Wednesday, April 6, 2011

राजसिंहासन डांवाडोल

अन्ना हजारे के अनशन से आज सत्तातंत्र उसी तरह थरथराने लगा है जैसा कि सन् पचहत्तर में राजनीतिक स्वच्छेचारिता व तानाशाही के खिलाफ जेपी की हुंकार से सिंहासन के पाए हिलने लगे थे। जेपी की संपूर्ण क्रांति में राजनीति के पंख लगे थे और सरसंधान का लक्ष्य था व्यक्तिवादी सत्ता केन्द्र। लेकिन जंतर-मंतर पर बैठे हजारे के सत्याग्रह स्थल में लगेहाथ हित साधने पहुंचे नेताओं को जिस तरह खदेड़ा गया, उससे यह साफ हो गया कि इस बार लोग ज्यादा सतर्क हैं और कथित संपूर्ण क्रांति की विफलता का सबक स्मृतियों की पृष्ठभूमि में तरोताजा है। भ्रष्टाचार की धुंध से घिरे देश में अन्ना हजारे एक एेसे रोशनदान बनकर उभरे हैं जिसकी रोशनी अंधी सुरंग से निकलने का रास्ता सुझाती है। लोकप्रिय तराने ‘हम जिएंगे और मरेंगे एे वतन तेरे लिए’ के बोल के साथ अन्ना ने जैसे ही आमरण अनशन का एेलान किया, देश के हृदय का स्पंदन बढ़ गया, भ्रष्टाचार से त्रस्त और निराश हुए लोगों की धमनियों और शिराओं का गर्म लहू जोश के साथ दौडऩे लगा। अन्ना के आह्वान पर भ्रष्टाचार के खिलाफ लामबंद होने वालों की संख्या लाखों से करोड़ों और करोड़ों से अरब की ओर बढ़ रही है। यही वजह है कि ‘लोकपाल बिल’ को लेकर सत्ता तंत्र किन्तु-परन्तु पर उतर आया है। ‘लोकपाल बिल’ को लेकर यह किन्तु-परन्तु 42 वर्षों से चल रहा है। कांग्रेस के बाद, जनता सरकार, जनमोर्चा सरकार, एनडीए सरकार, आई और गई, सभी पन्डे सत्ता के चबूतरे पर एक जैसे ही अभुआते रहे। एक ओर हम विश्व की आर्थिक ताकत बनने की बात करते रहे दूसरी ओर भ्रष्टाचार का सूचकांक बढ़ता रहा। जापान और जर्मनी के उत्थान की स्पर्धा में शामिल होने की बजाय, सोमालिया और कोस्टरिका जैसे भ्रष्ट देशों की जमात की ओर बढ़ते रहे। प्रभावशाली मंचों से जब भी भ्रष्टाचार की बात उठी, सत्ताधीशों और सत्ताकांक्षियों ने किन्तु-परन्तु के साथ अपने मतलब के मसौदे गढ़े व भरोसा दिलाने की कोशिश की। यह सिलसिला पांच दशकों से चल रहा है। अन्ना हजारे और उनके अनुगामियों ने अदृश्य व अपरिभाषित भ्रष्टाचार के खिलाफ लाठियां भांजने और बुद्धिविलास करने की बजाय, जन लोकपाल का ठोस सूत्र पकड़ा है। यही सूत्र भ्रष्टाचारियों पर नकेल कस सकता है। अफ्रो-अरब मुल्कों से शुरू हुई जस्मिन क्रांति की आंच हम महसूस कर सकते हैं। तवा गरम है। कारगर चोट की जरूरत है, वरना अभी नहीं समझो कभी नहीं। अन्ना वक्त की इस नजाकत को समाजविज्ञानी की तरह भांप चुके हैं।

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