ण को ईश्वर का अवतार माना गया है। दोनों के जीवन का उत्तरार्द्ध- अवसान त्रासद है। लोक से सबसे करीब राम और कृष्ण की कथा है। लोक में कृष्ण कथा (भागवत) का श्रवण मुक्ति देता है। जीवन के अन्तिम क्षणों में राम और कृष्ण नितांत अकेले थे। शायद जीवन का सत्य भी यही है। हंस अकेला जाई।
   लोक, राम और कृष्ण को विष्णु भगवान का अवतार मानता है। धरती पर उनके द्वारा किए गए कार्यों को श्रद्धा और भक्ति से सिरमाथे स्वीकारता है। समूचे भारतीय साहित्य में दोनों की स्थिति अपौरुषेय है। दोनों लोक में भगवान हैं, लेकिन जिनकी लीलाओं पर वे बेवाक टिप्पणी करते हैं। अकेले शिव ऐसे देवता हैं जो अनादि हैं, अनन्त हैं, जिनके जन्म-देहोत्सर्ग का कोई रिकार्ड न लोक में है, न शास्त्र में। वे देवादिदेव हैं, वे आशुतोष भी हैं, महाकाल भी। प्रलयकार भी हैं, भोलेनाथ भी। न उनका बचपन है न वृद्धावस्था। न आदि है न अन्त। लोक में कामरि है, बोल बम है, तीसरे वर्ष मलिमास है। वर्षा ऋतु के ये सावन-भादौं महीने इन तीनों देवों को प्रिय हैं। सावन तो शिव का महीना ही है। विष की जलन अभीशेष है। वर्षा में उनके भीगने से ताप कुछ कम होता है। वे अपनी इच्छा से कैलाश नहीं गए थे। बर्फ से ढके उस स्थान में शरीर की चित्त की जलन कुछ तो कम हुई होगी। सुरों के षड़यंत्र को वे भूल गए भुला दिया। राम को भी चतुर्मास बिताने का सुख कामदगिरि में बारह बार तो मिला ही। पंचवटी और ऋष्यमूक में मैं भी चौमासा बिताया।
   कृष्ण ने सावन में इन्द्र से मोर्चा लेकर इन्द्र पूजा रोककर गोवर्धन पूजा। कराई थी। इन्द्र का कोप कृष्ण के रहते निरर्थक हो गया। गोकुल में कृष्ण की तमाम लीलाओं के बीच लोक में झूला भी है- ‘झूला पड़ा कदम की डरिया झूलै कृष्ण मुरारी ना’ भादौं शुक्ल पक्ष तीज पार्वती के व्रत का चरम दिन था, जब वे अपर्णा कहलाई- अपर्ण-आशना। आज भी शिव जैसा पति पाने की कामना में लड़कियां और महिलाएं चौबीस घंटे का कठिन व्रत बिना पानी पिए, रात भर जागकर पूरा करती हैं। भादौं की वह भयानक बरसती कृष्ण पक्ष की अष्टमी की आधीरात, लोक में अवस्थित है। देश का यह शाश्वत शास्त्र भी है, लोक भी। शास्त्र के त्रिदेव भले ही ब्रह्मा, विष्णु महेश हों, लेकिन लोक ने शास्त्र से सिर्फ महेश को लिया।
                                   

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