Monday, November 14, 2011

दोस्त अपने मुल्क की किस्मत पे रंजीदा न हो

दुष्यंत कुमार की हर पंकितयां अवाम के हक में नारे की तरह गंूजती रही हैं। सन् पचहत्तर के आस-पास लिखी एक गजल की कुछ पंक्तियों पर गौर करें और उसके बरक्स आज के हालात पर नजर डालें,
 भूख है तो सब्र कर  रोटी नहीं  तो  क्या हुआ 
आजकल दिल्ली में है जेर-ए-बहस ये मुद्दआ।
मौत  ने  धर  दबोचा  एक  चीते की  तरह 
जिंदगी ने जब छुआ फासला रखकर छुआ।
गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नहीं 
आह भरकर गालियां दो पेट भरकर बद्दुआ।
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुआं।
दोस्त अपने मुल्क की किस्मत पे रंजीदा न हो
उनके हाथों में है पिंजरा उनके पिंजरे में सुआ।
पिछले 37 सालों में देश बदला है पर आम आदमी की जिंदगी और मुश्किल हुई है। उसके झोपडंं़ों तक पीने का साफ  पानी नहीं पहुंचा पर टीवी पहुंचा दी गई, ताकि मूर्खों के स्वप्रलोक में वह भी मगन रहे। हाथों में मोबाइल थमा दिया, काम और रोटी का इंतजाम भले न किया हो। मोबाइल और टीवी अमीरी के मानक हैं। शायद इसीलिए अर्थशास्त्री मन्टेक सिंह अहलूवालिया ने अमीरी की नई परिभाषा गढ़ दी और हम कुछ नहीं बोले। जो व्यक्ति बत्तीस रुपए रोजाना खर्च करने की हैसियत रखता है वह गरीबी रेखा से ऊपर है। मन्टेक को नहीं मालूम कि सब्जीमंडी में सोलह रुपए की सौ ग्राम लहसुन मिलती है। कल यह भाव तोले में आने वाला है। 
पहले तोले की माप के साथ सोना जुड़ा था, निकट भविष्य में खाद्यवस्तुएं जुड़ जाएंगी।  लोगों को याद होगा, सतहत्तर के जनता शासन के उत्तरार्ध के दिनों सोने के दाम अचानक बढ़ गए थे। इंदिरा गांधी ने इसे एक बड़ा भावनात्मक मुद्दा बनाया था। वे अपनी सभाओं में कहती थीं, कांग्रेस का राज लौटा तो बहनों के मंगलसूत्र की साध हम पूरी करेंगे। भारत में सुवर्ण हमेशा से भावनाओं में रचा बसा रहा है। गरीब से गरीब की अंतिम इच्छा यही रहती है जिंदगी में न सही मरते समय उसके मुंह में गंगाजल-तुलसी के साथ सोना डाला जाए। आज वही सोना 29 हजार प्रतिग्राम का भाव पार कर गया। चाहें तो राजनीतिक दल इसे एक बड़ा भावनात्मक मुद्दा बना सकते हंै। वे एक अपील जारी कर सकते हैं। हमें चुनकर सत्ता में भेजिए, आपके मरते समय तुलसी-गंगाजल के साथ सोने का इंतजाम हम करेंगे। 
 आज जब हम मंहगाई के सवाल उठाते हैं तो हमारे कर्मठ, ईमानदार और अर्थशास्त्र में कुशल प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह बेझिझक कहते हैं कि मंहगाई का मसला बाजार पर छोडि़ए सरकार अब कुछ नहीं कर सकती। इसके उलट वे यह कहने में जरा भी देर नहीं करते कि शराब सम्राट विजय माल्या की हवाई सेवा किंगफिशर  को बेलआउट पैकेज देने के लिए वे वित्तमंत्री और विमानन मंत्री से विचार विमर्श करेंगे। किंगफिशर सात हजार करोड़ रुपयों के घाटे के चलते बंद होने के करीब है। वो माल्या जो बेंगलूरू में अपने रहने के लिए पांच हजार करोड़ रुपए का आशियाना बनवा रहे हैं, उनकी डूबती कंपनी को लेकर अपने प्रधानमंत्री को भारी चिंता है। मंहगाई में पिस रही देश की जनता के लिए कोई राहत की बात नहीं, किसी भी किस्म के बेलआउट पैकेज पर चर्चा नहीं। अमेरिका में डूबते कारपोरेट बैंकों और कंपनियों के बेलआउट पैकेज ने ही वहां की अर्थव्यवस्था का बाजा बजा दिया है। अमेरिकी युवाओं ने वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करने के नारे के साथ पिछले दो महीनों से आंदोलन छेड़ रखा है। 
 हम सबने लोकतंत्र की एक सर्वमान्य परिभाषा पढ़ी है। एक एेसा तंत्र जो जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा हो। हमारे प्रधानमंत्री और उनकी मंडली के लोग लोकतंत्र की नई परिभाषा गढऩे में लगे हैं। कारपोरेट का, कारपोरेट के लिए कारपोरेट के द्वारा। अमीरी नापने की नए मीटर बनाए जा रहे हैं। सनसेक्स, इन्डेक्स और ग्रोथ रेट के आंकड़े तय करते हैं कि देश की जनता कितनी खुशहाल है। आम आदमी के आंसू और मुस्कान अब बदहाली और खुशहाली के मापदंड नहीं रह गए। यह कोई कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की बात नहीं। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए का भी यही मापदंड है। क्या आप इंडिया शाइनिंग और फीलगुड के जुमले को भूल गए। ये नारे भी गरीब के होठों की मुस्कान से नहीं अपितु शेयर के चमकते सट्टाबाजार से निकले थे।  सो यह भूल जाइए कि ये चले गए और वो आ गए तो स्थितियों में कोई फर्क पड़ेगा। आज देश का सबकुछ  मल्टीनेशनल्स और कारपोरेट के ऑक्टोपसी शिकंजे में फॅसता जा रहा है। क्या आपने पहले कभी हवा में सौदेबाजी के बारे में सुना था? लेकिन अब हवाई सौदेबाजी से ही बाजार का रुख(जिस बाजार की बात मनमोहन सिंह करते हैं) तय होता है। इसे वायदा कारोबार कहा जाता है। हमने सुना था कि पहले गांवों मे बेटे-बेटियों के शादी के रिश्त गर्भ में ही तय हो जाया करते थे। अब जिंस के रेट फसल बोते ही तय हो जाया करते हैं। सोना- चॉदी, अन्न-गल्ला सब का एेसा ही कारोबार होता है। अन्न, फल, सब्जियों के बीजों पर डंकल का अनुशासन चलता है। सबकुछ कारपोरेट का, कारपोरेट के लिए, कारपोरेट के द्वारा। क्या कहिएगा किसी को। 
  पुराने जमाने में राजा जनता का सुख-दुख देखने भेष बदलकर उनके बीच जाता था और अपने राजकाज के संबंध में प्रतिक्रियाएं प्राप्त करने के बाद अपनी नीतियों को बनाता-बदलता था। आज के राजा जनता की बदहाली जाानने के लिए जिस रथ से निकलते हैं उसके पहिए में ही भ्रष्टाचार की टायर-ट्यूब और हवा भरी होती है। धन्नासेठों और बेइमान नौकरशाहों के चंदों से सजे पंडालों में सदाचार पर प्रवचन होते हैं और हम तालियां पीटते हुए जयकारों के नारे लगाते हैं। उन्हे चुनते हैं, सत्ता का सूत्र हाथों में सौंपते हैं। सिंहासन में बैठते ही उनके स्वर से वही बोल फूटने लगते हैं जिससे आजिज आकर हमने व्यवस्था बदली थी। यही सबकुछ करते-झेलते आ रहे हैं सदियों से। मंगोल,हूण, शक, तुर्क, पठान, मुगल, पुर्तगाली, डच,फ्रेंच और अंग्रेज आए राज किया। कुछ  रच-बस गए, कुछ चले गए। हम यही गाकर खुश हो लिए कि ..कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों से रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा। और शायद संैतीस साल पहले दुष्यंत कुमार इसी इतिहासबोध के चलते देश की नियति के बारे में लिख गए कि.. दोस्त अपने मुल्क की किस्मत पे रंजीदा(दुखी,नराज) न हो, उनके हाथों में है पिंजरा उनके पिंजरे में सुआ।    

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