Wednesday, March 2, 2011

लोकतंत्र की नुमाइश और जिंदा कौमें

फिलहाल- जयराम शुक्ल
बसपा के आदिपुरुष कांशीराम अपनी जनसभाओं में प्राय: कहा करते थे कि हमें मजबूत नहीं मजबूर सरकार चाहिए। उनका यह जुमला अस्सी से नब्बे दशक का है जब चुनावी राजनीति में बसपा शून्य थी और केंद्र में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार दो तिहाई से भी ज्यादा मतों से सत्तारूढ़ थी। लोकसभा में जीत के इस भीषण संख्याबल को सुरक्षित रखने के लिए दलबदल विरोधी विधेयक भी पास करवाया गया था। विडम्बना देखिए बोफोर्स में कथित दलाली के सवाल पर उसी भीषण बहुमत वाली कांग्रेस सरकार को चीरकर विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में जनमोर्चे का उदय हुआ और कांग्रेस के एकल बहुमत का सितारा सदा के लिए अस्त हो गया। कांशीराम के मजबूर सरकार का जुमला अब जाकर उसी कांग्रेस सरकार के लिए फलित हुआ है। मनमोहन सिंह भ्रष्टाचार के सवाल पर बड़ी मासूमियत के साथ कहते हैं कि क्या करें सरकार चलाने के लिए गठबंधन धर्म निभाना हमारी मजबूरी है। यह तो देश के मतदाताओं के लिए खुली धमकी की तरह है कि या तो एेसे भ्रष्टाचार को होने दें, नहीं तो हर छ: महीने में सराकर बदलने के लिए तैयार रहें। दूसरा दृष्टांत देखें। उत्तरप्रदेश में कांशीराम की शिष्या कुमारी मायावती की मजबूत सरकार बैठी है। पिछले चुनाव में यूपी की जनता ने लखनऊ को गठबंधन के घोड़ाबाजार से निकालकर अकेले एक पार्टी बसपा को स्पष्ट बहुमत देकर सत्ता की बागडोर सौंपी। वहां गठबंधन धर्म की कोई मजबूरी नहीं। पर यूपी में क्या चल रहा है। मंत्री-विधायकों से जुड़े एक से एक दुष्कर्म सामने आ रहे हैं। पुलिस के अधिकारी अपराध रोकने की बजाय मुख्यमंत्री की जूतियां साफ कर रहे हैं। मुख्यमंत्री जनता के धन को अपनी व अपने नेता की पाषण प्रतिमाओं और पार्कों के लिए खर्च करने में व्यस्त हैं। यूपी में निरंकुश व स्वेच्छाचारिता का बोलबाला है। दिल्ली में गठबंधन वाली मजबूर सरकार है भ्रष्टाचार इसलिए हो रहा है। लखनऊ में एक पार्टी की मजबूत सरकार है इसलिए निरंकुशता- स्वेच्छाचारिता के साथ हत्या-बलात्कार और सरकारी खजाने की लूट का दौर चल रहा है। यक्षप्रश्र यह है कि जनता क्या करे। मजबूत और मजबूर सरकारें दोनों ही उसकी खाल खैंचने में जुटी हैं। लोहिया की जिंदा कौमें भी इस नुमाइश में तमाशबीन बन कर खड़ी हैं। वस्तुत: देश का लोकतंत्र संक्रमणकाल से गुजर रहा है। इधर कुआं तो उधर खांई। इस पाले में नागनाथ तो उस पाले में सांपनाथ।
अपने-अपने हिस्से का लोकतंत्र
एक ओर जहां मिस्त्र समेत तमाम अरब मुल्कों में लोकतंत्र की बयार चल रही है, तहरीर चौक पर महात्मा गांधी की प्राणप्रतिष्ठा की जा रही है, वहीं दूसरी ओर हमारे देश के राजनीतिक दल अपने-अपने हिस्से के लोकतंत्र को मंजूषा में मढ़ाकर दरबार-ए-खास में सजाने की होड़ में हैं। कांग्रेस युवराज राहुल गांधी पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की बहाली की बात तो करते हैं पर पर वे 10 जनपथ के बाड़े में कैद उसी लोकतंत्र के हश्र को नजरअंदाज कर जाते हैं। दुनिया की अजूबी पार्टी है कांग्रेस। राष्ट्रीय अध्यक्ष का तो चुनाव हो गया पर प्रदेश-जिला व ब्लाक के अध्यक्ष कौन हों इसके लिए प्रतिनिधियों के मत का नहीं हाईकमान की सहमति का इंतजार है। इस हाईकमान में वही लोग हैं जिन्हें जनता ने रिजेक्ट किया और वे बरास्ते राज्यसभा फिर प्रकट हो गए। यही लोग जनता के बीच संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं का सीआर लिखते हैं और चुनावों के समय टिकट बांटते हैं। यह कांग्रेस हाईकमान के आंतरिक लोकतंत्र का तकाजा है कि वे देश-प्रांत की जनता के हिसाब से नहीं अपितु अपनी सहूलियत के हिसाब से प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री तय करें। देश की सबसे प्रचीन पार्टी के ढर्रे पर चलते हुए करुणानिधि के डीएमके, मुलायम सिंह की सपा, लालू यादव की राजग, चौटाला की रालोद समेत किसी न किसी रूप में सत्ता में हिस्सेदारी निभाने वाले सभी राजनीतिक दलों का अपना-अपना लोकतंत्र है जिसे वे अपने कुनबों की मदद से किसी ढोर डंगर की भांति हांक रहे हैं।
सत्ता बाजार की नुमाइश पर खड़े देश के लोकतंत्र की सेहत पर विचार करते हुए अनायास ही एक कविता का स्मरण हो आया जिसे बीस बरस पहले किसी स्थानीय कवि सम्मेलन में सुना था। कविता शहडोल के कवि पारसनाथ मिश्र की है। कविता की पंक्तियां तो शब्दश: याद नहीं पर उसका भावार्थ जस का तस रखने का जतन कर रहा हूं।
                                                           मेरे देश का जनतंत्र पैदा होते ही बीमार पड़ गया।
                                                                                     कुछ दिनों तक जिया,
                                                                         दवा दारू पिया और फिर मर गया।
                                                                 डॉक्टरों ने पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट में बताया
                                                                     कि यह सबकुछ हुआ महज दाइयों की
                                                                                         लापरवाही से।
                                                                       देश के कुछ दूरदर्शी चतुर ग्वालों ने
                                                                        मरे हुए जनतंत्र की खाल खैंचकर
                                                                                   उसमें भर दिया भूसा।
                                                                            देश की जनता ठहरी आदत से
                                                                                    बिलकुल सूध गऊ।
                                                                  चतुर ग्वाले मरे हुए जनतंत्र की ठटरी को
                                                                जनता के सामने रखते हैं, वह उसे चाटती है,
                                                                     दुलराती है समझकर अपना ही बछौना।
                                                          ग्वाले दूध दुहकर चले जाते हैं पांच साल के लिए ।
                                                                कांग्रेस की मजबूरी हो सकती है देश की नहीं
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अकादमिक योग्यता और उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी के कितने भी कसीदे काढ़े जाएं, लेकिन देश की जनता न तो उनकी ईमानदारी चाटकर जी सकती है और न ही उनकी मनमोहक छवि की संध्या आरती उतारकर। राजीव गांधी के बोफोर्स दौर का वही चर्चित शेर फिर रह-रह कर याद आता है जो आरिफ मोहम्मद खान जैसे कांग्रेस के बागियों ने उस वक्त उछाला था..तू इधर-उधर की न बातकर बता ये काफिला क्यों लुटा, तेरी रहजनी से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।.. गठबंधन धर्म के चलते हम मजबूर हैं इसलिए 2जी स्पेक्ट्रम, एस-बैंड, आदर्श, कामनवेल्थ जैसे लाखों -लाख करोड़ के घोटाले होते गए और हम धृतराष्ट्र की तरह देश की जनता के धन को लुटते हुए देखते रहे। विदेश से कालाधन लाने के सवाल पर किंतु-परंतु भी क्या गठबंधनधर्म की मजबूरी है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने टीवी चैनलों के संपादकों के साथ गठबंधन सरकारों के साथ भ्रष्टाचार की नियति को जिस अंदाज के साथ जोडऩे की चेष्ठा की है शायद ही कोई जानकार उनके इस कथन के साथ इत्तेफाक रखे। देश के इतिहास में गैर कांग्रेस और गैर भाजपा के नेतृत्व वाली जितनी भी गठबंधन सरकारें बनी हैं उन पर कभी भी भ्रष्टाचार के इतने गंभीर आरोप नहीं लगे। सन् सतहत्तर से गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ। मोरारजीभाई देसाई से लेकर चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल के प्रधानमंत्रित्व में गठबंधन सरकारें बनीं, पर इनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार के एेसे एक भी मामले सामने नहीं आए जिनका दृष्टांत दिया जा सके या लोगों की जुबान पर चढ़े हों। इन सरकारों के गिरने के कारण दलीय नेताओं की महत्वाकांक्षा रही है या दलों के नीतिगत मसले। दरअसल डॉ.मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री बनना ही इस देश में लोकतांत्रिक प्रणाली के पतन का प्रादर्श प्रकरण(मॉडल केस) है। डॉ. सिंह सीधे जनता से चुनकर लोकसभा नहीं पहुंचे हैं। उन्हें कांग्रेस के सांसदों व विधायकों ने वोट देकर राज्यसभा के लिए चुना है। प्रधानमंत्री के रूप भी वे संसद सदस्यों द्वारा निर्वाचित नहीं अपितु सोनिया गांधी द्वारा नामांकित किए गए हैं। इस लिहाज से वे सीधे देश के प्रति नहीं अपितु सोनिया गांधी और कांग्रेस के लिए प्रथमत: उत्तरदायी हैं। इसलिए जब वे कहते हैं कि उन्हें देश की जनता ने प्रधानमंत्री पद पर चुना है तो बड़ा अजीब सा लगता है। मनमोहन सिंह कांग्रेस व सोनिया गांधी के लिए मजबूरी हो सकते हैं पर देश उन्हें ढ़ोने के लिए कदापि मजबूर नहीं। अब सवाल यह उठता है कि देश में भ्रष्ट गठबंधन सरकार को मध्यावधि चुनाव के डर से क्या चलने दें? क्या देश में किसी सरकार को इस बात की इजाजत दी जा सकती है कि वह अपनी एेसी शर्त जनता पर थोपे? डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने साठ के दशक में नारा दिया था कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं। लेकिन यथास्थितिवाद से अभ्यस्त हो चुकी इन जिंदा कौमों में क्या इतना माद्दा बचा है कि वे दिल्ली के विजय चौक को काहिरा के तहरीर चौक में तब्दील कर सकें?

लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।
21फरवरी 2011 को प्रकाशित (प्रतिक्रिया के लिए 9425813208 में एसएमएस करें)

1 comment:

  1. इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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